परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी

रविवार, 2 अप्रैल 2017

= १६६ =

卐 सत्यराम सा 卐
जहाँ राम तहँ मैं नहीं, मैं तहँ नाहीं राम ।
दादू महल बारीक है, द्वै को नाहीं ठाम ॥
===========================
साभार ~ Chetna Kanchan Bhagat
.
पूरी गीता इस एक छोटे से शब्द में समा सकती है - "तू साथ हो जा।" 
जो हो रहा है, उससे तू विपरीत मत जा। जो हो रहा है, तू उसमें लीन हो जा। तू अपने को इतना महत्वपूर्ण मत मान कि तेरे किए कुछ भिन्न हो सकेगा।
.
अहंकार की यही मान्यता है।
इसलिए अहंकार भाग्य को कभी स्वीकार नहीं कर पाता। दुनिया में जितने अहंकारी हैं, वे सदा जोर देंगे कि तुम कुछ कर सकते हो। क्योंकि "करने" से अहंकार खड़ा होता है। अगर यह पक्का हो जाए कि कुछ किया ही नहीं जा सकता, तो अहंकार को खड़े होने की भूमि नहीं बचती। कहां खड़े होओगे अगर तुम कुछ कर ही नहीं सकते, तो तुम हो ही नहीं। कुछ कर सकते हो, तो ही तुम हो। तुम्हारे होने की अकड़ "करने" में ही निर्भर है।
.
नियति या भाग्य के सिद्धांत का गहरा अर्थ इतना ही है कि तुम कुछ भी करो - जो होना है, वही होगा। लेकिन तुम्हारे निर्णय और तुम्हारी दृष्टि और तुम्हारे रुख के कारण तुम अकारण दुखी या सुखी हो सकते हो सकते हो।
.
नदी दुखी हो सकती है - अगर सोचे कि मैं खो जाऊंगी। नदी सुखी हो सकती है - अगर सोचे कि मैं हवा पर सवार होकर रेगिस्तान को पार कर जाऊंगी।
.
इसलिए असाधु सदा दुखी है और साधु सदा सुखी, क्योंकि साधु साथ होने की कला जान गया है। और असाधु लड़ रहा है। असाधु का मतलब बुरा आदमी नहीं है। असाधु अच्छा आदमी भी हो सकता है। असाधु का गहरा अर्थ - लड़ने वाला है। अवरोध खड़े कर रहा है। प्रतिशोध ले रहा है। असाधु का गहरा अर्थ - कर्ता का भाव है। साधु का अर्थ है: कर्ता परमात्मा है, मैं सिर्फ निमित्त हूं।
.
इसलिए तुम साधु-असाधु से बुरे और अच्छे का अर्थ मत लेना। वह है नहीं। असाधु बहुत बार अच्छा हो सकता है। लेकिन अच्छे में भी वह कर्ता रहेगा। "मैंने दान किया, मैंने अहिंसा की, मैंने सेवा की, मैंने यह किया, मैंने वह किया।" वह अपने "मैं" के आसपास कर्तृत्व के बड़े-बड़े मकान खड़े करेगा।
.
मैंने सुना है: स्वर्ग के द्वार पर दो आदमियों ने एक साथ दस्तक दी। एक ही साथ जमीन पर मरे होंगे। द्वारपाल ने द्वार खोला। और पहला आदमी जो शराबी रहा था - जमीन पर, व्यभिचारी रहा था; ऐसा कोई पाप न था, जो उसने न किया हो; अभी तक उसके पैर लड़खड़ा रहे थे, इतनी शराब पी गया था। ऐसा लड़खड़ाता भीतर प्रविष्ट हुआ।
.
दूसरा आदमी जो एक धार्मिक आदमी था, पुण्यात्मा था; मंदिर बनाए थे, दान-दक्षिणा की थी; उसका नशा भी अभी उतरा नहीं था; अकड़ से प्रविष्ट हुआ। उसकी चाल देखकर तुम कह सकते थे कि यह आदमी कोई साधारण आदमी नहीं है। जाति का मुखिया रहा होगा, पंचायत का प्रमुख रहा होगा ! कई मंदिरों पर इसका नाम खुदा है। इसके कृत्यों की गाथा नीचे जमीन पर अभी भी चल रही होगी। मरघट पर जो लोग इसको बिदा देने गए होंगे, वे इसका यशोगान कर रहे होंगे।
.
और दूसरे आदमी को - इसे देखकर तुम कह सकते थे कि मरघट शायद इसको कोई पहुंचाने गया भी न होगा। शायद म्युनिसिपल की गाड़ी ने इसको मरघट पहुंचाया हो, अभी तक नशे में था और पैर लड़खड़ा रहे थे।
.
द्वारपाल ने पूछा इस शराबी से, "तूने क्या किया है जगत में, बता। उस हिसाब से हम तुझे भेज दें - स्वर्ग या नरक?" उसने कहा, "किया कुछ भी नहीं - कहने योग्य कुछ भी नहीं किया। और मुझे जैसा पापी खोजना कठिन है। इसलिए पूछने की कोई जरूरत नहीं है; हिसाब लगाओ मत; नरक का रास्ता कहां है - मुझे बता दो। मैं खुद ही चला जाऊंगा। तुम्हें कोई पहुंचाने का कष्ट भी लेने की जरूरत नहीं है। पक्का ही है - नरक मेरा; यह मुझे पहले से ही पता है।"
.
पूछा दूसरे आदमी से, उसने पूरी फेहरिस्त गिनाई कि इतने मंदिर बनाए, इतने साधुओं को इतनी बार भोजन कराया, इतने उपवास किए, इतनी माला जपी, इतने लाख बार राम का नाम लिखा - यह सब ! उसने लिस्ट बताई। उसने भी कहा, "पूछने की कोई जरूरत नहीं है। जैसे यह आदमी कहता है कि "नरक कहां है, रास्ता बता दो", वैसा मुझे बता दो कि स्वर्ग कहां है।"
.
और जब वे दोनों पहुंचाए गए, तो शराबी स्वर्ग में था और दानी नरक में था। क्योंकि जिसने यह स्वीकार कर लिया कि मैंने कुछ किया ही नहीं; जिसने यह स्वीकार कर लिया कि मैं ना-कुछ हूं, उसके सब पाप शून्य हो गए। क्योंकि बिना अहंकार के कोई पाप रुक ही नहीं सकता। जगह ही नहीं बचती, जहां रुके - उसके सब पाप डूब गए। और जिसने यह कहा कि मैंने किया, उसके सब पुण्य डूब गए। क्योंकि पुण्य का अहंकार से संबंध जुड़ा कि सब पुण्य पाप हो जाते हैं।
.
*इसलिए साधु-असाधु से अच्छे-बुरे का कोई भी संबंध नहीं है। जो जानते हैं, वे कहते हैं: साधु वह है, जो साथ हो गया। असाधु वह है, जो लड़ा। असाधु वह है, जिसने जिद्द की। बड़े वृक्ष, आंधियों में जो खड़े रह जाते हैं, वे असाधु हैं। झुक जाने वाले पौधे साधु हैं।* 
.
ओशो ~ सहज समाधि भली ०८

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें