परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी

सोमवार, 3 अप्रैल 2017

= १६८ =

卐 सत्यराम सा 卐
निराधार घर कीजिये, जहँ नांहि धरणि आकास ।
दादू निश्चल मन रहै, निर्गुण के विश्वास ॥ 
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साभार ~ Gems of Osho

*पापी और पुण्यात्मा*

पापी और पुण्यात्मा में बहुत फर्क नहीं है। इतना ही फर्क है, जैसे एक आदमी पैर पर खड़ा है और एक आदमी सिर पर खड़ा है। तुम अगर शीर्षासन कर लो तो कुछ फर्क हो जाएगा? 
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तुम ही रहोगे - सिर के बल खड़े रहोगे। अभी पैर के बल खड़े थे। क्या फर्क होगा तुममें? तुम उलटे हो जाओगे। पुण्यात्मा सीधा खड़ा है; पापी सिर के बल खड़ा है वह शीर्षासन कर रहा है। और शीर्षासन करने में कष्ट मिलता है, तो पा रहा है। पुण्यात्मा कुछ विशेष नहीं कर रहा है। और पापी कुछ पाप का फल आगे पाएगा, ऐसा नहीं है; पाप करने में ही पा रहा है। सिर के बल खड़े होओगे, कष्ट मिलेगा। और पुण्यात्मा पैर के बल खड़ा है, इसलिए सुख पा रहा है। इसमें कोई भविष्य में कोई सुख मिलेगा, स्वर्ग मिलेगा ऐसा कोई सवाल नहीं है।
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तुम अगर ठीक ठीक चलते हो रास्ते पर, तो सकुशल घर आ जाते हो, बस। अगर तुम उलटे सीधे चलते हो, शराब पीकर चलते हो गिर पड़ते हो, पैर में चोट लग जाती है, फ्रैक्चर हो जाता है। कोई जमीन तुम्हारे पैर में फ्रैक्चर नहीं करना चाहती थी; तुम्हीं उलटे सीधे चले।
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पापी उलटा सीधा चल रहा है, थोड़ा डांवाडोल चल रहा है; पुण्यात्मा थोड़ा सम्हलकर चल रहा है। लेकिन कबीर कहते हैं कि जो अपने भीतर चला गया, वह तो स्वयं परमात्मा हो गया वहां न कोई पाप है, न कोई पुण्य है। उसकी चाल का क्या कहना ! 
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ध्यान रखो, पाप से दुख मिलता है, पुण्य से सुख मिलता है। पाप रोग की तरह है, पुण्य स्वस्थ होने की तरह है। लेकिन भीतर जो चला गया, वह न तो दुख में होता है, न सुख में; वह आनंद में जीता है। आनंद बड़ी और बात है। आनंद का मतलब है: सुख भी गए, दुख भी गए। क्योंकि जब तक दुख रहते हैं, तभी तक सुख रहते हैं। और जब तक सुख रहते हैं, तब तक दुख भी छिपे रहते हैं; वे जाते नहीं। पापी के लिए नरक, पुण्यात्मा के लिए स्वर्ग; और जो भीतर पहुंच गया, उसके लिए मोक्ष। वह स्वर्ग और नरक दोनों के पार है।
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पुण्य और पाप, दोनों ही बंधन है। पाप होगा लोहे की जंजीर, पुण्य होगा सोने की जंजीर हीरे, जवाहरातों से जड़ी। पर क्या फर्क पड़ता है? पापी भी बंधा है, पुण्यात्मा भी बंधा है। पापी दुख पा रहा है, पुण्यात्मा सुख पा रहा है; लेकिन दोनों को अभी उसकी खबर नहीं मिली जो दोनों के पार है। दोनों द्वैत में जी रहे हैं। भीतर जिसने स्वयं को जाना; जिसने साहब को जाना; जिसने अपने सलोने रूप को पहचाना; जिसने अपने निराकार निर्गुण को देखा; जिसने अपनी अद्वैत प्रतिष्ठा पाई उसके लिए न तो कोई पुण्य है, न तो कोई पाप है। वह द्वंद्व के बाहर हो गया वह निर्द्वंद्व है। वह द्वैत के पार उठ गया वह अद्वैत है।
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और यह साहब बहुत दूर नहीं है। पास भी कहना उचित नहीं है। साहब तुम्हारे भीतर है। भीतर कहना भी उचित नहीं है। साहब तुम्हीं हो। 
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*ऐसन साहब कबीर…! ‘कस्तूरी कुंडल बसै!’*

सुनो भई साधो ~ ओशो

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