परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी

शनिवार, 8 अप्रैल 2017

= विन्दु (२)९६ =

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॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू चरितामृत(भाग-२)* 
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*= विन्दु ९६ =*
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*६ - उत्तर मीमांसा -* 
उत्तर मीमांसा वेदांत शास्त्र छः वां दर्शन है । उसका तो दादू वाणी में विशेष रूप से वर्णन मिलता है । उसके कुछ उदाहरण - 

*ब्रह्म -* 
“कृत्रिम नहिं सो ब्रह्म है, घटे बढ़े नहिं जाय । 
पूरण निश्चल एक रस, जगत न नाचे आय ॥ 
दादू अविहड़ आप है, कबहूं विहड़े नांहिं । 
घटे बधे नहिं एक रस, सब उपजे उस मांहिं ॥
बिन श्रवणों सब कुछ सुने, बिन नैनहु सब देखे ।
बिन रसना सबै कुछ बोले, यहु दादू अचरज पेखे ॥ 
हस्त पांव नहिं शीश मुख, श्रवण नेत्र कहु कैसा । 
दादू सब देखे सुने, कहै गहै ऐसा ॥” 

*ब्रह्म का सोपाधिक स्वरूप -* 
“सबै सो सारिखा, सबै दिशा मुख बैन । 
सबै दिशा श्रवणोंहु सुने, सबै दिशा कर नैन ॥ 
सबै दिशा पग शीश है, सबै दिशा मन चैन । 
सबै दिशा सन्मुख रहै, सबै दिशा अंग ऐन ॥” 

*ब्रह्म की जीव में व्याप्ति -*
“जीयें तेल तिलन में, जीयें गंध फूलंनि । 
जीयें माखण क्षीर में, ईयें रब्ब रूहंनि ॥ 
पुहप वास घृत दूध में, अब का से कहिये । 
पाहन लोह बिच वासुदेव, ऐसे मिल रहिये ॥”
उक्त प्रकार ब्रह्म का निरूपण दादूवाणी में अनेक प्रकार हुआ है । 

*ईश्वर -*
“सब देखण हारा जगत का, अन्तर पूरे साखि । 
दादू स्याबत सो सही, दूजा और न राखि ॥ 
माँहीं थे मुझ को कहै, अन्तरयामी आप । 
दादू दूजा धंध है, साचा मेरा जाप ॥” 

*माया -*
“उपजे विनशे गुण धरे, यहु माया का रूप । 
दादू देखन थिर नहीं, क्षण छांही क्षण धूप ॥ 
जे नाहीं सो ऊपजे, है सो उपजे नांहिं ॥ 
अलख आदि अनादि है, उपजे माया मांहिं ॥” 

*जीव -* 
“जामे मरे सो जीव है, रमता राम न होय । 
जामण मरणे से रहित, मेरा साहिब सोय ॥” 

*प्रश्न -* 
जे यहु कर्ता जीव था, संकट क्यों आया । 
कर्मों के वश क्यों भया, क्यों आप बँधाया ॥ 
*उत्तर -* 
दादू कृत्रिम काल वश, बँध्या गुण मांहीं । 
उपजे विनशे देखतां, यहु कर्ता नांहीं ॥” 

*आभासवाद -* 
“जल में गगन, गगन में जल है, 
पुनि वह गगन - निरालम् । 
ब्रह्म जीव इहिं विधि रहै, ऐसा भेद विचारम् ॥ 
ज्यों दर्पण में मुख देखिये, पानी में प्रतिबिम्ब । 
ऐसे आतम राम हैं, दादू सब ही संग ॥” 

*साभास - अन्तःकरण -* 
जब दर्पण में मुख देखिये, तब अपना सूझे आप । 
दर्पण बिन सूझे नहीं, दादू पुन्य रु पाप ॥” 

*सृष्टि -* 
“एक शब्द सब कुछ किया, ऐसा समर्थ सोय । 
आगे पीछे तो करे, जो बल - हीना होय ॥” 

*अध्यास -* 
“मैं नाहीं तब एक है, मैं आई तब दोय ।
मैं तैं पड़दा मिट गया, तब ज्यों था त्यों ही होय ॥ 
जहां राम तहँ मैं नहीं, मैं तहँ नाहीं राम । 
दादू महल बारीक है, द्वै को नांहीं ठाम ॥ 
दादू आपा जब लगे, तब लग दूजा होय । 
जब यहु आपा मिट गया, तब ज्यों था त्यों ही होय ॥” 

*संसार -*
“स्वप्ने सब कुछ देखिये, जागे तो कुछ नांहिं ।
तैसा यहु संसार है, समझ देख मन मांहिं ॥ 
जे नाहीं सो देखिये, सूता सुपने मांहिं । 
दादू झूठा हो गया, जागे तो कुछ नांहिं ॥” 

*मन -*
“मन ही माया ऊपजे, मन ही माया जाय । 
मन ही राता राम से, मन ही रहा समाय ॥ 
मन ही मरणा ऊपजे, मन ही मरणा खाय । 
मन अविनाशी हो रह्या, साहिब से ल्यौ लाय ॥ 
मन ही से मल ऊपजे, मन ही से मल धोय । 
सीख चले गुरु साधु की, तो तू निर्मल होय ॥ 
ऐसा कोई एक मन, मरै सु जीवे नांहिं । 
दादू ऐसा बहुत हैं, फिर आवें कलि मांहिं ॥ 
पाका मन डोले नहीं, निश्चल रहै समाय । 
काचा मन दह दिश फिरै, चंचल चहुँ दिशि जाय ॥” 

*आशा तहां वाशा -*
“जिसकी सुरति जहां रहै, तिसका तहँ विश्राम । 
भावै माया मोह में, भावै आतम राम ॥ 
जहँ मन राखे जीवतां, मरतां तिस घर जाय । 
दादू वासा प्राण का, जहँ पहले रहा समाय ॥ 
जप तप करणी कर गये, स्वर्ग पहूंचे जाय । 
दादू मन की बासना, नरक पड़े फिर आय ॥ 

*सूक्ष्म जन्म -*
“दादू जेते गुण व्यापैं जीव को, ते ते ही अवतार । 
आवागमन यहु दूर कर, समर्थ सिरजनहार ॥
सब गुण सब ही जीव के, दादू व्यापैं आहिं । 
घट मांहीं जीवे मरे, कोई न जाणे ताहिं ॥ 
जीव जन्म जाणैं नहीं, पलक-पलक में होय । 
चौरासी लख भोगवे, दादू लखे न कोय ॥ 
निश वासर यहु मन चले, सूक्ष्म जीव संहार । 
दादू मन थिर कीजिये, आतम लेहु उबार ॥” 

*सूक्ष्म सौच -*
“दादू देह जतन कर राखिये, मन राख्या नहिं जाय । 
उत्तम मध्यम वासना, भला बुरा सब खाय ॥” 

*अभ्यास -*
“जहां तैं मन उठ चले, फेरी तहां ही राखि ।
तहँ दादू लै लीन कर, साधु कहें गुरु साखि ॥” 

*जीवन्मुक्ति -* 
“जीवत छूटे देह गुण, जीवत मुक्ता होय ।
जीवत काटे कर्म सब, मुक्त कहावे सोय ॥ 
गुणातीत सो दर्शनी, आपा धरै उठाय ।
दादू निर्गुण राम गहि, डोरी लागा जाय ॥ 
देह रहै संसार में, जीव राम के पास । 
दादू कुछ व्यापे नहीं, काल झाल दुखत्रास ॥ 
दादू छूटे जीवतां, मूँवाँ छूटे नांहिं । 
मूँवाँ पीछे छूटिये, तो सब आये उस माँहिं ॥
मूँवाँ पीछे मुक्ति बतावे, मूवाँ पीछे मेला । 
मूंवाँ पीछे अमर अभय पद, दादू भूले गहिला ॥ 
पिंड मुक्ति सब को करे, प्राण मुक्ति नहिं होय । 
प्राण मुक्ति सद्गुरु करे, दादू बिरला कोय ॥”
(क्रमशः)

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