परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी

सोमवार, 29 जुलाई 2024

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*दादू मना मनी सब ले रहे, मनी न मेटी जाइ ।*
*मना मनी जब मिट गई, तब ही मिले खुदाइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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मैंने सुना है, एक महल के पास पत्थरों का एक छोटा सा ढेर लगा था, और कुछ बच्चे वहां से खेलते निकले थे, और एक बच्चे ने एक पत्थर को उठा कर महल की तरफ फेंका। पत्थर ऊपर उठने लगा। पत्थरों के पास पंख नहीं होते हैं, लेकिन उड़ने की इच्छा उनमें भी होती है। आदमी के पास पंख नहीं होते, आदमी की इच्छा भी उड़ने की होती है।
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पत्थरों की इच्छा भी उड़ने की होती है, आकाश छूने की होती है। लेकिन पत्थर नीचे पड़े रहते हैं, उड़ नहीं पाते। और जब एक पत्थर ऊपर उड़ने लगा, तो उसने नीचे पड़े हुए पत्थरों को तिरस्कार से देखा और कहा, मैं आकाश की यात्रा को जा रहा हूं। नीचे के पत्थर विरोध भी नहीं कर सकते थे, इनकार भी नहीं कर सकते थे। यह बात सच थी वह पत्थर जा रहा था।
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लेकिन एक छोटा सा फर्क उस पत्थर ने कर दिया था। वह फेंका गया था। लेकिन उसने कहा, मैं जा रहा हूं। उसने यह नहीं कहा कि मैं फेंका गया हूं, उसने कहा, मैं जा रहा हूं। और आत्मा और अहंकार का फासला शुरू हो गया। अगर वह कहता कि फेंका गया हूं, तो शायद वह आत्म-बोध को उपलब्ध हो जाता। लेकिन उसने कहा, मैं जा रहा हूं। और वह अहंकार को इकट्ठा करना शुरू कर दिया। जहां उसका कोई कृत्य न था वहां उसने कहा कि मैं जा रहा हूं। नीचे के पत्थर इनकार भी नहीं कर सकते थे।
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वह पत्थर ऊपर उठा और जाकर महल के कांच से टकराया, कांच चकनाचूर हो गया। अब यह स्वाभाविक ही है कि पत्थर कांच से टकराए तो कांच चकनाचूर हो जाए। इसमें पत्थर कांच को चकनाचूर करता नहीं है, कांच चकनाचूर हो जाता है, इट जस्ट हैपंस। इसमें कोई पत्थर कांच को तोड़ नहीं देता, कांच और पत्थर टकराते हैं तो कांच टूट जाता है।
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लेकिन पत्थर ने कहा कि पागल कांच, तू अखबार नहीं पढ़ता है, तू रेडियो नहीं सुनता है, मैंने कितनी बार यह खबर नहीं की है कि मेरे रास्ते में कोई भी न आए, नहीं तो मैं चकनाचूर कर दूंगा। अब पछताओ अपने भाग्य पर। चकनाचूर हो गए हो। पत्थर के रास्ते में जो भी आएगा चकनाचूर हो जाएगा। और याद रखो, मैं कोई साधारण पत्थर नहीं हूं, मैं आकाश में उड़ने वाला पत्थर हूं। कांच के टुकड़े क्या कह सकते थे ? बात सच ही थी, वे चकनाचूर हो गए थे।
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लेकिन पत्थर झूठ बोल रहा था। उसने कांच को चकनाचूर किया नहीं था, कांच चकनाचूर सिर्फ हो गया था। लेकिन कौन उसे इनकार करे, और कौन उसका विरोध करे। और अहंकार की अंधी आंखें किसी का इनकार सुनती हैं, किसी का विरोध सुनती हैं ? अहंकार की अंधी आंखों को जब विरोध मिलता है, तो अहंकार और सख्त और घनीभूत और कंडेंस्ड हो जाता है, और मजबूत हो जाता है विरोध के लिए, और तैयार हो जाता है।
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पत्थर जाकर महल के बिछे हुए ईरानी कालीन पर गिरा। उसने ठंडी श्वास ली राहत की और उसने कहा कि बड़े भले लोग हैं इस मकान के, मालूम होता है बहुत सुशिक्षित, सुसंस्कृत, ज्ञात होता है मेरे आने की खबर पहले ही पहुंच गई, उन्होंने कालीन वगैरह बिछा रखे हैं। फिर हो भी क्यों न स्वागत, मैं कोई साधारण पत्थर नहीं हूं, मैं आकाश में उड़ने वाला पत्थर हूं।
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महल के मालिकों को सपने में भी पता न होगा कि किसी पत्थर का आयोजन कर रहे हैं वे, ये कालीन किसी आने वाले पत्थर के लिए बिछाए गए हैं, इसकी उनको कोई खबर न थी, पत्थर भी उस महल में अतिथि बनेगा, इसका उन्हें कोई पता नहीं था। वैसे अतिथि का मतलब ही यही होता है जिसके आने की कोई खबर न हो, जिसकी तिथि की कोई खबर न हो। लेकिन पत्थर ने मन में सोचा कि मैं आया हूं मेरे स्वागत के लिए सब इंतजाम किया गया है। वह फूल कर दुगुना हो गया।
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झोपड़े से आदमी महल में जाता है तो दुगुना हो जाता है। गांव से आदमी दिल्ली पहुंच जाता है तो दुगुना हो जाता है। वह पत्थर भी दुगुना हो गया तो कोई आश्चर्य नहीं है। फिर महल के पहरेदार ने खबर सुनी होगी पत्थर के आने की और कांच के फूट जाने की, वह भागा हुआ आया और उसने पत्थर को उठाया फेंकने के लिए, लेकिन पत्थर ने अपने ही मन में कहा, धन्यवाद ! बहुत धन्यवाद ! मालूम होता है महल का मालिक हाथ में लेकर सम्मान दे रहा है। और पत्थर को वापस फेंक दिया गया। लौटते हुए पत्थर ने कहा कि होंगे तुम्हारे महल कितने ही अच्छे, लेकिन मुझे मेरे मित्रों की और घर की बहुत याद आती है, होम सिकनेस मालूम होती है। मैं वापस जा रहा हूं।
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कोई भी लौटता है तो यही कहते हुए लौटता है, होम सिकनेस मालूम हो रही है। तो वापस जा रहा हूं। वह पत्थर भी ऐसा कहता हुआ वापस लौटा। वह नीचे जब अपने पत्थरों में गिरने लगा तो पत्थर टकटकी लगाए उसे देख रहे थे, उसने आते ही कहा कि मित्रो, मैंने दूर-दूर की यात्राएं की, बड़े महलों में मेहमान हुआ। लेकिन महल होंगे कितने ही अच्छे, परदेस परदेस है। देश देश है, मातृभूमि की बात ही कुछ और है। मन में तुम्हारी याद आती थी। सोता था महलों में, सपने तुम्हारे देखता था। वापस लौट आया हूं।
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इस पत्थर पर हमें हंसी आ सकती है। लेकिन जिस आदमी को पत्थर पर हंसी आती है उस आदमी को अगर अपने स्वयं के अहंकार पर भी हंसी आ जाए, तो उसकी जिंदगी में आत्म-बोध की पहली किरण का जन्म हो जाता है।
ओशो

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