परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी

शनिवार, 27 जुलाई 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #४४३

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*भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।*
*साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।*
*#हस्तलिखित०दादूवाणी सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४४३)*
*राग धनाश्री ॥२७॥**(गायन समय दिन ३ से ६)*
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*४४३. पद*
*निराकार तेरी आरती,*
*बलि जाऊँ, अनन्त भवन के राइ ॥टेक॥*
*सुर नर सब सेवा करैं, ब्रह्मा विष्णु महेश ।*
*देव तुम्हारा भेव न जानैं, पार न पावै शेष ॥१॥*
*चन्द सूर आरती करैं, नमो निरंजन देव ।*
*धरणि पवन आकाश आराधैं, सबै तुम्हारी सेव ॥२॥*
*सकल भवन सेवा करैं, मुनियर सिद्ध समाधि ।*
*दीन लीन ह्वै रहे संतजन, अविगत के आराधि ॥३॥*
*जै जै जीवनि राम हमारी, भक्ति करैं ल्यौ लाइ ।*
*निराकार की आरती कीजै, दादू बलि बलि जाइ ॥४॥*
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हे अनन्त भवनों के स्वामी राम ! हे निरंजन देव ! आपकी भक्ति करते हुए मैं आपको सर्वस्व न्यौछावर कर रहा हूं । देवता मनुष्य सब आपकी ही स्तुति करते हैं । ब्रहमा, विष्णु, महेश आपका ध्यान करते हुए भी आपके आदि अन्त को तथा आपके रहस्य को नहीं जान सके । दो हजार जीभ वाला शेष भी एक हजार मुख से स्तुति करता हुआ भी आपके नामों का अन्त नहीं जान सका ।
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सूर्य चंद्रमण भी आपकी ही दिन रात स्तुति करते हैं । पृथिवी, वायु, आकाश भी आपकी ही आराधना करते हैं । हे निरंजन देव ! मैं आपको नमस्कार करता हूं । त्रिलोकी के प्राणी, मुनिवर, समाधिस्थ योगी भी आपकी ही सेवा करते हैं ।
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इन्द्रियातीत ब्रह्म की दीन भाव से आराधना करते हुए संत आपके स्वरूप में लीन हो जाते हैं । हे जीवनधन राम ! आपकी जय हो, जय हो, मैं तो आपकी ही भक्ति करता हूँ । आपकी स्तुति करते हुए मैं आपके चरण कमलों में अपना सर्वस्व अर्पण कर रहा हूँ ।
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श्रीमद्भागवत में – ब्रह्मा स्तुति करते हुए कह रहे हैं कि – हे प्रभो ! इस भूमि के किसी भी वन में विशेष करके गोकुल में, किसी भी योनि में, मेरा जन्म हो जाय । यह ही मेरे लिये बड़े सौभाग्य की बात होगी, क्योंकि यहां जन्म होने पर आपके किसी किसी प्रेमी के चरण की धूलि अपने ऊपर पड़ ही जायगी ।
आपके प्रेमी व्रजवासियों का संपूर्ण जीवन आप का ही जीवन है, आप ही उनके जीवन के सर्वस्व हैं, इसलिये उनके चरणों की धूलि मिलना मैं तो आपके ही चरणों की धूलि के समान मानता हूं । आपके चरणों की धूलि को तो श्रुतियां भी अनादि काल से ढूंढ रही है ।
जो पुरुष क्षण-क्षण पर बड़ी उत्सुकता से आपकी कृपा का भली-भांति अनुभव करता रहता है तो प्रारब्ध के अनुसार सुख या दुःख प्राप्त होता है, उसे निर्विकार मन से भोग लेता है ।
एवं जो प्रेम=पूर्ण हृदय गद्गद वाणी और पुलकित शरीर से अपने को आपके चरणों से समर्पित करता रहता है, इस प्रकार जीवन व्यतीत करने वाला पुरुष ठीक वैसे ही परम पद का अधिकारी हो जाता है जैसे अपने पिता की सम्पत्ति का अधिकारी पुत्र हो जाता है ।
(क्रमशः)

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