परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी

गुरुवार, 25 जुलाई 2024

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*मेरा गुरु ऐसा ज्ञान बतावै ।*
*मन पवना गहि आतम खेला,*
*सहज शून्य घर मेला ।*
*अगम अगोचर आप अकेला,*
*अकेला मेला खेला ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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*भारत में गुरु के प्रति सम्मान का भाव इतना पुराना है कि विश्वविद्यालय का शिक्षक भी सोचता है कि मैं गुरु हूं* —बिना इस बात की फिकर किया कि गुरु कि गुरुता कहां; बिना इस बात की चिंता किये कि गुरु होना साधारण आदमी के बस की बात नहीं ! क्योंकि गुरु तो वही हो सकता है, जो उस गुरुता को उपलब्ध हो गया; जो अंतिम महिमा की उपलब्ध हो गया; जिसने परम सत्य को जान लिया, वही गुरु हो सकता है। जिसको जानने को कुछ शेष न रहा, जिसके होने में अंतिम घटना घट गई; जो समाधिस्थ हुआ; जिसके लिए परमात्मा पारदर्शी हो गया; जो परमात्मा से एक हो गया; जिसमें और परमात्मा में रत्ती भर भेद न रहा—गुरु वह है।
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शिक्षक और विद्यार्थी में जो फर्क है, वह परिणाम का है—गुण का नहीं है; क्वालिटेटिव नहीं है, क्वांटिटेटिव्ह है। गुरु थोड़ा ज्यादा जानता है, शिष्य थोड़ा कम जानता है—ऐसा आप सोचते हैं ? नहीं गुरु और शिष्य के बीच जो भेद है, कम ज्यादा का नहीं है। गुरु और शिष्य के बीच मात्रा का भेद नहीं है, गुण का भेद है। गुरु कहीं और है, शिष्य कहीं और है। दो अलग लोगों में उनका निवास है। दो अलग आयाम में वे जीते हैं। उनका अस्तित्व भिन्न है। लेकिन विश्वविद्यालय का शिक्षक और उसका विद्यार्थी, उनमें जो अंतर है, वह मात्रा का है।
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शिक्षक थोड़ा ज्यादा जानता है, विद्यार्थी थोड़ा कम। और इसलिए अगर विद्यार्थी थोड़ा कुशल हो तो कोई कठिनाई नहीं कि शिक्षक से ज्यादा जान सके। कोई भी कठिनाई नहीं है। मात्रा का ही फर्क है। तो जो बहुत प्रतिभाशाली विद्यार्थी होता है, वह अक्सर शिक्षक से ज्यादा जान लेता है। थोड़ी प्रतिभा, थोड़ा श्रम—बस इतनी ही बात है। और आज नहीं जानता, तो कल जान लेगा।
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शिक्षक एम. ए. की उपाधि लिए हुए है, विद्यार्थी कल एम. ए. की उपाधि ले लेगा। तो जो फासला है, वह मात्रा का है, गुण का नहीं। जहां तक बीइंग का, आत्मा का सवाल है, दोनों जैसे हैं। जहां तक स्मृति का सवाल है, दोनों में फर्क है। एक के पास ज्यादा, एक के पास काम। लेकिन इसमें गुणवत्ता क्या है, गुरुता क्या है ? गुरु और शिष्य के बीच जो फासला है, वह क्वालिटेटिव है, वह गुण का है। गुरु कहीं और, शिष्य कहीं और। यह मात्रा का भेद नहीं है। यह तो पूरा तो पूरा का पूरा शिष्य का जब रूपांतरण होगा, तभी यह भेद टूटेगा। यह भेद सीखने से टूटनेवाला नहीं है। जन्मों—जन्मों तक शिष्य सीखता रहे, तो भी टूटेगा नहीं। और यह भी हो सकता है कि जानकारी की दुनिया में गुरु से ज्यादा भी जान ले, तो भी नहीं टूटेगी। इसमें क्या कठिनाई है ? बुद्ध से ज्यादा कोई भी जान सकता है।
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सच तो यह है कि आज विश्वविद्यालय में पढ़नेवाला एक विद्यार्थी बुद्ध से ज्यादा जानता है। कबीर की जानकारी क्या है? कबीर से ज्यादा तो कोई भी जानता है। कबीर को न तो पता था आइंस्टीन का, न पता था हेजनबर्ग का; न कबीर को पता था हिरोशिमा, नागासकी में गिरनेवाले एटमबस का। कबीर को पता ही क्या था ?
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अगर पते की ही बात पूछते हो, तो कबीर को अगर मैट्रिक की परीक्षा में बिठा दो तो तुम सोचते हो कि एकदम पास हो जाएंगे ? टयूटर रखने पड़ेंगे, और सालों मेहनत करनी पड़ेगी, तब पास हो पाएंगे। फिर भी पक्का नहीं है। जानकारी का सवाल ही नहीं है। लेकिन हम जन्मों—जन्मों तक पढ़ते रहो, लिखते रहो, उपाधियां इकट्ठी करते रहो, पच्चीस उपाधियां इकट्ठी कर लो विश्वविद्यालय तुम्हें सम्मानित करें, डी. लिट. से, तो भी तो तुम कबीर के एक कण को न पा सकोगे। तुम्हारी तो बात दूर, तुम्हारा आइंस्टीन भी कबीर के एक कण को नहीं पा सकता।
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आइंस्टीन भी मरते वक्त इसी पीड़ा से मरता है कि मैं बिना कुछ जाने मर रहा हूं; यह रहस्य जगत का अछूता रह गया। आइंस्टीन कितना जानता है ! मनस्विद कहते हैं कि आइंस्टीन जितना जानता है, शायद मनुष्य जाति के इतिहास में इतना किसी आदमी ने कभी नहीं जाना, जानकारी का जहां तक संबंध है। खुद आइंस्टीन चकित था कि इतनी जानकारी मेरे भीतर बनी कैसे रहती है ! तो मरते वक्त वसीयत कर गया तो मेरे सिर की वैज्ञानिक जांच की जाए—मस्तिष्क की। तो मस्तिष्क प्रयोगशाला में रखा हुआ है और जांच चल रही है। अनूठा मस्तिष्क है, उसकी जानकारी बड़ी है ! लेकिन आत्मा ? आत्मा वही है, जहां तुम्हारी है; उसमें कोई फर्क नहीं है।
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तो दो बातें खयाल कर लें—एक तो जानकारी का परिणात्मक विस्तार, और एक आत्मा का गुणात्मक विस्तार। कबीर के पास कुछ भी नहीं है, जो तुमसे ज्यादा है। तुम्हारे पास मकान बड़ा कबीर से, तुम्हारे पास दुकान बड़ी कबीर से, तुम्हारे पास स्मृति बड़ी कबीर से, तुम्हारे पास अनुभव भी बड़ा कबीर से—फिर भी कबीर तुमसे बड़े हैं। और तुम जन्मों—जन्मों तक इसी यात्रा में चलते रहो, जिसमें चल रहे हो, तो तुम कबीर के पैर की धूल को भी न पा सकोगे।
ओशो ~ स्रोत पुस्तक ओशो वर्ल्ड

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