परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी

शुक्रवार, 2 अगस्त 2024

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*दादू पहुँचे पूत बटाऊ होइ कर, नट ज्यों काछा भेख ।*
*खबर न पाई खोज की, हमको मिल्या अलेख ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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सारी मनुष्यता का मस्तिष्क पंगु बनाया गया है, ईश्वर की दृष्टि से। ईश्वर की तरफ जाने की जो प्यास है, उसे सब तरफ से काट दिया जाता है; उसको पनपने के मौके नहीं दिए जाते। और अगर कभी उठती भी हो, तो झूठे सब्स्‍टियूट खड़े कर दिए जाते हैं और बता दिया जाता है— परमात्मा चाहिए ? चले जाओ मंदिर में! परमात्मा चाहिए ? पढ़ लो गीता, पढ़ो कुरान, पढ़ो वेद— मिल जाएगा।
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वहां कुछ भी नहीं मिलता, शब्द मिलते हैं। मंदिर में पत्थर मिलते हैं। तब आदमी सोचता है कि कुछ भी नहीं है, तो शायद अपनी प्यास ही झूठी रही होगी। और फिर प्यास ऐसी चीज है कि आई और गई। जब तक आप मंदिर गए तब तक प्यास चली गई। जब तक आपने गीता पढ़ी तब तक प्यास चली गई। फिर धीरे— धीरे प्यास कुंठित हो जाती है। और जब किसी प्यास को तृप्त होने का मौका न मिले तो वह मर जाती है। वह धीरे— धीरे मर जाती है।
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मैंने सुना है, काफ्का ने एक छोटी सी कहानी लिखी है। उसने एक कहानी लिखी है कि एक बड़ा सर्कस है, और उस बड़े सर्कस में बहुत तरह के लोग हैं, और बहुत तरह के खेल तमाशे हैं। उस सर्कसवाले ने एक फास्ट करनेवाले को, उपवास करनेवाले को भी इकट्ठा कर लिया है। वह उपवास करने का प्रदर्शन करता है। उसका भी एक झोपड़ा है। सर्कस में और बहुत चीजों को लोग देखने आते हैं— जंगली जानवरों को देखते हैं, अजीब—अजीब जानवर हैं।
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इस अजीब आदमी को भी देखते हैं। यह महीनों बिना खाने के रह जाता है। वह तीन—तीन महीने तक बिना खाने के रहकर उसने दिखलाया है। निश्चित ही, उसको भी लोग देखने आते हैं। लेकिन कितनी बार देखने आएं ? एक गांव में सर्कस छह—सात महीने रुका। महीने—पंद्रह दिन लोग उसको देखने आए। फिर ठीक है, अब भूखा रहता है तो रहता है। कब तक लोग देखने आएंगे ?
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सर्कस है, साधु—संन्यासी हैं, इसलिए इनको गांव बदलते रहना चाहिए। एक ही गांव में ज्यादा दिन रहे तो बहुत मुश्किल हो। वे कितने दिन तक लोग आएंगे ? इसलिए दों—तीन दिन में गांव बदल लेने से ठीक रहता है। दूसरे गांव में फिर लोग आ जाते हैं। दूसरे गांव में फिर लोग आ जाते हैं।
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उस गांव में सर्कस ज्यादा दिन रुक गया। लोग उसको देखने आना बंद कर दिए। उसकी झोपड़ी की फिकर ही भूल गए। वह इतना कमजोर हो गया था कि मैनेजर को जाकर खबर भी नहीं कर पाया, उठ भी नहीं सकता था, पड़ा रहा, पड़ा रहा, पड़ा रहा—बड़ा सर्कस था, लोग भूल ही गए। चार महीने, पांच महीने हो गए, तब अचानक एक दिन पता चला कि भई, उस आदमी का क्या हुआ जो उपवास किया करता था ?
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तो मैनेजर भागा कि वह आदमी मर न गया हो। उसका तो पता ही नहीं है! जाकर देखा तो वह जिस घास की गठरी में पड़ा रहता था वहां घास ही घास था, आदमी तो था नहीं। आवाज दी ! उसकी तो आवाज नहीं निकलती थी। घास को अलग किया तो वह बिलकुल हड्डी—हड्डी रह गया था। आंखें उसकी जरूर थीं।
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मैनेजर ने पूछा कि भई, हम भूल ही गए, क्षमा करो ! लेकिन तुम कैसे पागल हो, अगर लोग नहीं आते थे, तो तुम्हें खाना लेना शुरू कर देना चाहिए था ! उसने कहा कि लेकिन अब खाना लेने की आदत ही छूट गई है; भूख ही नहीं लगती। अब मैं कोई खेल नहीं कर रहा हूं अब तो खेल करने में फंस गया हूं। कोई खेल नहीं कर रहा, लेकिन अब भूख ही नहीं है। अब मैं जानता ही नहीं कि भूख क्या है। भूख कैसी चीज है वह मेरे भीतर होती ही नहीं।
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क्या हो गया इस आदमी को ? लंबी भूख व्यवस्था से की जाए तो भूख मर जाती है। परमात्मा की भूख को हम जगने नहीं देते। क्योंकि परमात्मा से ज्यादा डिस्टरबिग फैक्टर कुछ और नहीं हो सकता है। इसलिए हमने इंतजाम किया हुआ है। हम बड़ी व्यवस्था से, प्लान से रोके हुए हैं सब तरफ से कि वह कहीं से भीतर न आ जाए। अन्यथा हर आदमी प्यास लेकर पैदा होता है। और अगर उसे जगाने की सुविधा दी जाए, तो धन की प्यास, यश की प्यास तिरोहित हो जाएं, वही प्यास रह जाए।
ओशो

जिन खोजा तिन पाइयां-(प्रवचन-03)
ध्यान है महामृत्यु—(प्रवचन—तीसरा)
(कुंडलिनी—योग साधना शिविर) नारगोल
महामृत्यु : द्वार अमृत का

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