परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी

रविवार, 8 सितंबर 2024

*४४. रस कौ अंग ५/८*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४४. रस कौ अंग ५/८*
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रसभोगी हरि रस पीवै, बिषभोगी बिष खाइ ।
कहि जगजीवन सोई लहै, जा कौं जेइ सुहाइ ॥५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि आनंदरस पान करने वाला तो हरि स्मरणरुपी यस पीयेगा । और विष पान करनेवाले विषयीविष पान करेंगे ।जिसकी जैसी रुचि होगी वह वैसा ही आचरण करेगा ।
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रसभोगी हरि रस पीवै, हरि रस की मांही प्यास ।
विषभोगी बिषरस खुसी, सु कहि जगजीवनदास ॥६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि रसपान करनेवाले जीवात्माओं को हरि भक्ति की ही आस रहती है वे उसी के लिये तृषित होते हैं । और विषभोगी जन आनंद से विषयरुपी विष का पान करते हैं ।
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रसभोगी हरि रस पीवै, हरि रस सौं अति नेह ।
कहि जगजीवन विषै रस, भूमि न परसै देह ॥७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि रस का भोग करनेवाले तो प्रभु नाम का प्याला पीते हैं उसी से स्नेह रखते हैं । जहाँ विषयविष होता है वे उस भूमि का स्पर्श भी नहीं करते हैं ।
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रसभोगी हरि रस पिवै, हरि रस मांही सुहाइ३ ।
कहि जगजीवन विषै रस, दूरि करै हरि ताहि ॥८॥
(३. सुहाइ=रुचिकर लगे)
संतजगजीवन जी कहते सहै कि रस पान करनेवाले तो प्रभु भक्ति में ही आनंदपूर्वक रहते हैं । और अपने जीवन से विषय रुपी रस को दूर रखते हैं ।
(क्रमशः)

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