परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2025

*विचार, ब्रह्म-स्वरूप-विचार ॥*

🌷🙏 🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🌷🙏 *#बखनांवाणी* 🙏🌷
*https://www.facebook.com/DADUVANI*
*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
.
*रतन एक बहु पारिखू, सब मिल करैं विचार ।*
*गूंगे गहिले बावरे, दादू वार न पार ॥*
==============
*विचार, ब्रह्म-स्वरूप-विचार ॥*
हे हरि अपरंपार अगाधा, तेरा किनहूँ पार न लाधा ॥टेक॥
उनमान किसौ कोइ देखै, वो लिख्या न आवै लेखै ।
जाकै पवनि पार नहिं आवै, तौ हरि कौ पार को पावै ॥
सुरति कहाँ कौ लावै, है तैसा नजरि न आवै ।
जाकै नीर पार नहिं आभै, तौ राम पार को लाभै ॥
गगनि धरणि जिन थाप्या, सो मिण्याँ न जाई माप्या ।
जाकै कृतम पार नहिं आण्या, सो हरि जाइ क्यूँ जाण्या ॥
नाँव बडा हरि तेरा, यहु नान्हा सा मुँह मेरा ।
मुँह माँहै लिया न मावै, बषनां बिन ही दीठाँ गावै ॥४३॥
.
हरि परमात्मा अपरम्पार और अगाध है । दिक्-देश-काल से अनवच्छिन्न है ।
“दिक्कालाद्यनवच्छिन्नानंतचिन्मात्रमूर्त्तये । 
स्वानुभूत्येकमानाय नमः शान्ताय तेजसे ॥” 
भर्तृहरि वैराग्यशतक श्लोक १॥ 
इसीलिये उसका पार = सीमा किसी को भी प्राप्त नहीं हो सका है । उसके सदृश दूसरा और कोई नहीं है । वह स्वजातीय, विजातीय और स्वगत-तीनों ही भेदों से रहित होने के कारण स्वयं जैसा स्वयं ही है ।
.
अतः किसी अन्य को देखकर कैसे सादृश्य के आधार पर उसके स्वरूप का अनुमान कीया जा सकता है । वह अरूप है । अतः उसको देखा जाना तो असंभव है ही, उसके गुणहीन होने से उसके रूप तथा गुणों के आधार पर उसका व्यक्त्तित्व भी लिखा जाना असंभव है । जिसके द्वारा निर्मित पवन की पार पाना ही असंभव है तो उस स्वयं हरि की पार कौन पा सकता है ।
.
चित्त की वृत्ति किस अवलम्बन पर स्थिर की जाये क्योंकि जैसा वह है, वैसा वह दृष्टि में आता नहीं है । निराकार होने से वह दृष्टि-मुष्टि में आता नहीं है । अतः सुरति = वृत्ति को कैसे उसमें अटकाई जाये । जिसके द्वारा निर्मित जल तथा अग्नि का पार पाना असंभव है, उस स्वयं रामजी की अन्तिम सीमा को कैसे प्राप्त किया जा सकता है ।
.
जिसने अनन्त रूप आकाश और पृथिवी को बनाया है उसको कैसे किसी मापक यंत्र के द्वारा मापा जा सकता है । जिन हरि की कृतियों का पार पाना ही असंभव है, उस अमाप हरि को कैसे जान सकता है ।
.
बषनांजी, कहते हैं, हे हरि ! तेरा नाम बहुत बड़ा है अणोरणीयान् महतोमहीयान् और मेरा मुँह बहुत छोटा है । अतः तेरे बारे में मुँह से कुछ भी कहा नहीं जा सकता । इसीलिये मैं बषनां बिना तुझे देखे और जाने ही तेरे नाम का स्मरण करता हूँ ॥४३॥

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें