परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी

शनिवार, 20 सितंबर 2025

*५. पतिव्रत कौ अंग १३/१६*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*५. पतिव्रत कौ अंग १३/१६*
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पतिव्रत मांहिं क्षमा दया, धीरज सत्य बखांनि । 
सुन्दर पतिव्रत राम सौं, याही निश्चय आंनि ॥१३॥
महात्मा श्रीसुन्दरदासजी वैसे साधक को आश्वासन देते हैं कि निरञ्जन निराकार की एकनिष्ठ भक्ति के आश्रयण से ही तुमको दया, धैर्य, सत्यभाषण आदि का भी शुभ(पुण्य) फल मिल जायगा । इस के लिये पृथक् से साधना की आवश्यकता नहीं होगी ॥१३॥

सुन्दर पतिव्रत राखि तूं, सुधर जाइ ज्यौं बात । 
मुख मैं मेलै कोर जब, तृपति होइ सब गात ॥१४॥
श्रीसुन्दरदासजी महाराज साधक से आग्रह करते हैं कि तूं यदि तूं पतिव्रत धर्म(एकनिष्ठ हरिभक्ति) की साधना में लगा रहेगा तो तेरे अन्य सभी व्यावहारिक कार्य भी पूर्ण होते जायेंगे । जैसे कि भोजन का ग्रास मुख रहने पर शरीर तृप्ति(सन्तोष) मान लेता है ॥१४॥
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सुन्दर रीझै रामजी, जाकै पतिव्रत होइ ।
रुळत फिरै ठिक बाहरी, ठौर न पावै कोइ ॥१५॥
जो भक्त एकान्ततः निरञ्जन निराकार की भक्ति में लगा रहता है उस पर प्रभु(राम जी) सर्वथा प्रसन्न हो जाता है । अन्यथा दूसरे देवता की पूजा करने वाले बाह्य साधक तो व्यर्थ ही इधर उधर जन्मपरम्परा द्वारा संसार में चक्कर लगाते हुए, स्थिर लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाते ॥१५॥
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सुन्दर जौ बिभचारिनी, फरका दीयौ डारि । 
लाज सरम वाकै नहीं, डोलै घर घर बारि ॥१६॥
श्रीसुन्दरदासजी महाराज कहते हैं - जो व्यभिचारिणी स्त्री अपने शिर की ओढनी( = फरका, लज्जावस्त्र) उतार देती है, वह संसार में निर्लज्ज हो कर परों के द्वार द्वार पर(अपनी कामपिपासा मिटाने के लिये) घूमती रहती है । यही स्थिति अन्य देवताओं के उपासक साधक की समझनी चाहिये ॥१६॥
(क्रमशः)

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