परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी

शनिवार, 4 अक्टूबर 2025

*६. उपदेश चितावनी कौ अंग १३/१६*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*६. उपदेश चितावनी कौ अंग १३/१६*
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सुन्दर सांची कहत है, जौ मानै तौ मांनि । 
यहै देह अति निंद्य है, यहै रतन की खांनि ॥१३॥
मैं तो तुम्हें यह सत्परामर्श ही दे रहा हूं । इसे मानना हो तो मान ले, अन्यथा तेरी जो इच्छा हो वह कर । इस मानव देह द्वारा सत्कर्म(भगवद्भक्ति आदि) किये जाने पर इसकी लोक में प्रशंसा होती है । तब लोक कहने लगते हैं कि यह देह ऐसे तो रत्नों की खान है; परन्तु हिंसा आदि दुष्कर्म किये जाने पर यही लोक में निन्दनीय हो जाता है ॥१३॥
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सुन्दर मनुषा देह यह, तामैं दोइ प्रकार । 
यातैं बूडै गत महिं, यातैं उतरै पार ॥१४॥
इस मानव देह से दोनों ही प्रकार के कर्म किये जा सकते हैं । इसके द्वारा कुकर्म कर के मानव इस भवसागर में डूब भी सकता है, तथा प्रभुभक्ति आदि सत्कर्म कर इसी से भवसागर भी पार कर सकता है ॥१४॥  
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सुन्दर बंधै  देह सौं, तौ यह देह निखिद्धि । 
जौ याकी ममता तजै, तौ याही मैं सिद्धि ॥१५॥
यदि कोई मानव स्वकीय देह में ममत्व का अध्यास(मोह) करेगा तो वह उसका निकृष्ट(हीन) कर्म होगा । तथा यदि वह इस ममत्व(मोह) त्याग देगा तो इसे मोक्षरूप सिद्धि प्राप्त हो जायगी ॥१५॥  
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भूलत काहे बावरे, देखि सुरंगी देह 
बंध्यौ फिरै अनादि कौ, सुन्दर याके नेह ॥१६॥
अरे पागल ! अपने इस दो दिन के लिये सुन्दर(सुरंगी) बनी देह को देख कर प्रसन्न क्यों हो रहा है । इस के मोह(स्नेह) में बँधने से ही तुझ पर अनादि काल से अविद्या(अज्ञान) का आवरण पड़ा हुआ है ॥१६॥
(क्रमशः)

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