शुक्रवार, 13 सितंबर 2024

हरि भजि उतरौ पार

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*साहिब मिलै तो जीविये, नहीं तो जीवै नांहि ।*
*भावै अनंत उपाय कर, दादू मूवों मांहि ॥*
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उपदेश चेतावनी ॥
गुर सिखयौ ब्यौहार, प्राणी लाहौ लै ।
हरि भजि उतरौ पार, रे प्राणी लाहौ लै ॥टेक॥
येक पलक नहिं पाइये रे, धरती पग धरताँ ।
जुग हटवाड़ौ जाइलौ रे, बार न बीखरताँ ॥
मनिख जमारौ दुलभ तुम्हारौ, बारंबार न होइ ।
रामभजन करि लाहौ लै रे, जिनि जाइ पूंजी खोइ ॥
पलक माहिं पलटै सदा रे, घड़ी घड़ावलि थाइ ।
किसौ भरोसौ काल्हि कौ, आव घटै दिन जाइ ॥
हरि सुमिरीजै सुक्रित कीजै, आनँद प्रेम अघाइ ।
बषनां हरि भजि लाहौ लै ज्यूँ, कलतर मूल न जाइ ॥१२॥
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गुर = श्रोत्रिय = अधीतवेद और ब्रह्मनिष्ठ = ब्रह्म की अपरोक्षानुभूतियुक्त । सिखयौ = सिखाया हुआ, बताता हुआ । ब्यौहार = साधनामार्ग । लाहौ = लाभ । धरती पग धरताँ = जब मनुष्य मरने लगता है, तब उसे पलंग से उतार का पृथिवी पर बैठा अथवा सुला देते हैं, यहाँ उसी का संकेत है । हटवाड़ौ = साप्ताहिक बाजार, यहाँ सौवर्षीय जीवन । जुग = जीवन । बीखरताँ = सिमटने में । जमारौ = जीवन, शरीर । जिनि जाइ = मत चला जा । घड़ी घड़ावलि = जीवन रूपी घड़ी के श्वास रूपी घड़ावलि कब थाइ = स्थिर = रुक जायेंगे, पता नहीं । आव = आयु । सुक्रित = दान-पुण्य, परोपकार, अपने कर्मादि । अघाइ =निमग्न । कलतर मूल = चौरासी लाख योनियों में मूल = सर्वश्रेष्ठ मनुष्य जन्म रूपी कल्पवृक्ष ।
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बषनांजी ने यह उपमा बहुत ही सटीक दी है । कल्पवृक्ष से जो मांगो, वही मिलता है । अच्छा या बुरा । ऐसे ही मनुष्य जन्म से भगवत्प्राप्ति भी हो सकती है और विषयभोगों में लगे रहने से नरकों की भी प्राप्ति होती है । ‘आत्मैव ह्यात्मनौ बंधुरात्मैव रिपुरात्मनः’ ॥गीता ६/५॥
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हे प्राणी ! तुझे ब्रहमनिष्ठ और श्रोत्रिय गुरु ने जो साधनमार्ग सिखाया है, उसही का आश्रय लेकर मनुष्य जन्म पाने का लाभ प्राप्त कर । हे प्राणी ! हरि का भजन-ध्यान करके जन्म-मरण रूपी संसार-सागर के पार चले जा, अवसर का लाभ ले ।
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पृथिवी पर पैर रखते हुए तुझे एक क्षण भी नहीं लगेगा क्योंकि तेरे जीवन रूपी निश्चित किन्तु अज्ञात अवधि वाले बाजार को सिमटने में तनिक भी समय नहीं लगेगा ।
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तेरा मनुष्य योनि का जन्म अत्यन्त दुर्लभ है जो बारबार नहीं मिलता । तू रामजी का भजन करके मनुष्य जन्म मिलने के अवसर का लाभ प्राप्त कर ले । इस अमूल्य पूंजी को योंही मत गँवाकर जा ।
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एक क्षण में ही सब कुछ पलट जायेगा । (जिन्हें तू अपना-अपना कहता है, वे एक क्षण में ही पराये हो जायेंगे । जैसे ही तू शरीर से निकलेगा, तेरे अपने ही तेरे इस शरीर को एक क्षण भी घर में रखना बर्दाश्त नहीं करेंगे ।) जीवन के श्वास स्थिर हो जायेंगे(तू मर जायेगा अर्थात् शरीर को छोडकर तू चला जायेगा) आयु दिनों दिन घटती जा रही है, कल आयेगा कि नहीं, इसका क्या भरोसा !
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अतः हरि का स्मरण ध्यान कर, सुकृत = अच्छे कर्म कर और परमात्मा के प्रेमानन्द में निमग्न हो जा । बषनांजी कहते हैं, हरि का भजन-स्मरण करके मनुष्य जीवन प्राप्त करने का लाभ प्राप्त कर ले ताकि मनुष्य जन्म रूपी कल्पवृक्षात्मक पूंजी व्यर्थ न जा सके ॥१२॥
(क्रमशः)

सोमवार, 9 सितंबर 2024

= ४३ =

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*कहा कहूँ कुछ वरणि न जाई,*
*अविगति अंतर ज्योति जगाई ।*
*दादू उनको मरम न जानै,*
*आप सुरंगे बैन बजाई ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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महापरिनिर्वाण दिवस ~ 8 सितंबर 1979, सदगुरु ओशो के पिताश्री स्वामी देवतीर्थ भारतीजी के महापरिनिर्वाण दिवस पर उन्हें शत शत नमन। स्वामी कृष्णतीर्थ ने प्रश्न पूछा: "भगवान ! आदरणीय दद्दाजी की मृत्यु पर आपने अपने संन्यासियों को कहा कि वे उत्सव मनाएं, नाचें। लेकिन इस उत्सव और नृत्य के होते हुए भी रह-रह कर आंसू पलकों को भिगोए दे रहे थे।
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भगवान, दद्दाजी के चले जाने के बाद हृदय को अभी भी विश्वास नहीं कि वे चले गए हैं। लगता है कि वे यहीं हैं। उन्होंने हमें जो प्रेम दिया वह अकथ्य है।"
ओशो ने उत्तर दिया: "कृष्णतीर्थ ! इसीलिए तो कहता हूं उत्सव मनाओ! कोई जाता नहीं, कोई कहीं जाता नहीं। जाने का उपाय नहीं है, जाने को कोई स्थान नहीं है। 
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हम शाश्वत हैं। अमृतस्य पुत्रः। हम अमृत के पुत्र हैं। हम अमृत में ही लीन हो जाते हैं। जैसे बूंद सागर में खो जाती है। खोजे से नहीं मिलेगी अब; लेकिन खो नहीं गई है, सागर हो गई है। इसलिए तुम्हारा लगना ठीक है कि अभी भी विश्वास नहीं आता कि वे चले गए हैं। जिस दिन उनका महाप्रस्थान हुआ...।
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पांच सप्ताह से वे अस्पताल में थे। एक भी दिन उन्होंने खबर नहीं भेजी कि मैं देखने आऊं। मैं देखने गया दो बार, जब भी मुझे लगा कि खतरा है। लेकिन अंतिम दिन उन्होंने खबर भेजी, सुबह से ही खबर भेजी, तो मैंने कहा कि मैं आता हूं। मैंने खबर भेजी कि मैं आता हूं कि उनकी तत्क्षण खबर आई कि कोई जरूरत नहीं, नाहक परेशान न होओ।
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मैं फिर भी तीन बजे गया। मैं आनंदित था, क्योंकि उनका मुझसे जो मोह था, मुझे देखने का जो मोह था, वह उनका आखिरी बंधन था, वह भी टूट गया था। और जब मैंने उनसे कहा कि आपका कमरा भी तैयार हो गया है, नया बाथरूम भी बन गया है, बस अब दिन दो दिन में आपको अस्पताल से छुट्टी मिलने वाली है; आपके लिए नई कार भी बुला ली है, क्योंकि अब पैर में तकलीफ है तो चलने में मुश्किल होगी, नई कार भी आ गई है--तो न तो उन्होंने नई कार में कोई उत्सुकता ली, न नये कमरे में, न नये बाथरूम में; सिर्फ कंधे बिचकाए, कुछ बोले नहीं। 
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जरा सा भी रस दिखाते तो लौटना पड़ता। कंधे बिचकाए तो मैं खुश हुआ। कंधे बिचकाने का मतलब था कि सब बेकार है। अब सब मकान बेकार हैं, अब सब कारें बेकार हैं। अब कहां आना-जाना ? फिर भी मैंने दोहराया और जोर दिया कि चिंतित न हों, बस दिन दो दिन की बात है, घर ले चलेंगे। तो भी उन्होंने यह नहीं कहा कि घर आऊंगा; इतना ही कहा कि हां, कीर्तन करेंगे।
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घर आए, जीवित तो नहीं आए। और चूंकि उन्होंने कहा था कि कीर्तन करेंगे, इसलिए मैंने कहा कि पहला काम जो करने का है वह कीर्तन करो। आभास उन्हें स्पष्ट था कि जाने की घड़ी आ गई। अब कैसा घर ! असली घर जाने की घड़ी आ गई। सभी इस अवस्था को उपलब्ध हो सकते हैं। नहीं हो पाते, क्योंकि हम प्रयास नहीं करते हैं, हम ध्यान में नहीं डूबते हैं। एक ही उपाय है--ध्यान कहो, प्रार्थना कहो, जो भी नाम देना हो दो--एक ही उपाय है कि अपने में डूबो और अपने को पहचानो।
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उस सुबह उनकी अपने से पहचान पूरी हो गई। मुझे एक ही चिंता थी कि कहीं वे अपने को बिना जाने समाप्त न हो जाएं। एक ही फिक्र थी कि किसी तरह थोड़े दिन और खिंच जाएं। क्योंकि ध्यान उनका बस करीब-करीब आया जा रहा था। जैसे किनारे पर आ गए थे, बस एकाध कदम और! मगर कहीं ऐसा न हो कि वह एकाध कदम उठाने के पहले चले जाएं, तो फिर जन्म हो जाएगा। और फिर पता नहीं जो सुअवसर उन्हें इस बार मिला था वह इतनी आसानी से दोबारा मिलेगा कि नहीं मिलेगा। 
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और एक बार भटका हुआ, कब फिर मंदिर के निकट आ पाएगा, यह भी कहना मुश्किल है। और एक चीज से दूसरी चीज पैदा होती चली जाती है। फिर सिलसिला अनंत हो सकता है। इसलिए मेरी एक ही चिंता थी। वे बचें, यह सवाल न था। इतनी देर बच जाएं केवल कि इस देह से सदा के लिए विदा हो सकें, बस इतनी मेरी चिंता थी। अगर वे बच गए होते और बिना समाधि को उपलब्ध हुए बच गए होते, तो मैं दुखी होता। वे नहीं बचे, मगर समाधि को उपलब्ध होकर नहीं बचे, तो मेरे आनंद का कोई पारावार नहीं है।
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कहते हैं, पिता के ऋण से उऋण नहीं हुआ जा सकता। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं: मैं उऋण हो गया। और क्या दे सकता था उनको ? उन्होंने मुझे जीवन दिया था, मैंने उन्हें महाजीवन दिया। और तो कोई देने को चीज थी भी नहीं, है भी नहीं। जीवन के बाद तो बस महाजीवन ही एक भेंट है। मैं खुश हूं, आनंदित हूं। वे ऐसे गए हैं जैसे जाना चाहिए। उन्होंने ऐसे विदा ली है जैसी विदा लेनी चाहिए।
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इसलिए जो लोग वहां मौजूद थे उनकी आखिरी घड़ी में, उनको भी ऐसा नहीं लगा कि मृत्यु घट रही है। उनको भी ऐसा लगा जैसे महाजीवन घट रहा है। उनको भी ऐसा नहीं लगा कि कोई कालिमा उतर आई अमावस की। उनको भी ऐसा लगा जैसे पूर्णिमा हो गई।
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उनके मर जाने के बाद उनके शरीर को जाकर मैंने दो जगह छुआ था। एक तो आज्ञाचक्र पर। क्योंकि दो ही संभावनाएं थीं: या तो वे आज्ञाचक्र से विदा होते तो फिर एक बार उन्हें जन्म लेना पड़ता, सिर्फ एक बार; और अगर वे सातवें चक्र से, सहस्रार से विदा होते तो फिर जन्म नहीं लेना पड़ता। पहले मैंने उनका आज्ञाचक्र देखा, डरते-डरते हाथ रखा उनके आज्ञाचक्र पर। क्योंकि जहां से जीवन विदा होता है वह चक्र खुल जाता है, जैसे कली खिल कर फूल बन जाए। और जिनको चक्रों का अनुभव है वे केवल स्पर्श करके तत्क्षण अनुभव कर ले सकते हैं--जीवन कहां से विदा हुआ। मैं अत्यंत खुश हुआ जब मैंने पाया कि आज्ञाचक्र से जीवन विदा नहीं हुआ है। तब मैंने उनका सहस्रार छुआ, जिसको सहस्रदल कमल कहते हैं, जिसको हजार पंखुड़ियों वाला कमल कहते हैं, वह खुला हुआ है। वे उड़ गए हैं सातवें द्वार से।
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कृष्णतीर्थ ! वे कहीं चले नहीं गए हैं, सिर्फ विदेह हो गए हैं--यहीं हैं। तुम्हारी आंखों से आंसू आ रहे हैं, क्योंकि तुम्हें इस बात पर भरोसा नहीं आता कि वे यहीं हैं। तुम्हारी आंख में आंसू आ रहे हैं, क्योंकि मृत्यु सदा से दुख का कारण रही है। और साधारणतः मृत्यु दुख का कारण है भी। लेकिन कभी कुछ मृत्युएं होती हैं जो दुख का कारण नहीं होतीं, आनंद का कारण होती हैं। होनी तो सभी मृत्युएं ऐसी ही चाहिए, प्रयास तो यही रहे, अभ्यास तो यही रहे, साधना तो यही चले कि तुम भी ऐसे ही मर सको।
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इस बुद्ध-क्षेत्र में मैं तुम्हें जीवन भी सिखाना चाहता हूं, मृत्यु भी सिखाना चाहता हूं। इसलिए किसी अवसर को छोड़ नहीं देना चाहता। मृत्यु की यह महाघटना घटी, मैं चाहता था यह तुम्हारे लिए पाठ बन जाए, तुम इसमें भी नाच सको।
ओशो की किताब "काहे होत अधीर" से संकलित।

= ४२ =

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*दादू एता अविगत आप थैं, साधों का अधिकार ।*
*चौरासी लख जीव का, तन मन फेरि सँवार ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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अज्ञानी से प्रशंसा पाकर भी क्या मिलेगा ? जिसे खुद ज्ञान नहीं मिल सका, उसकी प्रशंसा मांगकर तुम क्या करोगे ? जो खुद भटक रहा है, उसके तुम नेता हो जाओगे ? उसके सम्मान का कितना मूल्य है ?
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सुना है मैंने, एक सूफी फकीर हुआ; फरीद। वह जब बोलता था तो कभी लोग ताली बजाते थे तो वह रोने लगता। एक दिन उसके शिष्यों ने पूछा कि लोग ताली बजाते हैं तो तुम रोते किसलिए हो। तो फरीद ने कहा कि वे ताली बजाते हैं, तब मैं समझता हूं कि मुझसे कोई गलती हो गयी होगी। अन्यथा, वे ताली कभी न बजाते। ये इतने लोग ! जब वे ताली नहीं बजाते, उनकी समझ में नहीं आता, तब मैं समझता हूं कि कुछ ठीक बात कह रहा हूं।
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आखिर, गलत आदमी की ताली का मूल्य क्या है ? तुम किसके सामने अपने को ‘सिद्ध’ सिद्ध करना चाह रहे हो ? अगर तुम संसार के सामने अपने को ‘सिद्ध’ सिद्ध करना चाह रहे हो तो तुम नासमझों की प्रशंसा के लिए आतुर हो। तुम अभी नासमझ हो। और, अगर तुम सोचते हो कि परमात्मा के सामने तुम अपने को सिद्ध करना चाह रहे हो कि मैं सिद्ध हूं तो तुम और महा नासमझ हो; क्योंकि उसके सामने तो विनम्रता चाहिए।
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वहां तो अहंकार काम न करेगा। वहां पर तो तुम मिटकर जाओगे तो ही स्वीकार हो पाओगे। वहां तुम अकड़ लेकर गये तो तुम्हारी अकड़ ही बाधा हो जायेगी। इसलिए, तथाकथित सिद्ध परमात्मा’ तक नहीं पहुंच पाते। बहुतसी सिद्धियां उनकी हो जाती हैं, लेकिन असली सिद्धि चूक जाती है। वह असली सिद्धि है: आत्मज्ञान। क्यों आत्मज्ञान चूक जाता है ?
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क्योंकि सिद्धि भी दूसरे की तरफ देख रही है, अपनी तरफ नहीं। अगर कोई भी न हो दुनिया में, तुम अकेले होओ तो तुम सिद्धियां चाहोगे ? तुम चाहोगे कि पानी को छूऊं और औषधि हो जाए ? मरीज को छूऊं, स्वस्थ हो जाये ? मुर्दे को छूऊं, जिंदा हो जाएछूं ? कोई भी न हो पृथ्वी पर, तुम अकेले होओ तो तुम ये सिद्धियां चाहोगे ? तुम कहोगे, क्या करेंगे; देखनेवाले ही न रहे। देखनेवाले के लिए ही सिद्धियां हैं।
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जब तक दूसरे पर तुम्हारा ध्यान है, तब तक अपने पर तुम्हारा ध्यान नहीं आ सकता। और, आत्मज्ञान तो उसे फलित होता है, जो दूसरे की तरफ से आंखें अपनी तरफ मोड लेता है। शिव कहते है : स्थायी रूप से मोह जय होने पर सहज विद्या फलित होती है। स्थायी रूप से मोह जय होने पर सहज विद्या फलित होती है मोह को जय करना है। मोह का क्या अर्थ है ? मोह का अर्थ है. दूसरे के बिना मैं न जी सकूंगा; दूसरा मेरा केंद्र है।
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तुमने बच्चों की कहानियां पढ़ी होंगी, जिनमें कोई राजा होता है और जिसके प्राण किसी पक्षी में, तोते में, मैना में बंद होते हैं। तुम उस राजा को मारो, न मार पाओगे। गोली आरपार निकल जाएगी, राजा जिंदा रहेगा। तीर छिद जएगा हृदय में, राजा मरेगा न्हीं। जहर पिला दो, कोई असर न होगा। राजा जीवित रहेगा। तुम्हें पता लगाना पड़ेगा उस तोते का, मैना का, जिसमें उसके प्राण बैद हैं। उसे तुम मरोड़ दो, उसकी तुम गर्दन तोड़ दो उधर राजा मर जाएगा। ये बच्चों कि कहानियां बड़ी अर्थपूर्ण हैं; बूढ़ी के भी समझने योग्य हैं।
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मोह का अर्थ है तुम अपने में नहीं जीते, किसी और चीज में जीते हो। समझो, किसी का मोह तिजोरी में है। तुम उसकी गर्दन मरोड़ दो, वह न मरेगा। तुम तिजोरी लूट लौ, वह मर गया। उनके प्राण तिजोरी में थे। उनका बैंकबैलेंस खो जाये वे मर गये। उन्हें तुम मारो, वे मरनेवाले नहीं। जहर पिलाओ वे जिंदा रहेंगे।
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मोह का अर्थ है, तुमने अपने प्राण अपने से हटाकर कहीं और रख दिये हैं। किसी ने अपने बेटे में रख दिये हैं; किसी ने अपनी पत्नी में रख दिये हैं; किसी ने धन में रख दिये हैं; किसी ने पद में रख दिये हैं लेकिन, प्राण कहीं और रख दिये हैं। जहां होना चाहिए प्राण वहां नहीं हैं। तुम्हारे भीतर प्राण नहीं धड़क रहा है, कहीं और धड़क रहा है। तब तुम मुसीबत में रहोगे।
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यही मोह संसार है; क्योंकि जहां जहां तुमने प्राण रख दिये, उनके तुम गुलाम हो जाओगे। जिस राजा के प्राण तोते में बंद हैं, वह तोते का गुलाम होगा; क्योंकि तोते के ऊपर सब कुछ निर्भर है। तोता मर जाये तो उसके प्राण गये। तो, वह तोते को संभालेगा।
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जहां तुम अपने प्राण रख दो, उसकी तुम सेवा में लग जाओगे। लोगो को देखो: वे तिजोरी के पास कैसे जाते है। बिलकुल हाथ जोड़े, जैसे मंदिर के पास जाते है। तिजोरी पर ‘लाभ शुभ’, ‘श्री गणेशाय नम:’। तिजोरी भगवान है ! उसकी वे पूजा करते है।
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दीवाली के दिन पागलों को देखो; सब अपनी अपनी तिजोरी की पूजा कर रहे हैं। वहां उनके प्राण हैं। किस भाव से वे करते हैं, वह भाव देखने जैसा है। दुकानदार हर साल अपनी खाताबही शुरू करता है, तो स्वस्तिक बनाता है।  ‘लाभ शुभ’ लिखता है, ‘श्री गणेशाय नम:’ लिखता है।
शिव सूत्र ~ ओशो

रविवार, 8 सितंबर 2024

*४४. रस कौ अंग ५/८*

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*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४४. रस कौ अंग ५/८*
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रसभोगी हरि रस पीवै, बिषभोगी बिष खाइ ।
कहि जगजीवन सोई लहै, जा कौं जेइ सुहाइ ॥५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि आनंदरस पान करने वाला तो हरि स्मरणरुपी यस पीयेगा । और विष पान करनेवाले विषयीविष पान करेंगे ।जिसकी जैसी रुचि होगी वह वैसा ही आचरण करेगा ।
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रसभोगी हरि रस पीवै, हरि रस की मांही प्यास ।
विषभोगी बिषरस खुसी, सु कहि जगजीवनदास ॥६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि रसपान करनेवाले जीवात्माओं को हरि भक्ति की ही आस रहती है वे उसी के लिये तृषित होते हैं । और विषभोगी जन आनंद से विषयरुपी विष का पान करते हैं ।
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रसभोगी हरि रस पीवै, हरि रस सौं अति नेह ।
कहि जगजीवन विषै रस, भूमि न परसै देह ॥७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि रस का भोग करनेवाले तो प्रभु नाम का प्याला पीते हैं उसी से स्नेह रखते हैं । जहाँ विषयविष होता है वे उस भूमि का स्पर्श भी नहीं करते हैं ।
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रसभोगी हरि रस पिवै, हरि रस मांही सुहाइ३ ।
कहि जगजीवन विषै रस, दूरि करै हरि ताहि ॥८॥
(३. सुहाइ=रुचिकर लगे)
संतजगजीवन जी कहते सहै कि रस पान करनेवाले तो प्रभु भक्ति में ही आनंदपूर्वक रहते हैं । और अपने जीवन से विषय रुपी रस को दूर रखते हैं ।
(क्रमशः)

बुधवार, 4 सितंबर 2024

नैन खुले रवि ऊगत अंबुज

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*खंड खंड प्रकाश है, जहाँ तहाँ भरपूर ।*
*दादू कर्त्ता कर रह्या, अनहद बाजै तूर ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*नैन खुले रवि ऊगत अंबुज,*
*देख स्वरूप हि चाह भई है ।*
*वंशि सुनी रस मिष्ट स्वरै मद,*
*कान भस्यो मुख भास१ लई है ।*
*जान प्रताप चिंतामणि को मन,*
*जैति चिंतामणि आदि दिई है ।*
*ग्रन्थ कस्यो करुणामृत पंथ,*
*जुग्गल२ कह्यो रस राशि मई है ॥४१७॥*
विहारीजी ने आकर जब मुरली बजाई तब उसकी मधुर तान सुन कर आप जान गये कि यह मुरली तो विहारीलालजी के मुख की ही है । इससे मन में विहारीजी के दर्शन की अभिलाषा हुई । तब जैसे सूर्योदय से कमल खिल जाते हैं, वैसे ही आपके नेत्र खुल गये । सामने शोभा-सिन्धु भगवान् का दर्शन कर के परमानन्द प्राप्त हुआ और यह दर्शन सदा ही करता रहूँ यह इच्छा हृदय में उत्पन्न हो गई ।
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वंशी का वह मधुर स्वर सुन कर आनन्द में निमग्न हो गये । वह श्रवणामृत रस इनके कानों में भर कर हृदय में पहुँचा तब वह यह मतवाले हो गये । वह मुरली ध्वनि सदा हृदय में बनी ही रही ।
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भगवान् के मुख चन्द्र का प्रकाश१ जो आपको प्राप्त हुआ अर्थात् देखा, उसका तो कथन हो ही नहीं सकता । यह सब चिन्तामणि के उपदेश का प्रताप अपने मन में जान कर तथा उसे गुरु मान कर आपने अपने ग्रन्थ " श्रीकृष्ण करुणामृत" के आदि में "जयति चिन्तामणि" पद दिया है ।
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"श्रीकृष्ण करुणामृत" की आपने रचना की है । उसमें श्रीराधाकृष्ण की प्राप्ति का ही मार्ग कहा है । यह ग्रन्थ प्रभु-प्रेम-रस की तो मानो राशि ही है ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 27 अगस्त 2024

*श्रीरामकृष्ण का भक्तों के प्रति स्नेह*

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🌷 *#श्रीरामकृष्ण०वचनामृत* 🌷
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*दादू दत्त दरबार का, को साधु बांटै आइ ।*
*तहाँ राम रस पाइये, जहँ साधु तहँ जाइ ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(२)श्रीरामकृष्ण का भक्तों के प्रति स्नेह*
गिरीश, लाटू और मास्टर ने ऊपर जाकर देखा, श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे हुए हैं । शशि और दो-एक भक्त उसी कमरे में श्रीरामकृष्ण की सेवा के लिए थे । क्रमशः बाबूराम, निरंजन और राखाल भी आ गये ।
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कमरा बड़ा है । श्रीरामकृष्ण की शय्या के पास औषधि तथा अन्य आवश्यक वस्तुएँ रखी हुई हैं । कमरे के उत्तर की ओर एक दरवाजा है, जीने से चढ़कर उस कमरे में प्रवेश किया जाता है । उस द्वार के सामनेवाले कमरे के दक्षिण की ओर एक और द्वार है । इस द्वार से दक्षिण की छोटी छत पर चढ़ सकते हैं । छत पर खड़े होने पर बगीचे के पेड़-पौधे, चाँदनी और पास का राजपथ भी दीख पड़ता है ।
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भक्तों को रात में जागना पड़ता है । वे बारी बारी से जागते हैं । मसहरी लगाकर, श्रीरामकृष्ण को शयन कराने के पश्चात् जो भक्त कमरे में रहते हैं, वे कमरे के पूर्व की ओर चटाई बिछाकर कभी बैठे रहते हैं और कभी लेटे । अस्वस्थता के कारण श्रीरामकृष्ण की आँख नहीं लगती । इसलिए जो रहते हैं, उन्हें कई घण्टे जागते ही रहना पड़ता है ।
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आज श्रीरामकृष्ण की बीमारी कुछ कम है । भक्तों ने आकर भूमिष्ठ हो प्रणा किया, फिर सब के सब जमीन पर श्रीरामकृष्ण के सामने बैठ गये ।
श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से दीपक जरा नजदीक ले आने के लिए कहा ।
श्रीरामकृष्ण गिरीश से आनन्दपूर्वक बातचीत कर रहे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - (गिरीश से) - कहो, अच्छे हो न ? (लाटू से) इन्हें तम्बाकू पिला और पान दे ।
कुछ क्षण के बाद बोले, 'इन्हें कुछ मिठाई दे ।'
लाटू - पान दे दिया है । दूकान से मिठाई लेने के लिए आदमी भेजा है ।
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श्रीरामकृष्ण बैठे हैं । एक भक्त ने कई मालाएँ लाकर श्रीरामकृष्ण को अर्पण कर दीं । श्रीरामकृष्ण ने मालाओं को लेकर गले में धारण कर लिया । फिर उनमें से दो मालाएँ निकालकर गिरीश को दे दीं ।
बीच-बीच में जलपान की मिठाई के सम्बन्ध में श्रीरामकृष्ण पूछ रहे हैं - 'क्या मिठाई आयी ?'
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मणि श्रीरामकृष्ण को पंखा झल रहे हैं । श्रीरामकृष्ण के पास किसी भक्त का दिया हुआ चन्दन की लकड़ी का एक पंखा था । श्रीरामकृष्ण ने उसे मणि के हाथ में दिया । उसी पंखे को लेकर मणि हवा कर रहे हैं । गले से दो मालाएँ निकालकर श्रीरामकृष्ण ने मणि को भी दी ।
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लाटू श्रीरामकृष्ण से एक भक्त की बात कह रहे हैं । उनका एक सात-आठ साल का लड़का आज डेढ़ साल हुए गुजर गया है । उस लड़के ने भक्तों के बीच में श्रीरामकृष्ण को कई बार देखा था ।
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लाटू - (श्रीरामकृष्ण से) - ये अपने लड़के की पुस्तक देखकर कल रात को बहुत रोये थे । इनकी स्त्री भी बच्चे के शोक से पागल-सी हो गयी है । अपने दूसरे बच्चों को मारती है और उठाकर पटक देती है । ये कभी कभी यहाँ रहते हैं, इसलिए बड़ा हल्ला मचाती है ।
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श्रीरामकृष्ण उस शोक-समाचार को सुनकर मानो चिन्तित हो चुप हो रहे ।
गिरीश - अर्जुन ने इतनी गीता पढ़ी परन्तु वे भी पुत्र के शोक से मूर्च्छित हो गये, तो इनके शोक के लिए आश्चर्य प्रकट करने की कोई बात नहीं ।
(क्रमशः)

*श्री रज्जबवाणी, उपदेश का अंग ८*

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*दादू अचेत न होइये, चेतन सौं चित लाइ ।*
*मनवा सूता नींद भर, सांई संग जगाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ चेतावनी का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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उपदेश का अंग ८
नींद के नेह निर्मूल१ भयो नर,
श्वास उश्वास की चाल न थाकी ।
पक्षी के प्राण पर्यो तम२ निंद हि,
पाँय सु दृढ़ रहे रुपि साखी३ ॥
राहु रु केतु ग्रसैं शशि सूरज,
चाल निसाल४ रहै नहिं राखी ।
हो रज्जब पिंड ने प्राण गह्यो यूं पै५,
लै६ न गही जि७ जियो८ जिहि बाकी९ ॥५॥
निद्रा के प्रेम से नर के वाह्य ज्ञान का तो नाश१ सा हो जाता है किंतु श्वास प्रश्वास की गति तो नहीं थकती है ।
रात्रि के अंधेरे२ में पक्षी का जीव निद्रा के वश होकर अचेत पड़ा रहता है किंतु उसके पैर सुदृढ़ता से वृक्ष३ की शाखा पर रुपे रहते हैं ।
राहु केतु चन्द्र सूर्य के तेज को ग्रास करते हैं, किंतु उनकी चाल तो ग्रासना रूप दु:ख से रहित ही रहती है, उसे पकड़ कर नहीं रखते ।
हे सज्जनों ! वैसे ही शरीर ने प्राण को तो पकड़ रक्खा है परन्तु५ जीव७ की वृत्ति६ को तो नहीं पकड़ रक्खा है, जिससे जीव८ उसके ग्रहण करने से बच९ रहा है । अत: वृत्ति प्रभु में लगाना चाहिये ।
(क्रमशः)

*बषनां बहुरि बुढ़ापौ आयौ*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*आपै मारै आपको, आप आप को खाइ ।*
*आपै अपना काल है, दादू कहि समझाइ ॥*
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जोबनियाँ कै गारै गर्ब्यौ, केवल राम न ध्यायौ ।
मनमान्यूँ जगदीस न जान्यूँ, बिकल बुढ़ापौ आयौ ॥टेक॥
बारा ब्रस बालापनि खोये, बीस तीस मदि मातौ ।
मुड़ि मुड़ि चालै छाँह निहारै, आलि करै पँथि जातौ ॥
बिषै सरोवरि माँहै झूल्यौ थाकि रह्यौ बिछी गाभै ।
झाडाँ हाथ घणा ही घालै, नाँव जिहाज न लाभै ॥
चोराँ सेती हिलिमिलि बरत्यौ, साहाँ स्यौं र ठगाई ।
धरमराइ जब लेखा मांग्यौ, तब कागदि अतौ न काई ॥
ना हरि भज्यौ न सुकृत कीन्हौं, अपनैं जोरै बारै ।
बषनां बहुरि बुढ़ापौ आयौ, भयौ पराये सारै ॥११॥
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जोबनियाँ = यौवन । गारै = कीचड़, मद में । गर्ब्यौ = उन्मत्त हो गया । केवल = निष्केवल = निर्गुण-निराकार रामजी । मनमान्यूँ = मन के मतानुसार जीवन संचालित किया । बिकल = व्यथित करने वाला । बारा ब्रष = द्वादश वर्ष । मदिमातै = विषयभोगों में आकंठ डूबे रहे । आलि = छेड़छाड़ । झूल्यौ = निमग्न । गाभै = स्वादिष्ट भोजन । झाडाँ = बध, हत्याएँ । ठगाई = धूर्तता । अतौ = संचय । अता-पता = ठौर-ठिकाना । बारै = वहिर्मुख । सारै = आश्रय में ॥
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यौवन रूपी दलदल(मद) से उन्मत्त हुए तुझ संसारी ने निष्केवल रामजी की उपासना नहीं की । पूरे जीवन वही किया जिसको मन ने करणीय माना । जगत् के स्वामी रामजी को जानना तो दूर जानने का प्रयत्न तक नहीं किया । अन्त में व्यथित करने वाला बुढ़ापा आ पहुँचा ।
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तूने प्रारम्भिक द्वादशवर्षीय जीवन खेलने-कूदने में व्यतीत कर दिया । अगले बीस-तीस वर्ष विषयों को सम्पादित करने और भोगने में व्यतीत कर दिये । चलते समय मुड़-मुड़कर अपनी परछाही को देखता है, बार बार अपनी सुन्दरता को देखता है और विचार करता है कि मैं कितना सुन्दर, सुडौल आकर्षक युवक हूँ जिसको देखते ही रमणियाँ आकर्षित हो जाती है । रास्ते में चलते समय राहगीर युवतियों से छेड़खानी करता है ।
.
विषय भोग रूपी सरोवर में आकण्ठ डूबा हुआ है । अच्छे-अच्छे स्वादिष्ट भोजनादि को खाने में ही लगा रहता है । अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु अन्यों के स्वाभिमान को हाथों हाथ समाप्त करने के लिये तत्पर रहता है किन्तु भगवन्नाम स्मरण रूपी नाव में बैठना कभी पसन्द नहीं करता ।
.
चौरों से मित्रता रखता है जबकि साहूकारों से धूर्तता करता है । मरने के उपरान्त चित्रगुप्त से जब यमराज ऐसे लोगों का पुण्यापुण्य का हिसाब पूछता है तब इनके खाते में पुण्यों की एक प्रविष्टि तक नहीं मिलती । मिले भी कैसे ?
.
जीवनभर न तो हरि = परमात्मा का भजन ध्यान ही किया और न दान-पुण्य रूपी अच्छे कर्म ही किये । बस, सदा अपने बल पर ही आश्रित रहता हुआ परमात्म-पथ से विमुख रहता रहा । बषनांजी कहते हैं, यौवन के अनन्तर वृद्धावस्था आने पर पराश्रित हो जाता है ॥११॥
(क्रमशः)

सोमवार, 26 अगस्त 2024

= ४१ =

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*दादू एता अविगत आप थैं, साधों का अधिकार ।*
*चौरासी लख जीव का, तन मन फेरि सँवार ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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एक बौद्ध भिक्षु रास्ते से गुजर रहा है। सुंदर है। एक वेश्या ने उसे रास्ते से गुजरते देखा। और उन दिनों वेश्या बड़ी बहुमूल्य बात थी। इस मुल्क में उन दिनों बिहार में, बुद्ध के दिनों में जो नगर में सबसे सुंदर युवती होती, वही वेश्या हो सकती थी। एक समाजवादी धारणा थी वह। वह धारणा यह थी कि इतनी सुंदर स्त्री एक व्यक्ति की नहीं होनी चाहिए। इसलिए इसको पत्नी नहीं बनने देंगे। इतनी सुंदर स्त्री सबकी ही हो सकती है। इसलिए वह नगर-वधू कही जाती थी। और नगर-वधू का सौभाग्य श्रेष्ठतम स्त्रियों को मिलता था।
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यह नगर-वधू थी, और उसने अपने महल से नीचे झांककर देखा, और यह शानदार भिक्षु अपनी मस्ती में चला जा रहा है। वह मोहित हो गई। वह भागी। उसने जाकर भिक्षु का चीवर पकड़ लिया। और कहा कि ‘रुको। सम्राट मेरे महल पर दस्तक देते हैं, लेकिन सभी को मैं मिल नहीं पाती; क्योंकि समय की सीमा है। यह पहला मौका है, मैं किसी के द्वार पर दस्तक दे रही हूं। तुम आज रात मेरे पास रुक जाओ।’
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भिक्षु संत ही रहा होगा। उसकी आंखों में आंसू आ गए। उस वेश्या ने पूछा कि ‘आंख में आंसू ?’ उसने कहा, ‘इसीलिए कि तुम जो मांगती हो, वह मांगने जैसा भी नहीं है। तुम्हारे अज्ञान को, तुम्हारे अंधेरे को देखकर पीड़ा होती है। आज तो तुम युवा हो, सुंदर हो। अगर मैं न भी रुका आज रात तुम्हारे घर, तो कुछ बहुत अड़चन न होगी। बहुत युवक प्यासे हैं तुम्हारे पास रुकने को। लेकिन जब कोई तुम्हारे द्वार पर न आए, तब मैं आऊंगा।’
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यह संत का व्यवहार है। मना नहीं किया उसने, कि मैं नहीं आता। उसने कहा, मैं आऊंगा, लेकिन अभी तो बहुत बाजार पड़ा है। अभी मेरी कोई जरूरत भी नहीं है। लेकिन जिस दिन कोई न होगा...ज्यादा देर न लगेगी, यह भीड़ छंट जाएगी। आज सुंदर हो, कल कुरूप हो जाओगी, गांव के बाहर फेंक देंगे। और जिस दिन कोई न होगा, उस दिन मैं आऊंगा। मुझे भी तुमसे प्रेम है, लेकिन प्रेम प्रतीक्षा कर सकता है।
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उस वेश्या की समझ में कुछ न आया। क्योंकि वासना तो बिलकुल अंधी है, वह कुछ नहीं समझ पाती। करुणा के पास आंखें हैं, वासना के पास कोई आंखें नहीं हैं। लोग कहते हैं, प्रेम अंधा है। वह जो प्रेम वासना से भरा है, निश्चित ही अंधा है। बीस वर्ष बाद, अंधेरी रात है अमावस की। और एक स्त्री पड़ी है गांव के बाहर और तड़प रही है। क्योंकि गांव ने उसे बाहर फेंक दिया। वह कोढ़ ग्रस्त हो गई। यह वही वेश्या है, जिसके द्वार पर सम्राट दस्तक देते थे। अब दस्तक देने का तो कोई सवाल नहीं है। अब उसके शरीर से बदबू आती है। 
.
उस अंधेरी रात में सिर्फ एक भिक्षु उसके सिर के पास बैठा हुआ है। वह करीब-करीब बेहोश पड़ी है। बीच-बीच में उसे थोड़ा-सा होशआता है, तो भिक्षु कहता है, ‘सुन, मैं आ गया ! अब भीड़ जा चुकी है। अब कोई तेरा चाहने वाला न रहा। लेकिन मैं तुझे अब भी चाहता हूं। और मैं कुछ तुझे देना चाहता हूं, कोई सूत्र, जो जीवन को निश्चित ही तृप्ति से भर देता है। उस दिन तूने मांगा था, लेकिन उस दिन तू ले न पाती। और जो तू मांगती थी, वह देने योग्य नहीं है। प्रेम उसे नहीं दे सकता है।’
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बौद्ध कहते हैं इस कथा के संबंध में, कि वह भिक्षुणी, वह जो स्त्री थी, वह उस रात दीक्षित हुई। भिक्षुणी की तरह मरी। और परम तृप्त मरी। और बौद्ध कहते हैं कि वह बुद्धत्व को उपलब्ध हुई। इसने उसे ध्यान दिया। प्रेम ध्यान ही दे सकता है। क्योंकि उससे बड़ा देने योग्य कुछ भी नहीं।
ओशो, बिन बाती बिन तेल, प्रवचन--13

= ४० =

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*एक कहूँ तो दोइ हैं, दोइ कहूँ तो एक ।*
*यों दादू हैरान है, ज्यों है त्यों ही देख ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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*कृष्ण अगर फूल हैं तो राधा जड़ है :~*
रुक्मिणी का कृष्ण के साथ बहुत गहरा मेल नहीं हो सकता, उसके भीतर पुरुष है। राधा पूरी डूब सकी, वह अकेली निपट स्त्री है, वह समर्पण पूरा हो गया। वह समर्पण पूरा हो सका। कृष्ण का किसी ऐसी स्त्री से बहुत गहरा मेल नहीं बन सकता जिसके भीतर थोड़ा भी पुरुष है। अगर कृष्ण के भीतर थोड़ी-सी स्त्री हो तो उससे मेल बन सकता था। लेकिन कृष्ण के भीतर स्त्री है ही नहीं। वह पूरे ही पुरुष हैं। पूरा समर्पण ही उनसे मिलन बन सकता है। इससे कम वह न मांगेंगे, इससे कम में काम न चलेगा। वह पूरा ही मांग लेंगे।
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हालांकि पूरा मांगने का मतलब यह नहीं है कि वह कुछ न देंगे, पूरा मांगकर वह पूरा ही दे देंगे। इसलिए हुआ ऐसा पीछे कि रुक्मिणी छूट गई, जिसका उल्लेख था शास्त्रों में, जो दावेदार थी। और भी दावेदार थीं, वे छूटती चली गईं। और जो बिलकुल गैर-दावेदार था, जिसका कोई दावा ही नहीं था, जिसे कृष्ण अपनी है ऐसा भी नहीं कह सकते थे–राधा तो पराई थी, रुक्मिणी अपनी थी। रुक्मिणी से संबंध संस्थागत था, विवाह का था।
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राधा से संबंध प्रेम का था, संस्थागत नहीं था–जिसके ऊपर कोई दावा नहीं किया जा सकता था, जिसके पक्ष में कोई “कोर्ट’ निर्णय न देती कि यह तुम्हारी है, आखिर में ऐसा हुआ कि वे जो अदालत से जिनके लिए दावा मिल सकता था, जो कृष्ण से “मेंटिनेंस’ मांग सकती थीं, वे खो गईं, और यह स्त्री धीरे-धीरे प्रगाढ़ होती चली गई, और वक्त आया कि रुक्मिणी भूला गई, और कृष्ण के साथ राधा का नाम ही रह गया।
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और मजे की बात है कि राधा ने सब छोड़ा कृष्ण के लिए, लेकिन नाम पीछे न जुड़ा, नाम आगे जुड़ गया। कृष्ण-राधा कोई नहीं कहता, राधा-कृष्ण हम कहते हैं, जो सब समर्पण करता है, वह सब पा लेता है। जो बिलकुल पीछे खड़ा हो जाता है, वह बिलकुल आगे हो जाता है। नहीं, राधा के बिना कृष्ण को हम न सोच पाएंगे। राधा उनकी सारी कमनीयता है।
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राधा उनका सारा-का-सारा जो भी नाजुक है, वह सब है, जो “डेलीकेट’ है, वह है। राधा उनके गीत भी, उनके नृत्य का घुंघरू भी, राधा उनके भीतर जो भी स्त्रैण है वह सब है। क्योंकि कृष्ण निपट पुरुष हैं, और इसलिए अकेले कृष्ण का नाम लेना अर्थपूर्ण नहीं है। इसलिए वह इकट्ठे हो गए, राधाकृष्ण हो गए। राधाकृष्ण होकर इस जीवन के दोनों विरोध इकट्ठे मिल गए हैं। इसलिए भी मैं कहता हूं कि यह भी कृष्ण की पूर्णताओं की एक पूर्णता है।
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महावीर को किसी स्त्री के साथ खड़ा करके नहीं सोचा जा सकता। स्त्री असंगत है। महावीर का व्यक्तित्व स्त्री के बिना है। महावीर की शादी हुई, विवाह हुआ, बच्ची हुई; लेकिन महावीर का एक पंथ दिगंबरों का मानता है कि नहीं, उनका विवाह नहीं हुआ, न उनकी कोई बच्ची हुई। मैं मानता हूं कि शायद ऐतिहासिक तथ्य यही है कि उनका विवाह हुआ हो, बच्ची हुई हो, लेकिन मनोवैज्ञानिक तथ्य दिगंबर जो कहते हैं वही ठीक है कि महावीर जैसे आदमी के साथ स्त्री को जोड़ना ही बेमानी है। हुआ भी हो तो नहीं माना जा सकता।
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महावीर कैसे किसी स्त्री को प्रेम करेंगे; असंभव। महावीर के पूरे व्यक्तित्व में कहीं कोई वह छाया भी नहीं है। बुद्ध के साथ स्त्री थी, लेकिन छोड़कर चले गए। क्राइस्ट के साथ भी स्त्री को जोड़ना मुश्किल है। वे निपट क्वांरे हैं। “बैचलर’ होने में उनकी अर्थवत्ता है। इस अर्थ में भी वह सब अधूरे हैं। इस जगत की व्यवस्था में जैसे धन विद्युत अधूरी है ऋण विद्युत के बिना, जैसे विधेय अधूरा है निषेध के बिना, ऐसे स्त्री और पुरुष का एक परम मिलन भी है। स्त्री और पुरुष का न कहें, स्त्रैणता और पौरुषता का; आक्रामकता का और समर्पण का; जीतने का और हारने का।
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अगर हम कृष्ण और राधा के लिए कोई प्रतीक खोजने निकलें, तो सारी पृथ्वी पर चीन भर में एक प्रतीक है जिसे वह “यिन’ और “यांग’ कहते हैं। बस एक प्रतीक है, चीनी भाषा में, क्योंकि चीनी भाषा तो “पिक्टोरियल’ है, चित्रों की है, उसके पास एक प्रतीक है, जिसे वे जगत का प्रतीक कहते हैं। उसमें एक गोल वर्तुल है और वर्तुल में दो मछलियां एक-दूसरे को मिलती हुई–आधा सफेद, आधा काला। काली मछली में सफेद गोल एक घेरा, सफेद मछली में काला एक घेरा और पूर्ण एक वर्तुल। दो मछलियां पूरी तरह मिलकर एक गोल घेरा बना रही हैं। एक मछली की पूंछ दूसरे के मुंह से मिल रही है, दूसरी मछली का मुंह पहली की पूंछ से मिल रहा है। और दोनों मछलियां मिलकर पूरा गोल घेरा बन गई हैं। “यिन एंड यांग’। एक का नाम “यिन’, एक का नाम “यांग’ है। एक ऋण, एक धन। वे दोनों मिलकर इस जगत का पूरा वर्तुल हैं।
.
राधा और कृष्ण पूरा वर्तुल हैं। इस अर्थ में भी वे पूर्ण हैं। अधूरा नहीं सोचा जा सकता कृष्ण को। अलग नहीं सोचा जा सकता। अलग सोचकर वे एकदम खाली हो जाते हैं। सब रंग खो जाते हैं। पृष्ठभूमि खो जाती है, जिससे वे उभरते हैं। जैसे हम रात के तारों को नहीं सोच सकते रात के अंधेरे के बिना। अमावस में तारे बहुत उज्जवल होकर दिखाई पड़ने लगते हैं, बहुत शुभ्र हो जाते हैं, बहुत चमकदार हो जाते हैं।
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दिन में भी तारे तो होते हैं, आप यह मत सोचना कि दिन में तारे खो जाते हैं। खोएंगे भी बेचारे तो कहां खोएंगे ! दिन में भी तारे होते हैं– आकाश तारों से भरा है अभी भी–लेकिन सूरज की रोशनी में तारे दिखाई नहीं पड़ सकते। अगर आप किसी गहरे कुएं में चले जाएं, तो दो तीन सौ फीट गहरा कुआं हो तो आपको उस गहरे कुएं से तारे दिन में भी दिखाई पड़ सकते हैं। क्योंकि बीच में अंधेरे की पर्त आ जाती है; फिर तारे दिखाई पड़ सकते हैं। रात में तारे आते नहीं सिर्फ दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि अंधेरे की चादर फैल जाती है। और अंधेरे की चादर में तारे चमकने लगते हैं।
.
कृष्ण का सारा व्यक्तित्व चमकता है राधा की चादर पर। चारों तरफ से राधा की चादर उन्हें घेरे है। वह उसमें ही पूरे के पूरे खिल उठते हैं। कृष्ण अगर फूल हैं तो राधा जड़ है। वह पूरा का पूरा इकट्ठा है। इसलिए उनको अलग नहीं कर सकते। वह युगल पूरा है। इसलिए राधाकृष्ण पूरा नाम है, कृष्ण अधूरा नाम है....
आचार्य श्री रजनीश ओशो

= ३९ =

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*बैठे सदा एक रस पीवै, निर्वैरी कत झूझै ।*
*आत्मराम मिलै जब दादू, तब अंग न लागै दूजै ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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*कृष्ण कहते हैं, समत्वबुद्धि योग का सार है !*
कृष्ण उसे योगी न कहेंगे, जो किसी एक अति को पकड़ ले। वह भोगी के विपरीत हो सकता है, योगी नहीं हो सकता। त्यागी हो सकता है। अगर शब्दकोश में खोजने जाएंगे, तो भोगी के विपरीत जो शब्द लिखा हुआ मिलेगा, वह योगी है। शब्दकोश में भोगी के विपरीत योगी शब्द लिखा हुआ मिल जाएगा। लेकिन कृष्ण भोगी के विपरीत योगी को नहीं रखेंगे। कृष्ण भोगी के विपरीत त्यागी को रखेंगे।
.
योगी तो वह है, जिसके ऊपर न भोग की पकड़ रही, न त्याग की पकड़ रही। जो पकड़ के बाहर हो गया। जो द्वंद्व में सोचता ही नहीं; निर्द्वंद्व हुआ। जो नहीं कहता कि इसे चुनूंगा; जो नहीं कहता कि उसे चुनूंगा। जो कहता है, मैं चुनता ही नहीं; मैं चुनाव के बाहर खड़ा हूँ। वह च्वाइसलेस, चुनावरहित है। और जो चुनावरहित है, वही संकल्परहित हो सकेगा। जहाँ चुनाव है, वहाँ संकल्प है।
.
मैं कहता हूँ, मैं इसे चुनता हूँ। अगर मैं यह भी कहता हूँ कि मैं त्याग को चुनता हूँ, तो भी मैंने किसी के विपरीत चुनाव कर लिया। भोग के विपरीत कर लिया। अगर मैं कहता हूँ, मैं सादगी को चुनता हूँ, तो मैंने वैभव और विलास के विपरीत निर्णय कर लिया। जहाँ चुनाव है, वहाँ अति आ जाएगी। चुनाव मध्य में कभी भी नहीं ठहरता है। चुनाव सदा ही एक छोर पर ले जाता है। और एक बार चुनाव शुरू हुआ, तो आप अंत आए बिना रुकेंगे नहीं।
.
और भी एक मजे की बात है कि अगर कोई व्यक्ति चुनाव करके एक छोर पर चला जाए, तो बहुत ज्यादा देर उस छोर पर टिक न सकेगा; क्योंकि जीवन टिकाव है ही नहीं। शीघ्र ही दूसरे छोर की आकांक्षा पैदा हो जाएगी। इसलिए जो लोग दिन-रात भोग में डूबे रहते हैं, वे भी किन्हीं क्षणों में त्याग की कल्पना और सपने कर लेते हैं। और जो लोग त्याग में डूबे रहते हैं, वे भी किन्हीं क्षणों में भोग के और भोगने के सपने देख लेते हैं। वह दूसरा विकल्प भी सदा मौजूद रहेगा। उसका वैज्ञानिक कारण है।
.
द्वंद्व सदा अपने विपरीत से बंधा रहता है; उससे मुक्त नहीं हो सकता। मैं जिसके विपरीत चुनाव किया हूँ, वह भी मेरे मन में सदा मौजूद रहेगा। अगर मैंने कहा कि मैं आपको चुनता हूँ उसके विपरीत, तो जिसके विपरीत मैंने आपको चुना है, वह आपके चुनाव में सदा मेरे मन में रहेगा। आपका चुनाव आपका ही चुनाव नहीं है, किसी के विपरीत चुनाव है। वह विपरीत भी मौजूद रहेगा।
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और मन के नियम ऐसे हैं कि जो भी चीज ज्यादा देर ठहर जाए, उससे ऊब पैदा हो जाती है। तो जो मैंने चुना है, वह बहुत देर ठहरेगा मैं ऊब जाऊँगा। और ऊबकर मेरे पास एक ही विकल्प रहेगा कि उसके विपरीत पर चला जाऊँ। और मन ऐसे ही एक द्वंद्व से दूसरे द्वंद्व में भटकता रहता है। जब कृष्ण कहते हैं, समत्व, तो अगर हम ठीक से समझें, तो समत्व को वही उपलब्ध होगा, जो मन को क्षीण कर दे। क्योंकि मन तो चुनाव है। बिना चुनाव के मन एक क्षण भी नहीं रह सकता।
ओशो, गीता दर्शन

*४४. रस कौ अंग १/४*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४४. रस कौ अंग १/४*
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जगजीवन रस पीजिये, रोम रोम घटि शोध ।
काया कंचन कीजिये, नख सिख नाद निरोध ॥१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि स्मरण रूपी रसपान रोम रोम में उपस्थिति सुनिश्चित करके कीजिये । सम्पूर्ण देह में अनहद रोकें उसे बाह्य प्रखट न होने दें तो यह देह कंचन हो जायेगी प्रभु की नजर में इसका मूल्य होगा ।
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जगजीवन रस पीजिये, रोकि रोकि सब ठांम ।
घट बाही७ ए बोहड़ा८, निरमल हरि का नांम ॥२॥
(७. घट बाही-घट बढ़) {८. बोहड़ा=बोहरा (साहूकार)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु नाम के आनंदरस को शीघ्रता से नहीं रोक(समापन) कर लंबे समय तक आनंदपूर्वक पान कीजिये । जिससे वह पूरी देह में समा जाये । कहीं अधिक कहीं कम यह तो साहूकार स्वयं आंकेगा पर यह है बड़ा निर्मल इससे परिपूर्ण रहो ।
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जगजीवन रस पीजिये, उनमन धरिये ध्यांन ।
तन मन भीतर खोजिये, तो उपजै ब्रह्म ग्यांन ॥३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि संसार से उदासीन होकर प्रभु नाम का स्मरण कीजिये । और अपने अंदर ही परमात्मा की खोज करें तो वहाँ ब्रह्म ज्ञान अवश्य मिलेगा ।
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जगजीवन रस पीजिये, मन मन सूं गुन गालि१ ।
बांध सकै तो बांधिये, पांणी पहली पालि२ ॥४॥
(१. गालि=भिगो कर) {२. पालि=जल रोकने के लिए बांध(मैंड़)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि भक्ति रस का आनंद मन से उत्पन्न गुणों से ओतप्रोत हो वैसा ही स्मरण कीजिये । और जीवन में विषयों की बाढ आने से पहले ही संयम रुपी बांध बांध दीजिये जिससे विषयों का वेग सर्वत्र प्रसारित न हो ।
(क्रमशः)

*मुरली बजई यह भावत जीको*

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*दादू तिस सरवर के तीर, संगी सबै सुहावणे ।*
*तहाँ बिन कर बाजै बैन, जिभ्या हीणे गावणे ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*हाथ गहाय चले तरु के तरि,*
*जोर छुड़ात न छोड़त नीको१ ।*
*जोर कहै नहिं वोउ२ हरै कर,*
*लेत छुडाय न छूटत हीको४ ॥*
*यूं करि आय लियो सु वृन्दावन,*
*पीत रसै जग लागत फीको ।*
*लाल विहारि हु आय मिले,*
*मुरली बजई यह भावत जीको ॥४१६॥*
.
करुणा सागर, भक्तवत्सल श्रीकृष्ण ने आपका हाथ पकड़ कर एक घने वृक्ष की छाया में बैठाया । फिर अपना हाथ छुड़ाने लगे तो विल्वमंगल छोड़ते नहीं थे । कारण-वह आपको अति प्रिय१ लग रहा था । 
.
भगवान् हाथ छुड़ाने के लिये बल से खींचते थे; किन्तु विल्वमंगल२ जी हाथ छोड़ते नहीं थे । परन्तु अंत में भगवान् अपना हाथ छुड़ा कर अलग हो गये । तब विल्वमंगलजी ने कहा- "हाथों में से तो निकल गये किन्तु हृदय३ से तो आप नहीं निकल सकेंगे ।" 
.
इस प्रकार प्रभु की सहायता से वृन्दावन में आकर वृन्दावन की कुञ्ज में रहने लगे । अब आपको जगत् नीरस लगने लग गया । सब ओर से मनोवृत्ति रोक कर भगवद् प्रेम रूप रस का ही पान करने लगे । 
.
कृपा करके श्रीविहारीलालजी आपके पास आकर आपसे मिले और वंशी की मधुर तान सुना कर, इनको प्रिय लगने वाला यह मनोरथ भी पूर्ण कर दिया ॥
(क्रमशः)

मंगलवार, 13 अगस्त 2024

= ३८ =

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*काल कर्म जीव ऊपजै, माया मन घट श्‍वास ।*
*तहँ रहता रमता राम है, सहज शून्य सब पास ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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#लाओत्से के पास कोई आता था साधना के लिए, तो लाओत्से कहता था कि एक सप्ताह मेरे पास रूक जाओ, जरा मैं देख तो लूं कि तुम कैसी श्वास लेते हो, कैसी श्वांस छोड़ते हो। खोजी आया हो, अगर ज्ञानी हो, तो हैरान होगा कि ब्रह्मज्ञान लेने आए, सत्य का पता लगाने आए और यह आदमी कह रहा है कैसी श्वास लेते हो, कैसी छोड़ते हो।
.
सात दिन लाओत्से देखेगा उस आदमी को अनेक हालतों में--सोते में, जागते में, काम करते, चलते वक्त, क्रोध में, प्रेम में--और देखेगा, उसकी श्वास की व्यवस्था क्या है। और जब तक वह श्वास की व्यवस्था न समझ ले, तब तक साधना का कोई सूत्र न देगा। श्वास के साथ ही साधना पूरी की पूरी व्यवस्थित की जा सकती है।
.
तो लाओत्से के इस सूत्र को साधना का सूत्र समझें। अपनी श्वास का ध्यान रखें और श्वास के रूपांतरण की कोशिश करें। श्वास की बदलाहट आपकी बदलाहट हो जाएगी। श्वास में क्रांति आपके स्वयं के व्यक्तित्व की क्रान्ति हो जाएगी। और जैसे-जैसे श्वास गहरी होने लगेगी, आपकी गहराई बढ़ने लगेगी, आपका उथलापन समाप्त हो जाएगा। और जिस दिन श्वास केंद्र पर होगी, उस दिन आप सारे जगत के साथ एक अद्वैत के बिंदु पर मिल जाएंगे।
.
अपने केंद्र पर जो आ गया, वह जगत के केंद्र पर आ जाता है। स्वंय के केंद्र पर जो डूब गया, वह विराट के केंद्र से एक हो जाता है। और जैसे-जैसे आपकी श्वास गहरी और भीतर-भीतर उतरने लगती है, वैसे-वैसे रहस्य के नए पर्दे और सत्य के नए द्वार खुलने शुरू हो जाते हैं। जो मनुष्य के भीतर छिपा है, वही विराठ में विस्तीर्ण होकर फैल हुआ है। जो अपने भीतर गहरे उतर आता है, वह परम के भीतर ऊंचा उठ जाता है।
ओशो, ताओ उपनिषद

= ३७ =

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*दादू मन चित आतम देखिये, लागा है किस ठौर ?*
*जहँ लागा तैसा जाणिये, का देखै दादू और ॥*
=============
*साभार ~ @Subhash Jain*
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तुमने शेखचिल्ली की कहानी सुनी न ! वह एक खेत में चोरी करने घुस गया। बाजरे के भुट्टे पक गए थे, उनकी सुगंध हवा में थी। बाजरे के भुट्टे सिर उठाए खड़े थे। खेत के किसान का दूर दूर कुछ पता न था। शेखचिल्ली ने सोचा, यह मौका छोड़ना ठीक नहीं। और बाजरे के पौधे इतने बड़े थे कि उनके भीतर छिप जाए तो पता भी न चले। तो छिप गया।
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इकट्ठे करने लगा बाजरे के भुट्टे। झोली भर ली पूरी। बड़ा प्रसन्न था। सोचने लगा, बाजार में बेचूंगा, इतने दाम मिलेंगे। मुर्गी खरीद लूंगा। अंडे होंगे रोज रोज अंडे देगी मुर्गी फिर जल्दी गाय खरीद लूंगा, फिर भैंस और फिर यात्रा बढ़ती चली गई।
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अभी खेत में ही है। अभी भुट्टे इकट्ठे ही कर रहा है। लेकिन मन बहुत दूर की यात्राओं पर निकल गया। यहां तक कि खयाल आया उसे कि जब भैंस से काफी दूध बेच लूंगा और भैंस के बच्चे होंगे, उनको भी बेच लूंगा, इतना धन हो जाएगा कि खेत ही खरीद लूंगा।
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यह खेत प्यारा है; इसी खेत को खरीद लूंगा। और तभी मन में एक डर आया कि चोर घुस जाए खेत में, फिर ? कोई भुट्टे तोड़ ले जाए, फिर ? तो कहा, यह खेल नहीं मेरे खेत से भुट्टे तोड़ना। खड़े होकर ऐसी आवाज दूंगा कि मीलों तक दहाड़ हो जाएगी। और खड़े हो उसने आवाज दी सावधान !! और किसान जिसका खेत था, वह आ गया। चोर पकड़ा गया सारे भुट्टों के साथ।
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किसान भी चौंका, उसने कहा कि चोरी मेरी समझ में आती है, थोड़ी बहुत चोरी होती ही है, मगर यह खड़े होकर सावधान क्यों चिल्लाए ? यह मेरी समझ में नहीं आता। मगर तुम इसका राज मुझे बता दो तो मैं तुम्हें छोड़ दूं, भुट्टों सहित छोड़ दूं। वह चोर कहने लगा, यह न पूछो तो अच्छा ! तुम्हें जो सजा देनी हो दे लो, मगर यह राज मैं न कह सकूंगा कि कैसे मैंने सावधान कहा। इसमें मेरी बड़ी दीनता है; इसमें मेरी बड़ी मूढ़ता है।
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नहीं माना किसान तो कहानी बतानी पड़ी। ऐसे तो कहानी पता चली शेखचिल्ली की। अभी कुछ भी न हुआ था और बात कहां से कहां तक पहुंच गई। बात में से बात निकलती गई। कामना में से कामना निकलती गई, नए नए अंकुर खिलते गए।
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दो दिन तो हम कामना में बिता देते हैं, जो कि व्यर्थ गए, क्योंकि कामना के किसी बीज से काम्य उपलब्ध नहीं होता। कामना का बीज दग्ध होता है तब काम्य उपलब्ध होता है। कामना के बीज से काम्य उपलब्ध नहीं होता। और फिर दो बीज बो कर हम बैठते हैं, प्रतीक्षा करते हैं कि अब…कि अब, कि अब आया वसंत, कि अब आयी ऋतु।
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कि आखिर इसी तरह कामना करने वालों ने तो कहावत गढ़ ली है कि उसकी दुनिया में देर है अंधेर नहीं है। तो देर तो काफी हो गई, अंधेर तो उसकी दुनिया में है नहीं, बस अब आता ही होगा फल ! अब स्वर्णमुद्राएं बरसती ही होंगी ! और ऐसे ही शेखचिल्लियों ने विचार कर लिए हैं कि जब वह देता है, छप्पर फाड़ कर देता है।
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दो दिन कट जाते हैं कामना में, दो दिन कट जाते हैं इंतजार में। और चार ही दिन हमारे पास हैं। चार दिन भी कहां हैं ? जीवन है दिन चार भजन करि लीजिए। टालो मत कल पर। भगवान को याद करना हो तो अभी कर लो। कल की तो बात ही मत उठाना। जिसने कहा, कल, उसने कहा, नहीं। जिसने कहा, नहीं, उसने कहा, कभी नहीं। भगवान को स्थगित नहीं किया जा सकता।
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प्रेम को कोई स्थगित करता है, टालता है ? प्रेम के लिए तो आतुरता होती है कि अभी हो। पलटू कहते हैं, भजन कर लो। कोई बहाने न खोजो। बहाने खोजे, बहुत महंगे पड़ेंगे। फिर बहुत पछताओगे। फिर पछताने से भी कुछ होगा नहीं।
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भजन का क्या अर्थ होता है ? बैठ कर मंजीरा बजा लिया, कि बैठ कर राम राम की धुन कर ली, कि राम नाम का अखंड पाठ कर लिया ? नहीं, इन औपचारिकताओं से भजन नहीं होता। भजन का तो अर्थ है: प्राण प्रभु के प्रेम में पगें; एक धुन भीतर बजती रहे, अहर्निश; उठते, बैठते एक स्मरण सतत बना रहे; एक धारा, अंतर्धारा बहती रहे प्रभु की।
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जो देखो, उसमें प्रभु दिखाई पड़े। जो करो, उसमें प्रभु दिखाई पड़े। जहां चलो, जहां बैठो, वहां तीर्थ अनुभव हो; क्योंकि वह सर्वव्यापी है। जिस भूमि पर हम चलते, उसकी भूमि; जिस भूमि पर बैठते, उसकी भूमि। सारा जगत परम पुनीत है, पावन है, क्योंकि परमात्मा से आपूर है।
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बोलो तो उसने बोलना; सुनो तो उसको सुनना; हवाएं वृक्षों से गुजरें तो उसकी आवाज स्मरण रखना; कोयल पुकारने लगे दूर से तो उसने ही पुकारा है कोयल के रूप में, ऐसा अनुभव करना। ऐसी प्रतीति की सघनता का नाम भजन है। बैठ गए और कोई बंधी बंधाई पंक्तियां दोहरा लीं, तो भजन नहीं होता। तोतारटंत है; भजन का धोखा है।
🎭 सपना यह संसार🎭
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*प्रेम भक्ति जब ऊपजै, निश्‍चल सहज समाधि ।*
*दादू पीवे राम रस, सतगुरु के प्रसाद ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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खड़े तुम वहीं हो। सूरज भी वहीं है, तुम भी वहीं हो। फर्क सिर्फ पड़ जाता है कि तुम्हारी पीठ सूरज की तरफ है, तो बहुत दूर; मुंह सूरज की तरफ है, तो बहुत पास। परमात्मा तुम्हारे सदा एक सा ही पास है। उसकी नजर में, नानक कहते हैं, न कोई ऊंच है, न कोई नीच। न कोई पात्र, न कोई अपात्र। अगर तुम अपात्र हो तो अपने ही कारण। अपने में थोड़ा फर्क करो, और तुम पात्र हो जाओगे। क्योंकि जो पात्र हैं, उनमें और तुम में सिर्फ एक ही फर्क है। वे परमात्मा की तरफ उन्मुख हैं, तुम परमात्मा की तरफ विमुख हो।
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नानक कहते हैं, ‘जिन्होंने उसके नाम का ध्यान किया और सचाई से श्रम किया, उनके मुख उज्ज्वल होते हैं। और उनके साथ अनेकों मुक्त होते हैं।’ नानक कहते हैं, जब भी कोई मुक्त होता है, अकेला ही मुक्त नहीं होता। क्योंकि मुक्ति इतनी परम घटना है, और मुक्ति एक ऐसा महान अवसर है–एक व्यक्ति की मुक्ति भी–कि जो भी उसके निकट आते हैं, वे भी उस सुगंध से भर जाते हैं। उनकी जीवन-यात्रा भी बदल जाती है। जो भी उसके पास आ जाते हैं, वे भी उस ओंकार की धुन से भर जाते हैं। उनको भी मुक्ति का रस लग जाता है। उनको भी स्वाद मिल जाता है थोड़ा सा। और वह स्वाद उनके पूरे जीवन को बदल देता है।
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‘जिन्होंने उसका ध्यान किया, सचाई से उसके लिए श्रम किया, उनके मुख उज्ज्वल होते हैं।’ उनके भीतर एक प्रकाश जलता है। जो अगर तुम प्रेम से देखो, तो तुम्हें दिखायी पड़ सकता है। तुम अगर पूजा के भाव से पहचानो, तो तत्क्षण पहचान आ सकता है। उनके भीतर एक दीया जलता है। और उस दीए की रोशनी उनके चारों तरफ पड़ती है।
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इसलिए तो हमने संतपुरुषों, अवतारों के चेहरे के आसपास आभा का मंडल बनाया है। वह आभा का मंडल सभी को दिखायी नहीं पड़ता। वह उन्हीं को दिखायी पड़ता है, जिनके भीतर भाव की पहली किरण उतर आयी है। उन्हीं को दिखायी पड़ता है जिनके पास श्रद्धा है। जिनके पास श्रद्धा की पहचान है।
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और जिनको यह दिखायी पड़ता है, वे उस जले हुए दीए से अपना बुझा हुआ दीया भी जला लेते हैं। जब भी कोई एक मुक्त होता है, तो हजारों उसकी छाया में मुक्त होते हैं। एक व्यक्ति की मुक्ति कभी भी अकेली नहीं घटती। घट ही नहीं सकती। क्योंकि जब इतना परम अवसर मिलता है, तो ऐसा व्यक्ति बहुतों के लिए द्वार बन जाता है।
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तुम अपनी श्रद्धा और भाव को जगाए रखना, ताकि तुम्हें गुरु पहचान आ सके। और गुरु को जिसने पहचान लिया, उसने इस जगत में परमात्मा के हाथ को पहचान लिया। गुरु को जिसने पहचान लिया, उसने इस जगत में जगत के जो बाहर है उसको पहचान लिया। उसे द्वार मिल गया।
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और द्वार मिल जाए तो सब मिल गया। खोया तो कभी भी कुछ नहीं है। द्वार से गुजर कर तुम्हें अपनी पहचान आ जाती है। जो प्रकाश सदा से तुम्हारा है, उसकी सुरति आ जाती है। जो संपदा सदा से तुम्हारे पास है, आविष्कार हो जाता है। जो तुम सदा से ही थे, जिसे तुमने कभी खोया न था, गुरु तुम्हें उसकी पहचान करा देता है।
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कबीर ने कहा है, गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांव?
किसके छुऊं चरण ? अब दोनों सामने खड़े हैं। कबीर बड़ी दुविधा में पड़ गए हैं। किसके छुऊं चरण? अगर परमात्मा के चरण पहले छुऊं, तो गुरु का असम्मान होता है। अगर गुरु के चरण पहले छुऊं, तो परमात्मा का असम्मान होता है। तो कबीर कहते हैं, किस के चरण छुऊं ?
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फिर वे गुरु के ही चरण छूते हैं। क्योंकि वे कहते हैं, बलिहारी गुरु आपकी जिन गोविंद दियो बताय। जब वे दुविधा में पड़े हैं, तब गुरु ने कहा कि तू गोविंद के ही चरण छू। क्योंकि मैं यहीं तक था। यह बड़ी मीठी बात है। जब कबीर दुविधा में पड़े हैं तो गुरु ने कहा, इशारा किया, कि तू गोविंद के चरण छू, मैं यहीं तक था। मेरी बात यहीं समाप्त हो गयी। अब गोविंद सामने खड़े हैं। अब तू उन्हीं के चरण छू।
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बलिहारी गुरु आपकी जिन गोविंद दियो बताय।
लेकिन कबीर ने चरण फिर गुरु के ही छुए। क्योंकि उसकी बलिहारी है, उन्होंने गोविंद बताया। श्रद्धा हो तुम्हारे पास, तो तुम पहचान लोगे। बस ! श्रद्धा चाहिए, भाव चाहिए। विचार से न कोई कभी पहुंचा है, न कोई कभी पहुंच सकता है। तुम वह असफल चेष्टा मत करना। वह असंभव है। वह कभी नहीं हुआ। और तुम भी अपवाद नहीं हो सकते।
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और गुरु सदा मौजूद है। क्योंकि ऐसा कभी नहीं होता कि संसार के इन अनंत लोगों में कुछ लोग उसे न पा लेते हों। कुछ लोग हमेशा ही उसे पा लेते हैं। इसलिए कभी भी धरती गुरु से खाली नहीं होती। दुर्भाग्य ऐसा कभी नहीं आता कि धरती गुरुओं से खाली हो। लेकिन ऐसा दुर्भाग्य कभी-कभी आ जाता है कि पहचानने वाले बिलकुल नहीं होते। बस इतना ही....
ओशो

*गिरीश तथा मास्टर*

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*यंत्र बजाया साज कर, कारीगर करतार ।*
*पंचों का रस नाद है, दादू बोलनहार ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*परिच्छेद १३७.ईश्वर-लाभ के उपाय*
*(१)गिरीश तथा मास्टर*
काशीपुर के बगीचे के पूर्व की ओर तालाब है, जिसमें पक्का घाट बँधा हुआ है । उद्यान, पथ और तरु-लताएँ चाँदनी की उज्ज्वल छटा में खूब चमक रही हैं । तालाब के पश्चिम की ओर दुमँजले मकान में दीपक जल रहा है ।
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कमरे में श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे हुए हैं । दो-एक भक्त भी कमरे में चुपचाप बैठे हैं । कोई कोई इस कमरे से उस कमरे में आ-जा रहे हैं । घाट से नीचे के कमरों का उजाला भी दिखायी पड़ रहा है । एक कमरे में भक्तगण रहते हैं । यह कमरा दक्षिण की ओर है ।
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मकान के बीच से जो प्रकाश आ रहा है, वह श्रीमाताजी के कमरे का है । श्रीमाताजी श्रीरामकृष्ण की सेवा के लिए आयी हुई हैं । तीसरा प्रकाश भोजनगृह से आ रहा है । यह कमरा मकान के उत्तर की ओर है । उद्यान के भीतर से पूर्व की ओर घाट तक एक रास्ता गया है । रास्ते के दोनों ओर, विशेषकर, दक्षिण की ओर फूलों के बहुत से पेड़ हैं ।
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तालाब के घाट पर गिरीश, मास्टर, लाटू तथा दो-एक भक्त और बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण के सम्बन्ध में बातचीत हो रही है । आज शुक्रवार है, १६ अप्रैल, १८८६, चैत्र शुक्ल त्रयोदशी । कुछ देर बार गिरीश और मास्टर उस रास्ते पर टहल रहे हैं और बीच बीच में वार्तालाप कर रहे हैं ।
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मास्टर - कैसी सुन्दर चाँदनी है ! कितने अनन्त काल से प्रकृति के ये नियम चले आ रहे हैं !
गिरीश - तुम्हें कैसे मालूम हुआ ?
मास्टर - प्रकृति के नियमों में परिवर्तन नहीं होता । विलायत के पण्डित टेलिस्कोप(Telescope) से नये नये नक्षत्र देख रहे हैं । उन्होंने देखा है, चन्द्रलोक में बड़े बड़े पहाड़ हैं ।
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गिरीश - यह कहना कठिन है, उनकी बातों पर विश्वास नहीं होता ।
मास्टर - क्यों ? टेलिस्कोप से तो सब बिलकुल ठीक ठीक दीख पड़ता है ।
गिरीश - पर तुम कैसे कह सकते हो कि पहाड़ आदि सब ठीक ठीक ही देखे गये हैं । मान लो, पृथ्वी और चन्द्रमा के बीच में कुछ और चीजे हों, तो उनमें से प्रकाश आने पर सम्भव है ऐसा दिखता हो ।
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किशोर भक्त-मण्डली सदा ही बगीचे में रहती है, श्रीरामकृष्ण की सेवा के लिए, - नरेन्द्र, राखाल, निरंजन, शरद, शशि, बाबूराम, काली, योगिन, लाटू आदि । जो संसारी भक्त हैं, उनमें से कोई कोई रोज आते हैं और रात में भी कभी कभी रह जाते हैं । उनमें से कोई कभी कभी आया करते हैं । आज नरेन्द्र, काली और तारक दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर के बगीचे में गये हुए हैं । नरेन्द्र वहाँ पंचवटी के नीचे बैठकर तपस्या और साधना करेंगे । इसीलिए दो-एक गुरुभाइयों को भी साथ लेते गये हैं ।
(क्रमशः)

*श्री रज्जबवाणी, उपदेश का अंग ८*

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*प्राण हमारा पीव सौं, यों लागा सहिये ।*
*पुहुप वास घृत दूध में, अब कासौं कहिये ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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उपदेश का अंग ८
देह धरैं१ तन में मन निश्चल, 
तीन प्रकार प्रकट ही पेखतु२ ।
अतिगति३ शीत सरोवर बेधत४, 
पानी पषान सो आहि५ विशेषतु६ ॥
ज्यों अश्व उभो७ रहे जटि८ चुम्बक, 
चाल रु दौड़ नहीं कछु देखतु ।
मूसो९ जु पारा पिय पग पंगुल, 
रज्जब राम रमैं लिये लेखतु१० ॥४॥
शरीर धारण१ करते हैं उनका तन मन में तीन प्रकार से निश्चल होता है, यह प्रकट रूप से ही देखा२ जाता है ।
एक तो जैसे अत्यधिक३ शीत से सरोवर विद्ध४ होता है तब पानी विशेष६ रूप से पत्थर सा होकर स्थित हो जाता है५ किंतु धूप लगने पर पुन: पानी होकर चचंल हो जाता है । वैसे ही भय से किसी पर मन स्थिर हो जाता है किंतु भय जाते ही पुन: चचंल हो जाता है ।
दूसरे जैसे चुम्बक पत्थर पर लोहे की नाल लगा धोड़े का पैर पड़ जाता है तब तत्काल पत्थर पर नाल जटित८ होकर घोड़ा खड़ा७ हो जाता है फिर घोड़े की चाल तथा दौड़ कुछ भी नहीं देखी जाती । वैसे ही विषेश आकर्षण से मन सहसा रुक जाता है ।
तीसरे चूहा९ पारा पीकर पैरों से पंगुल हो जाता है । वैसे ही मन राम भक्ति रस का पान करके आशा रूप पैरों से रहित हो जाता है और रमता राम के लिये ही सब कुछ करता१० देखा जाता है ।
(क्रमशः)

दिन जाइ रे अहलौ राम बिना

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू अवसर चल गया, बरियां गई बिहाइ ।*
*कर छिटके कहँ पाइये, जन्म अमोलक जाइ ॥*
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दिन जाइ रे अहलौ राम बिना ।
सो दिन लेखै न लाइ, जो दिन राम बिना ॥टेक॥
बालापण यौंही गयौ, तरनापै बहू चींतौ रे ।
पछैं बुढ़ापौ आइयौ, ना धन हुवौ न मींतौ रे ॥
रैंणि गमाई सोवताँ, दिन ग्रिह के ब्यौहारै रे ।
और जनम कब आवसी, अबकै बैठौ हारे रे ॥
मूढै राम न जानियौ, धन जोबन उदमादे रे ।
बषनां बारौ बहि गयौ, जनम गमायौ बादे रे ॥१०॥
अहलौ = व्यर्थ । लेखै = गिनती में । तरनापै = तरुण अवस्था । चींतौ = चिंता-फिक्र । मींतौ = मित्र । मूढै = मूर्ख । उदमादे = गर्व से गर्वित । बारौ = समय । बादै = व्यर्थ । बहि गयौ = चला गया ॥
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राम नाम स्मरण के बिना दिन पर दिन व्यर्थ जा रहे हैं । वे दिन गिनने योग्य नहीं हैं अथवा वे दिन सदुपयोग किये नहीं माने जाते जो बिना राम नाम स्मरण के व्यतीत हो जाते हैं ।
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बालावस्था खेलने-कूदने, खाने-पीने में योंही = निष्प्रयोजन ही व्यतीत हो जाती है । मध्यावस्था = जवानी में घर-गृहस्थी की अनेकों चिंताएं लग जाती हैं ‘गृह कारज नाना जंजाला । ते अति दुर्गम सैल बिसाला’ । किन्तु इन्हीं कार्यों को यदि अकर्त्ताभाव से करे तो इस गृहस्थाश्रम व जवानी के बराबर सुखद और कुछ है ही नहीं ‘ज्येष्ठाश्रमोगृही’ । (महाभारत) इसके पश्चात् वृद्धावस्था आती है जिसमें शरीर अशक्त हो जाता है और वह धन भी काम नहीं आता जो जवानी में वृद्धावस्था के लिये येन-केन प्रकारेण करके संगृहीत किया था ।
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रात्रि सोने में व्यतीत हो जाती है । दिन घर के काम-काजों को संपादित करने में व्यतीत हो जाता है । इनके अतिरिक्त और समय कहाँ से आयेगा जिसमें परमात्म-चिंतन किया जा सके । पता नहीं पुनः मनुष्य जन्म कब मिलेगा । इसबार तो मनुष्य जन्म को गवाँ बैठे । ‘लख चौरासी भुगतताँ, बीति जाइ जुग चारि । पीछै नरतन पायगा, ताते राम संभारि ॥’
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मूढ़ = मूर्ख (जो अपना भला-बुरा न समझे) ने राम नाम माहात्म्य को इस मनुष्य जन्म में जाना हो नहीं, यह तो धन और यौवन के मद में ही उन्मत्त बना रहा । राम नाम का स्मरण किया ही नहीं । बषनांजी कहते हैं, मनुष्य जन्म रूपी अवसर यों ही = व्यर्थ ही व्यतीत हो गया । जन्म व्यर्थ ही गवाँ दिया ॥१०॥
(क्रमशः)

सोमवार, 12 अगस्त 2024

*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग १४८/१५०*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग १४८/१५०*
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ए ऊँकारि बिचारि हरि, अरथ भेद सब पाइ ।
कहि जगजीवन रांम रटि, रांम हि मांहि समाइ ॥१४८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि एक ओम कार का विचार करें । उसमें सब अर्थ व भेद मिल जायेंगे । संत कहते हैं कि राम रटने से राम में ही समाते हैं ।
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अण अदेख५ देख्या कहै, रांम भगति भै भीत ।
कहि जगजीवन ए हरि सौदा, सिर के साटै६ सीत ॥१४९॥
(५. अण अदेख=न देखा हुआ) (६. साटै=बदले में)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि बिना जाने ही जाना हुआ कहते हैं, व राम भक्ति से कतराते रहते हैं । संत कहते हैं कि भक्ति तो समर्पण भाव से है उसमे जान भी लग जाये तो विचारें की मुफ्त में मिली है ।
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बेदन मांहै बिराजै, मंदिर करै प्रगास ।
निस सोवै दिन क्रित करै, सु कहि जगजीवनदास ॥१५०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु ज्ञान(वेद) में भी हे पीड़ा में भी है । जिससे मन मन्दिर प्रकाशित होता है । जो रात में प्रभु भाव से शयन व दिन में प्रभु भाव से संसारिक कृत्य करता है ।
इति गूढ अर्थ कौ अंग संपूर्ण ॥४३॥
(क्रमशः)

*पाप कर्यो हम संत दुखावत*

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*साँई सेवा चोर मैं, अपराधी बन्दा ।*
*दादू दूजा को नहीं, मुझ सरीखा गन्दा ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*पाप कर्यो हम संत दुखावत,*
*हो तुम संत हमै अपराधी ।*
*व्राज१ रहो हम सेव करें तुम,*
*सेव करी सब ही विधि साधी२ ॥*
*ऊठ चले दृग भूत छुडाय रु,*
*क्षेम भयो उर आँखि सु लाधी३ ।*
*जाय बसे वन भूख लगी पन,*
*आप जिमावत जान अराधी ॥४१५॥*
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चरणों में पड़ा हुआ व्याकुलता से बोला-"हम दोनों ने संत को दुःख दिया है । यह महा पाप किया है । हम बड़े अभागी हैं । "विल्वमंगलजी उनको आश्वासन देते हुये बोले- "तुम लोग ही महान् संत हो, मैं तो साधु भेष को महा कलंक लगाने वाला असाधु और अपराधी हूँ" ।
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गलियन में हर्षित फिरै, साधु कहैं सब कोय ।
"श्वान नाम बाधा धस्यो, खोजी बाघन होय" ।
भेष और नाम मात्र से कौन साधु होता है । फिर भक्त ने प्रार्थना की- "आप यहीं विराजे१ रहिये हम आपकी सेवा करेंगे ।" आपने कहा- "तुमने तो सभी प्रकार से अच्छी२ सेवा की है ।"
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पश्चात् नेत्र रूप प्रेतों से छुटकारा पाकर तथा भक्त को शुभाशीर्वाद देकर वहाँ से वृन्दावन को चल दिये । अब बाहर के नेत्रों से देखने काम तो समाप्त हो गया था और हृदय की ज्ञान रूप सुन्दर आँखें प्राप्त३ हो गई थीं ।
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इससे आपको बड़ा आनंद प्राप्त हुआ था । फिर आप एक वन में जाकर बैठ गये परन्तु वहाँ भूख लगी । और तो कोई भोजन देने वाला वहाँ था नहीं, इसलिये इनको अपनी आराधना करने वाला भक्त जानकर स्वयं श्रीकृष्णजी ने ही भोजन कराया ॥
(क्रमशः)