बुधवार, 26 फ़रवरी 2025

= १६१ =

*🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷*
*🌷🙏 卐 सत्यराम सा 卐 🙏🌷*
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*वास निरन्तर सो समझाइ,*
*बिन नैनहुँ देखूँ तहाँ जाइ ॥*
*दादू रे यहु अगम अपार,*
*सो धन मेरे अधर अधार ॥*
*साभार ~ @Subhash Jain*
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*विज्ञान भैरव तंत्र, विधि 63* 🌸🙏
(भगवान शिव द्वारा माता पार्वती को आत्म साक्षात्कार के लिए दी गई 112 विधियों में से एक विधी)   
*‘जब किसी इंद्रिय-विषय के द्वारा स्‍पष्‍ट बोध हो, उसी बोध में स्‍थित होओ।’*
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तुम अपनी आँख के द्वारा देखते हो। ध्‍यान रहे, तुम अपनी आँख के द्वारा देखते हो। आंखे नहीं देख सकती। उनके द्वारा तुम देखते हो। द्रष्‍टा पीछे छिपा है। भीतर छिपा है; आंखें बस द्वार है, झरोखे है। लेकिन हम सदा सोचते है कि हम आँख से देखते है। हम सोचते है कि हम कान से सुनते है। कभी किसी ने कान से नहीं सुना है। तुम कान के द्वारा सुनते हो, कान से नहीं। सुननेवाला पीछे है। कान तो रिसीवर है।
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मैं तुम्‍हें छूता हूं, मैं बहुत प्रेमपूर्वक तुम्‍हारा हाथ अपने हाथ में लेता हूं। यह हाथ नहीं है, जो तुम्‍हें छूता है। यह मैं हूं, जो हाथ के द्वारा तुम्‍हें छू रहा है। हाथ यंत्र है। और स्‍पर्श भी दो भांति का है। एक, जब मैं सच ही तुम्‍हें स्‍पर्श करता हूं। और दूसरा, जब मैं स्‍पर्श से बचना चाहता हूं, मैं तुम्‍हें छूकर भी स्‍पर्श से बच सकता हूं। मैं अपने हाथ में न रहूँ। मैं हाथ से अपने को अलग कर सकता हूं।
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इसे प्रयोग करके देखो, तुम्‍हें एक भिन्‍न अनुभव होगा। एक दूरी का अनुभव होगा। किसी पर अपना हाथ रखो और अपने को अलग रखो; यहां सिर्फ मुर्दा हाथ होगा, तुम नहीं। और अगर दूसरा व्‍यक्‍ति संवेदनशील है तो उसे मुर्दा हाथ का एहसास हो जायेगा। वह अपने को अपमानित महसूस करेगा आप के इस व्‍यवहार से, क्‍योंकि तुम उसे धोखा दे रहे हो। तुम छूने का दिखावा कर रहे हो।
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स्‍त्रियां इस मामले में बहुत संवेदनशील है; तुम उन्‍हें धोखा नहीं दे सकते हो। स्‍पर्श के प्रति, शारीरिक स्‍पर्श के प्रति वे ज्‍यादा सजग है; वे जान जाती है। हो सकता है पति मीठी-मीठी बातें कर रहा हो। वह फूल ले आया हो, और कह रहा हो कि मैं तुम्‍हें प्रेम करता हूं। लेकिन उसका स्‍पर्श कह देगा कि वह वहां नहीं है। और स्‍त्रियों को सहज बोध हो जाता है कि कब तुम उनके साथ हो और कब नहीं। अगर तुम अपने मालिक नहीं हो तो तुम उन्‍हें धोखा नहीं दे सकते हो। अगर तुम्‍हें अपने ऊपर मलकियत नहीं है तो तुम उन्‍हें धोखा नहीं दे सकते। और जो अपना मालिक है वह पति होना नहीं चाहेगा, यह कठिनाई है।
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यह सूत्र कहता है कि इंद्रियाँ द्वार भर है - एक माध्यम, एक यंत्र, एक रिसीविंग स्‍टेशन और तुम उनके पीछे हो। *‘जब किसी इंद्रिय-विशेष के द्वारा स्‍पष्‍ट बोध हो, उसी बोध में स्‍थित होओ।’*
संगीत सुनते हुए अपने को कान में मत खो दो, मत भूला दो। उस चैतन्‍य को स्‍मरण करो, जो पीछे छिपा है। होश रखो। किसी को देखते हुए इस विधि को प्रयोग करो। तुम यह प्रयोग मुझे देखते हुए अभी और यही कर सकते हो। क्‍या हो रहा है ?
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तुम मुझे आँख से देख सकते हो। और जब मैं कहता हूं आँख से - तो उसका मतलब है कि तुम्‍हें इसका बोध नहीं है कि तुम आँख के पीछे छिपे हो। तुम मुझे आँख के द्वारा देख सकते हो। आँख एक यंत्र है। तुम आँख के पीछे खड़े हो। आँख के द्वारा देख रहे हो। जैसे कोई किसी खिड़की या ऐनक के द्वारा देखता है।  
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तुमने बैंक में किसी क्‍लर्क को अपने ऐनक के ऊपर से देखते हुए देखा होगा। ऐनक उसकी नाक पर उतर आयी है, और वह देख रहा है। उसी ढंग से मुझे देखो, मेरी तरफ देखो, ऐसे देखो जैसे आँख के ऊपर से देखते हो। मानो तुम्‍हारी आंखें सरककर नीचे नाक पर आ गई हों और तुम उनके पीछे से मुझे देख रहे हो। अचानक तुम्‍हें गुणवत्‍ता में फर्क मालूम पड़ेगा, तुम्‍हारा परिप्रेक्ष्‍य बदलता है। आंखे महज द्वार बन जाती है, और यह ध्‍यान बन जाता है।
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सुनते समय कानों के द्वारा मात्र सुनो और अपने आंतरिक केंद्र के प्रति जागे रहो। स्‍पर्श करते हुए हाथ के द्वारा मात्र छुओ और आंतरिक केंद्र को स्‍मरण रखो, जो पीछे छिपा है। किसी भी इंद्रिय से तुम्‍हें आंतरिक केंद्र की अनुभूति हो सकती है। और प्रत्‍येक इंद्रिय आंतरिक केंद्र तक जाती है, उसे सूचना देती है। 
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यही कारण है कि जब तुम मुझे देख और सुन रहे हो—जब तुम आँख के द्वारा देख रहे हो और कान के द्वारा सुन रहे हो, तो तुम जानते हो कि तुम उसी व्‍यक्‍ति को देख रहे हो, जिसे सुन भी रहे हो। अगर मेरे शरीर में कोई गंध है, तो तुम्‍हारी नाक उसे भी ग्रहण करेगी। उस हालत में तीन-तीन इंद्रियाँ एक ही केंद्र को सूचना दे रही है। इसी से तुम संयोजन कर पाते हो। अन्‍यथा संयोजन कठिन होता।
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अगर तुम्‍हारी आंखे ही देखती है और कान ही सुनते है तो यह जानना कठिन होता है कि तुम उसी व्‍यक्‍ति को सुन रहे हो जिसे देख रहे हो, या दो भिन्‍न व्‍यक्‍तियों को देख और सुन रहे हो; क्‍योंकि दोनों इंद्रियाँ भिन्‍न है, और वे आपस में नहीं मिलती है। तुम्‍हारी आंखों को तुम्‍हारे कान का पता नहीं है, और तुम्‍हारे कान को तुम्‍हारी आंखों का कुछ पता नहीं है। वे एक दूसरे को नहीं जानते है। वे आपस में कभी मिले नहीं है। उनका एक दूसरे से परिचय भी नहीं है। तो फिर सारा समन्वय, सारा संयोजन कैसे घटित होता है ?
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कान सुनते है, आंखें देखती है, हाथ छूते है, नाक सूँघती है, और अचानक तुम्‍हारे भीतर कहीं कोई जान जाता है कि यह वही आदमी है जिसे में सुन रहा हूं, देख रहा हूं। सभी इंद्रियाँ इस ज्ञाता को ही सूचना देती है। और इस ज्ञाता में, इस केंद्र में सब कुछ सम्‍मिलित होकर, संयोजित होकर एक हो जाता है। यह चमत्‍कार है। मैं एक हूं; बाहर से मैं एक हूं। मेरा शरीर, मेरे शरीर की उपस्‍थिति, उसकी गंध, मेरा बोलना, सब एक है। लेकिन तुम्‍हारी इंद्रियाँ मुझे विभाजित कर देंगी। 
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तुम्‍हारे कान मेरे बोलने की खबर देंगे। तुम्‍हारी नाक मेरी गंध की खबर देगी। और तुम्‍हारी आंखें मेरी उपस्‍थिति की खबर देंगी। वे इंद्रियाँ मुझे टुकड़ों में बांट देंगी। लेकिन फिर तुम्‍हारे भीतर कहीं पर मैं एक हो जाऊँगा। जहां तुम्‍हारे भीतर मैं एक होता है, वह तुम्‍हारे होने का केंद्र है। वह तुम्‍हारा बोध है, चैतन्‍य है। तुम उसे बिलकुल भूल गए हो। यह विस्‍मरण ही अज्ञान है। और बोध का चैतन्‍य आत्‍मज्ञान के द्वार खोलता है। तुम और किसी उपाय से अपने को नहीं जान सकते हो।
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*‘जब किसी इंद्रिय-विशेष के द्वारा स्‍पष्‍ट बोध हो, उसी होश में स्‍थित होओ।’*
उसी बोध में रहो; उसी बोध में स्‍थित रहो। होशपूर्ण होओ। आरंभ में यह कठिन है। हम बार-बार सो जाते है। और आँख के द्वारा देखना कठिन मालूम पड़ता है। आँख से देखना आसान है। आरंभ में थोड़ा तनाव अनुभव होगा और तुम आँख के द्वारा देखने की चेष्‍टा करोगे। और न केवल तुम तनाव अनुभव करोगे, वह व्‍यक्‍ति भी तनाव अनुभव करेगा जिसे तुम देखोगे।      
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अगर तुम किसी को आँख के द्वारा देखोगे तो उसे लगेगा कि तुम अनुचित रूप से दखल दे रहे हो, कि तुम उसके साथ अभद्र व्‍यवहार कर रहे हो। तुम अगर आँख के द्वारा देखोगे तो दूसरे को अचानक अनुभव होगा कि तुम उसके साथ उचित व्‍यवहार नहीं कर रहे हो क्‍योंकि तुम्‍हारी दृष्‍टि भेदक बन जाएगी। तुम्‍हारी दृष्‍टि गहराई में उतर जाएगी। अगर यह दृष्‍टि तुम्‍हारी गहराई से आती है, वह उसकी गहराई में प्रवेश कर जाएगी।
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यही कारण है कि समाज ने एक बिल्‍ट-इन सुरक्षा की व्‍यवस्‍था कर रखी है। समाज कहता है कि जब तक तुम किसी के प्रेम में नहीं हो, उसे बहुत घूरकर मत देखो। अगर तुम प्रेम में हो तो देख सकते हो। तब तुम उसके अंतर्तम तक प्रवेश कर सकते हो क्‍योंकि वह तुमसे भयभीत नहीं है। तब दूसरा तुम्‍हारे प्रति नग्‍न हो सकता है, समग्रता: नग्‍न हो सकता है। वह तुम्‍हारे प्रति खुला हो सकता है। लेकिन साधारणत: अगर तुम प्रेम में नहीं हो, तो किसी को घूरने की, भेदक दृष्‍टि से देखने की मनाही है।
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भारत में हम ऐसे आदमी को, जो दूसरे को घूरता है, लुच्‍चा कहते है। लुच्‍चा का अर्थ है, देखने वाला। लुच्‍चा शब्‍द लोचन से आता है। लुच्‍चा का अर्थ हुआ कि जो आँख ही बन गया है। इसलिए इस विधि का प्रयोग किसी अपरिचित पर मत करना। वह तुम्‍हें लुच्‍चा समझेगा। पहले इस विधि का प्रयोग ऐसे विषयों के साथ करो - जैसे फूल है, पेड़ है, रात के तारे है। वे इसे अनुचित दखल नहीं मानेंगे। वे एतराज नहीं उठाएंगे। बल्‍कि वे इसे पंसद करेंगे। उन्‍हें बहुत अच्‍छा लगेगा। वे इसका स्‍वागत करेंगे।
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तो पहले उनके साथ प्रयोग करो और फिर अपनी पत्नी, अपने बच्‍चे, अपने प्रियजनों के साथ। कभी अपने बच्‍चे को गोद में उठा लो और उसको आँख के द्वारा देखो। बच्‍चा इसे समझेगा, सराहेंगा। वह अन्‍य किसी से भी ज्‍यादा समझेगा, क्‍योंकि अभी समाज ने उसे पंगु नहीं बनाया है, विकृत नहीं किया है। वह अभी सहज है। तुम अगर उसे आँख के द्वारा देखोगे तो उसे प्रगाढ़ प्रेम की अनुभूति होगी। उसे तुम्‍हारी उपस्‍थिति का एहसास होगा।  
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अपने प्रेमी या प्रेमिका को ऐसे देखो। और फिर जैसे-जैसे तुम्‍हें इस बात की पकड़ आएगी, जैसे-जैसे तुम इसमें कुशल होगे वैसे-वैसे तुम धीरे-धीरे दूसरों को भी देखने में समर्थ हो जाओगे। क्‍योंकि तब किसी को पता नहीं चलेगा कि तुमने इस गहराई से उसे देखा । और जब अपनी इंद्रियों के पीछे सतत सजग होकर खड़े होने की कला तुम्‍हारे हाथ आ जायेगी, तो इंद्रियाँ तुम्‍हें धोखा न दे पाएंगी। अन्‍यथा इंद्रियाँ धोखा देती है। 
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ऐसे संसार में, जो सिर्फ भासता है, इंद्रियों ने तुम्‍हें उसे सच मानने का धोखा दिया है। अगर तुम इंद्रियों के द्वारा देख सको, और सजग रह सको तो धीरे-धीरे संसार माया मालूम पड़ने लगेगा। स्वप्नवत मालूम पड़ने लगेगा। और तब तुम उसके तत्व में, उसके मूल तत्‍व में प्रवेश कर सकोगे। यह मूल तत्‍व ही ब्रह्म है।
ओशो ❤️ ❤️ तंत्र-सूत्र
भाग-तीन, प्रवचन-39
🙏🌸 *ॐ नमः शिवाय* 🙏🌸
 

= १६० =

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*देह निरंतर शून्य ल्यौ लाई,*
*तहं कौण रमे कौण सूता रे भाई ॥*
*दादू न जाणै ये चतुराई,*
*सोइ गुरु मेरा जिन सुधि पाई ॥*
*साभार ~ @Subhash Jain*
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*हे शिव, आपका सत्य क्या है?* 🤔🙏🌸
हमने कैलाश पर शिव का आवास बनाया है। वह प्रतीक है कि कैलाश सबसे ऊंचा शिखर है, सबसे पवित्र शिखर है। वहीं हमने शिव का आवास रखा है। हम वहां जा सकते हैं, लेकिन हमें वहाँ से नीचे उतर आना होगा। वह हमारा आवास नहीं हो सकता है। 
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हम तीर्थयात्रा के लिए वहा जा सकते हैं। वह तीर्थ है, तीर्थयात्रा है। एक क्षण के लिए हम भी उस शिखर को छू सकते हैं, लेकिन फिर वापस आना होगा। प्रेम में यह पवित्र तीर्थयात्रा घटित होती है, लेकिन सब के लिए नहीं। क्योंकि शायद ही कोई यौन के पार जाता है। इसलिए हम घाटी में, अंधेरी घाटी में जीते चले जाते हैं। 
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कभी-कभी बिरला कोई प्रेम के शिखर को उपलब्ध होता है, लेकिन वह भी नीचे उतर आता है, क्योंकि उस ऊंचाई पर सिर चकराने लगता है। वह इतना ऊंचा है और तुम इतने निम्न, छोटे। और वहा रहना भी कठिन है। जिन्होंने प्रेम किया है, वे जानते हैं कि प्रेम में सदा बने रहना कितना कठिन है। बार-बार वापस आना पड़ता है। वह शिव का आवास है। वे वहां रहते हैं, वह उनका घर ही है।
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भैरव प्रेम में जीते हैं, प्रेम उनका आवास है। जब मैं कहता हूं कि वह उनका आवास है, उसका अर्थ है कि अब उन्हें प्रेम का भी बोध नहीं रहा। क्योंकि कैलाश पर ही रहने पर बोध भी जाता रहता है कि यह कैलाश है, शिखर है। तब शिखर समतल भूमि बन जाता है। शिव को प्रेम का बोध नहीं है। 
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हमें प्रेम का बोध होता है, क्योंकि हम अप्रेम में जीते हैं; और इस वैषम्य के कारण, विपरीतता के कारण हमें प्रेम का बोध होता है। शिव प्रेम ही हैं। भैरव का अर्थ होता है कि वह प्रेम ही हो गया है। यह नहीं कि वह प्रेमपूर्ण है, प्रेम करता हैं; वह स्वयं प्रेम हो गया है, वह शिखर पर है, शिखर ही उसका आवास है।
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इस सर्वोच्च शिखर को संभव कैसे बनाया जाए जो सब द्वैत के पार है, अचेतन के पार है, चेतन के पार है, शरीर और आत्मा के पार है, संसार और मोक्ष के भी पार है ? इस शिखर को उपलब्ध कैसे हुआ जाए ? उसकी विधि तंत्र है। लेकिन तंत्र शुद्ध विधि है, इसलिए इसे समझने में कठिनाई होगी। इसलिए हम पहले उस प्रश्न को समझें जो देवी पूछती हैं।
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'हे शिव, आपका सत्य क्या है?'
यह प्रश्न क्यों ? तुम भी यही प्रश्न पूछ सकते हो, लेकिन उसका वही अर्थ नहीं होगा। इसलिए समझने की कोशिश करो कि देवी क्यों पूछती हैं कि आपका सत्य क्या है। देवी गहरे से गहरे प्रेम में हैं। और जब कोई गहरे प्रेम में होता है तब पहली दफा उसे भीतर सत्य का साक्षात्कार होता है। तब शिव आकार नहीं हैं, शरीर नहीं हैं। 
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जब तुम प्रेम में होते हो, तब प्रेमी का शरीर लुप्त हो जाता है। तब आकार मिट जाता है, निराकार प्रकट होता है। तब तुम एक अतल गहराई के सामने होते हो। यही कारण है कि हम प्रेम से इतना डरते हैं। हम एक शरीर का सामना कर सकते हैं; हम आकृति का, रूप का सामना कर सकते हैं; लेकिन हम अगाध अतल का, महाशून्य का सामना नहीं कर सकते।
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अगर तुम किसी को प्रेम करते हो, सचमुच प्रेम करते हो, तो उसका शरीर निश्चित रूप से विलुप्त हो जाने वाला है। ऊंचाई के शिखर के किसी क्षण में आकार मिट जाएगा और प्रेमी के माध्यम से तुम निराकार में प्रवेश कर जाओगे। यही वजह है कि हम डरते हैं। यह तो एक अतल समुद्र में गिरना हो जाएगा।
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'हे शिव, आपका सत्य क्या है ?'
यह महज जिज्ञासा का प्रश्न नहीं है। देवी अवश्य ही आकार के साथ प्रेम में पड़ गई होंगी। चीजें वैसे ही शुरू होती हैं। उन्होंने पहले आदमी के रूप में इस आदमी को प्रेम किया होगा। और जब प्रेम वयस्क हुआ, प्रस्फुटित हुआ, खिला, तब यह आदमी ही अंतर्धान हो गया। वह निराकार हो गया है। अब वह आदमी कहीं दिखाई नहीं देता।
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'हे शिव, आपका सत्य क्या है?'
यह प्रेम के एक अत्यंत ही गहन क्षण में पूछा गया प्रश्न है। और जब प्रश्न उठते हैं तब जिन मनों से वे उठते हैं उनके अनुसार उनमें फर्क पड़ता है। इसलिए अपने-अपने मन में इस प्रश्न की स्थिति, इसका माहौल पैदा करो। पार्वती भारी अड़चन में पड़ी होंगी; देवी कठिनाई में पड़ी होंगी। शिव अंतर्धान हो गए हैं। जब प्रेम अपने शिखर पर होता है, तब प्रेमी अंतर्धान हो जाता है। यह क्यों होता है ?
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यह होता है, क्योंकि वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति निराकार है। तुम शरीर नहीं हो। शरीर की तरह चलते हो, शरीर के तल पर जीते हो, लेकिन शरीर नहीं हो। जब हम बाहर से किसी को देखते हैं तब वह शरीर ही है। लेकिन प्रेम तो भीतर प्रवेश करता है। तब हम व्यक्ति को बाहर से नहीं देखते हैं। प्रेम किसी को भी वैसे देख सकता है जैसे वह अपने को भीतर से देखता है। तब रूप विदा हो जाता है।
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झेन संत रिंझाई आत्मोपलब्ध हुआ तो उसने पहला प्रश्न पूछा : 'मेरा शरीर कहां है ? वह कहां चला गया ?' और वह खोजने लगा। उसने अपने शिष्यों को बुलाया और कहां : 'जाओ और खोजो कि मेरा शरीर कहां गया ? मेरा शरीर खो गया है।' वह निराकार में, अरूप में प्रवेश कर गया था। 
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तुम भी एक निराकार अस्तित्व हो। लेकिन तुम अपने को प्रत्यक्ष नहीं, दूसरों की वजह से जानते हो। तुम अपने को आईने के मार्फत जानते हो। किसी समय आईने में अपने को देखते हुए आंखें बंद कर लो और तब ध्यान करो अगर आईना नहीं होता तो मैं अपना रूप कैसे पहचानता ? 
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एक ऐसी दुनिया की सोचो जहां आईना नहीं हो। तुम अकेले हो, कोई आईना नहीं है, आईने का काम करती हुई दूसरों की आंखें भी नहीं हैं। तब क्या तुम्हें चेहरा होगा ? या तुम्हें शरीर होगा ? नहीं, नहीं होगा। है भी नहीं। हम अपने को दूसरों के द्वारा ही जानते हैं। और दूसरे केवल बाहरी रूप देखते हैं, शरीर देखते हैं, और यही कारण है कि हम अपने शरीर के साथ तादात्म्य कर लेते हैं।
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देवी शिव से पूछती हैं, 'हे शिव, आपका सत्य क्या है? आप कौन हैं ?'
आकार मिट गया है, इसलिए यह प्रश्न। प्रेम में तुम दूसरे में स्वयं उसकी तरह प्रविष्ट होते हो। तुम उत्तर नहीं दे रहे, तुम एक हो जाते हो। और पहली दफा तुम एक अंतस को, निराकार उपस्थिति को जानते हो।
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यही कारण है कि सदियों-सदियों तक हमने शिव की कोई प्रतिमा, कोई चित्र नहीं बनाया। हम सिर्फ शिवलिंग बनाते रहे, उनका प्रतीक बनाते रहे। शिवलिंग एक निराकार आकार है। जब तुम किसी को प्रेम करते हो, किसी में प्रवेश करते हो, तब वह मात्र एक ज्योतित उपस्थिति हो जाता है। शिवलिंग वही ज्योतित उपस्थिति है, प्रकाश का प्रभा-मंडल हैं।
ओशो ❤️ ❤️तंत्र सूत्र
भाग 1, प्रवचन 1
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सोमवार, 24 फ़रवरी 2025

॥निश्चय॥

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🌷🙏 *#बखनांवाणी* 🙏🌷
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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*भरि भरि प्याला, प्रेम रस, अपणे हाथ पिलाइ ।*
*सतगुरु के सदिकै किया, दादू बलि बलि जाइ ॥*
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राग रामकली ॥२॥निश्चय॥
म्हारै गुरि कहियौ सोइ करिस्यूँ हो ।
खार समँद मैं मीठी बेरी, करि सूधै घड़िलै भरिस्यूँ हो ॥टेक॥
इहिं कूवै को को पणिहारी, को को लेज न टूटी हो ।
पाणी लगैं पहूँती नांहीं, ठाली ठिलिया फूटी हो ॥
आगैं जो पणिहारी होती, त्याँह नैं गुर भरि दीता हो ।
नीगुणगारी या पणिहारी, रह्यौ पणिहड़ौ रीतौ हो ॥
पाँच तिसाया कुवै खिंदाया, त्याँह की त्रिष्ना भागी हो ।
गुर कौ सब्द छेहड़ै बांध्यौ, लेज पहूँचण लागी हो ॥
अैसा पाणी और न जाणी, जिह पीया तिस भागै हो ।
बषनां नैं गुर दादू पायौ, पीवत मीठा लागै हो ॥३७॥
खार समँद = संसारासक्त शरीर । मीठी बेरी = मीठे जल का कुवा = साधु-सज्जन पुरुषों की संगति । सूधै घड़िलै = शुद्ध हृदय । भरस्यूँ = भजन-भक्ति से शुद्धहृदय को भरुंगा । पणिहारी = संसारी, भेषधारी । लेज = लय-रस्सी । पाणी = रामनाम-स्मरण, भक्ति । ठाली = भक्ति शून्य । ठिलिया = काया । फूटी = खाली रह गई । आगैं जो पणिहारी = साधु-संत, भक्त । पणिहड़ौ = शरीर । पाँच = पाच ज्ञानेन्द्रियाँ । कूवै = सत्संग । छेहड़ै = किनारे पर = हृदय में धारण कर लिया । लेज = लय = वृत्ति । पाणी = नाम, प्रेम । तिस = प्यासा = माया की चाहना ॥
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मैं वही करुंगा, जिसको करने का मेरे गुरु ने मुझे उपदेश दिया है । मेरे गुरु के उपदेशानुसार मैं मेरे विषयभोगों में आकंठ आसक्त शरीर को आत्मबोध कराने वाली सत्संगति से शुद्ध करके हृदय में रामनाम-स्मरण रूपी भक्ति को स्थापित करुंगा ।
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इस संसार में जन्मे किस-किस जीव की वृत्ति संसार के लुभावने भोगों को देख-देखकर उनमें आसक्त नहीं हुई है ? अर्थात् आसक्त हुई है और उनकी मनोवृत्ति परमात्मा की ओर से हटी है । उनकी चित्तवृत्ति रामनाम रूपी भक्ति की ओर उन्मुख हुई ही नहीं । परिणामस्वरूप भक्तिशून्यावस्था में ही उनकी मृत्यु हो गई है ।
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जो मुमुक्षु परमात्मा के आगै = सन्मुख हो जाते हैं “सम्मुख होहिं जीव मोहि जबही । जन्म कोटि अघ नासहिं तबही ॥” उन्हें गुरु महाराज वैराग्य, भक्ति और ज्ञान सम्पन्न बना देते हैं । जो जीव अवगुणग्राही हैं, अवगुणी हैं, गुरु की शरण का अवलंबन नहीं करते हैं उनका शरीर, अंतःकरण भक्तिशून्य ही रह जाता है ।
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पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को संतों का उपदेश सुनने, मनन-चिंतन करने में लगा दीया जिससे संसारी सुखों को प्राप्त करने की तृष्णा उनकी समाप्त हो गई । गुरु महाराज द्वारा प्रदत्त भगवन्नाम रूपी शब्द को वृत्ति के साथ जोड़ दिया जिससे वृत्ति शब्दमय हो गई । शब्द ही परब्रहम है । “तस्य वाचक प्रणवः” ॥योगसूत्र॥ “अक्षराणामकारोऽस्मि” गीता ॥
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ऐसा साधन भगवन्नाम के अतिरिक्त और दूसरा नहीं है जिसके करने से विनश्वर भोगों को भोगने की तृष्णा का अंत होता हो । बषनां को दादूजी जैसा गुरु मिला है जिनके उपदेश सुनने में, आचरण करने में और परिणाम देने में मीठे ही मीठे लगते हैं ॥३७॥
(क्रमशः)

रविवार, 23 फ़रवरी 2025

= १५९ =

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*दादू देही देखतां, सब किसही की जाइ ।*
*जब लग श्‍वास शरीर में,*
*गोविन्द के गुण गाइ ॥*
*साभार ~ @Subhash Jain*
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धरती की उम्र चार अरब वर्ष है, अब तक धरती चार अरब वर्ष से जिंदा है। सूरज धरती से हजारों गुना पुराना है। और हमारा सूरज बहुत जवान है; बूढ़े सूरज हैं। हमारी धरती तो बहुत नई है, नई—नवेली बहू समझो; इसलिए इतनी हरी—भरी है। बहुत—सी पृथ्वियां हैं दुनिया में जो उजड़ गईं, जहां अब सिर्फ राख ही राख रह गई है—न वृक्ष ऊगते, न मेघ घिरते, न कोयल कूकती, न मोर नाचते।
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अनंत पृथ्वियां हैं, वैज्ञानिक कहते हैं, जो सूख गई हैं। कभी वहां भी जीवन था। कभी यह पृथ्वी भी सूख जाएगी। हर चीज पैदा होती है, जवान होती है, बूढ़ी होती है, मरती है। यह सूरज भी चुक जाएगा; यह सूरज भी रोज चुक रहा है, क्योंकि इसकी ऊर्जा खत्म होती जा रही है। इससे किरणें रोज निकल रही हैं और समाप्त हो रही हैं।
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वैज्ञानिक कहते हैं कि कुछ हजार वर्षों में यह सूरज ठंडा पड़ जाएगा। इस सूरज के ठंडे पड़ते ही पृथ्वी भी ठंडी हो जाएगी, क्योंकि उसी से तो इसको रोशनी मिलती है, प्राण मिलते, ताप मिलता, ऊर्जा मिलती, ऊष्मा मिलती; उसी से तो उत्तप्त होकर जीवन चलता है, फूल खिलते हैं, वृक्ष हरे होते हैं, हम चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं।
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हमारा तो सत्तर साल का जीवन है, इस पृथ्वी का समझो कि सत्तर अरब वर्ष का होगा। सूरज का और समझो सात सौ अरब वर्ष का होगा। और महासूर्य हैं, जिनका और आगे, आगे होगा। आदमी की बिसात क्या है ? इस सत्तर साल के जीवन में मगर हम कितने अकड़ लेते हैं ! लड़ लेते हैं, झगड़ लेते हैं, गाली—गलौज कर लेते हैं, दोस्ती—दुश्मनी कर लेते हैं, अपना—पराया कर लेते हैं, मैं-तू की बड़ी झंझटें खड़ी कर देते हैं। अदालतों में मुकदमेबाजी हो जाती है, सिर खुल जाते हैं।
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अगर हम मृत्यु को ठीक से पहचान लें, तो इस पृथ्वी पर वैर का कारण न रह जाए। जहां से चले जाना है, वहां वैर क्या करना ? जहां से चले जाना है, वहां दो घड़ी का प्रेम ही कर लें। जहां से विदा ही हो जाना है, वहां गीत क्यों न गा लें, गाली क्यों बकें ? जिनसे छूट ही जाना होगा सदा को, उनके और अपने बीच दुर्भाव क्यों पैदा करें ? कांटे क्यों बोएं ? थोड़े फूल उगा लें, थोड़ा उत्सव मना लें, थोड़े दीए जला लें ! इसी को मैं धर्म कहता हूं।
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जिस व्यक्ति के जीवन में यह स्मरण आ जाता है कि मृत्यु सब छीन ही लेगी; यह दो घड़ी का जीवन, इसको उत्सव में क्यों न रूपांतरित करें ! इस दो घड़ी के जीवन को प्रार्थना क्यों न बनाएं ! पूजन क्यों न बनाएं ! झुक क्यों न जाएं—कृतज्ञता में, धन्यवाद में, आभार में ! नाचें क्यों न, एक—दूसरे के गले में बांहें क्यों न डाल लें ! मिट्टी मिट्टी में मिल जाएगी। यह जो क्षण—भर मिला है हमें, इस क्षण—भर को हम सुगंधित क्यों न करें! इसको हम धूप के धुएं की भांति क्यों पवित्र न करें, कि यह उठे आकाश की तरफ, प्रभु की गूंज बने !
ओशो

शनिवार, 22 फ़रवरी 2025

= १५९ =

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*कहै दादू सो सुनसी सांई,*
*हौं अबला बल मुझ में नांही ।*
*करम करी घर मेरे आई, तो शोभा पीव तेरे तांई ॥*
*साभार ~ @Subhash Jain*
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मैंने सुना है, एक सूफी फकीर के आश्रम में प्रविष्ट होने के लिये चार स्त्रियां पहुंचीं। उनकी बड़ी जिद थी, बड़ा आग्रह था। ऐसे सूफी उन्हें टालता रहा, लेकिन एक सीमा आई कि टालना भी असंभव हो गया। सूफी को दया आने लगी, क्योंकि वे द्वार पर बैठी ही रहीं–भूखी और प्यासी; और उनकी प्रार्थना जारी रही कि उन्हें प्रवेश चाहिए।
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उनकी खोज प्रामाणिक मालूम हुई तो सूफी झुका। और उसने उन चारों की परीक्षा ली। उसने पहली स्त्री को बुलाया और उससे पूछा, “एक सवाल है। तुम्हारे जवाब पर निर्भर करेगा कि तुम आश्रम में प्रवेश पा सकोगी या नहीं। इसलिए बहुत सोच कर जवाब देना।’ सवाल सीधा-साफ था। उसने कहा कि एक नाव डूब गई है; उसमें तुम भी थीं और पचास थे। पचास पुरुष और तुम एक निर्जन द्वीप पर लग गये हो। तुम उन पचास पुरुषों से अपनी रक्षा कैसे करोगी ? यह समस्या है।
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एक स्त्री और पचास पुरुष और निर्जन एकांत ! वह स्त्री कुंआरी थी। अभी उसका विवाह भी न हुआ था। अभी उसने पुरुष को जाना भी न था। वह घबड़ा गई। और उसने कहा, कि अगर ऐसा होगा तो मैं किनारे लगूंगी ही नहीं; मैं तैरती रहूंगी। मैं और समुद्र्र में गहरे चली जाऊंगी। मैं मर जाऊंगी, लेकिन इस द्वीप पर कदम न रखूंगी। फकीर हंसा, उसने उस स्त्री को विदा दे दी और कहा, कि मर जाना समस्या का समाधान नहीं है। नहीं तो आत्मघात सभी समस्याओं का समाधान हो जाता।
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यह पहला वर्ग है, जो आत्मघात को समस्या को समाधान मानता है। तुम चकित होओगे, कि तुममें से अधिक लोग इसी वर्ग में हैं। हर बार जीवन में वही समस्याएं हैं, वही उलझने हैं, और हर बार तुम्हारा जो हल है, वह यह है कि किसी तरह जी लेना और मर जाना। फिर तुम पैदा हो जाते हो।
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इस संसार में मरने से तो कुछ हल होता ही नहीं। फिर तुम पैदा हो जाते हो, फिर वही उलझन, फिर वही रूप, फिर वही झंझट, फिर वही संसार; यह पुनरुक्ति चलती रहती है। यह चाक घूमता रहता है। तुम्हारे मरने से कुछ हल न होगा। तुम्हारे बदलने से हल हो सकता है। मरने से हल नहीं हो सकता। मर कर भी तुम, तुम ही रहोगे। फिर तुम लौट आओगे।
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और अगर एक बार आत्मघात समस्या का समाधान मालूम हो गया तो तुम हर बार यही करोगे। तुम्हारे मन में भी अनेक बार किसी समस्या को जूझते समय जब उलझन दिखाई पड़ती है और रास्ता नहीं मिलता, तो मन होता है, मर ही जाओ। आत्महत्या ही कर लो। यह तुम्हारे जन्मों-जन्मों का निचोड़ है। पर इससे कुछ हल नहीं होता। समस्या अपनी जगह खड़ी रहती है।
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दूसरी स्त्री बुलाई गई। वह दूसरी स्त्री विवाहित थी, उसका पति था। यही सवाल उससे भी पूछा गया, कि पचास व्यक्ति हैं, तू है; नाव डूब गई है सागर में, पचास व्यक्ति और तू एक निर्जन द्वीप लग गये हैं। तू अपनी रक्षा कैसे करेगी ?
उस स्त्री ने कहा, इसमें बड़ी कठिनाई क्या है ? उन पचास में जो सबसे शक्तिशाली पुरुष होगा, मैं उससे विवाह कर लूंगी। वह एक, बाकी उनचास से मेरी रक्षा करेगा।
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यह उसका बंधा हुआ अनुभव है। लेकिन उसे पता नहीं, कि परिस्थिति बिलकुल भिन्न है। उसके देश में यह होता रहा होगा, कि उसने विवाह कर लिया और एक व्यक्ति ने बाकी से रक्षा की। लेकिन एक व्यक्ति बाकी से रक्षा नहीं कर सकता। एक व्यक्ति कितना ही शक्तिशाली हो, पचास से ज्यादा शक्तिशाली थोड़े ही होगा। रक्षा असल में एक पति थोड़े ही करता है स्त्री की ! जो पचास की पत्नियां हैं, वह उन पचास को सीमा के बाहर नहीं जाने देतीं।
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इसलिए वह जो उसका अनुभव है, इस नई परिस्थिति में काम न आयेगा। वह एक आदमी मार डाला जायेगा, वह कितना ही शक्तिशाली हो। उसका कोई अर्थ नहीं है। पचास के सामने वह कैसे टिकेगा ?
पुराना अनुभव हम नई परिस्थिति में भी खींच लेते हैं। हम पुराने अनुभव के आधार पर ही चलते जाते हैं, बिना यह देखे कि परिस्थिति बदल गई है और यह उत्तर कारगर न होगा।
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फकीर ने उस स्त्री को विदा कर दिया और उससे कहा, कि तुझे अभी बहुत सीखना पड़ेगा, इसके पहले कि तू स्वीकृत हो सके। तूने एक बात नहीं सीखी है अभी, कि परिस्थिति के बदलने पर समस्या ऊपर से चाहे पुरानी दिखाई पड़े, भीतर से नई हो जाती है। और नया समाधान चाहिये।
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लेकिन अनुभव की एक खराबी है, कि जितने अनुभवी लोग होते हैं, उनके पास नया समाधान कभी नहीं होता। छोटे बच्चे से तो नया समाधान मिल भी जाये, बूढ़े से नया समाधान नहीं मिल सकता। उसका अनुभव मजबूत हो चुका होता है। वह अपने अनुभव को ही दोहराये चला जाता है। वह कहता है, मैं जानता हूं, जीया हूं, बहुत अनुभव किये हैं; यह उसका सारा निचोड़ है। उसका मस्तिष्क पुराना, जरा-जीर्ण हो जाता है, बासा हो जाता है।
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यह स्त्री बासी हो चुकी थी। इसके उत्तर खंडहर हो चुके थे। इसको यह बोध भी न रहा था, कि हर पल जीवन नई समस्या खड़ी करता है। और हर पल चेतना को नया समाधान खोजना पड़ता है। इसलिए बंधे हुए समाधान, लकीरें, और लकीरों पर चलनेवाले फकीर काम के नहीं हैं। रूढ़िबद्ध उत्तर काम नहीं देंगे। यहां तो सजगता चाहिये। सजगता ही उत्तर हो सकती है। वह स्त्री भी अस्वीकार दी गई।
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तुममें से बहुतों के उत्तर बंधे हुए हैं। कोई हिंदू घर में पैदा हुआ है, कोई मुसलमान घर में पैदा हुआ है, कोई जैन घर में पैदा हुआ है। तुम्हारे पास बंधे हुए उत्तर हैं। जैन का एक उत्तर है, मुसलमान का एक उत्तर है, हिंदू का एक। तुम उन बंधे उत्तरों को खोजे जा रहे हो !
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महावीर को विदा हुए पच्चीस सौ साल हो गये। पच्चीस सौ सालों में सारी समस्याएं बदल गई, संसार बदल गया, आदमी के होने का ढंग बदल गया, आदमी की चेतना बदल गई। तुम पुराना उत्तर पीटे चले जा रहे हो ! तुम यह भूल ही गये हो, कि अब वह समस्या ही नहीं है, जिसके लिये तुम्हारे पास समाधान है। समस्या समाधान में कोई तालमेल नहीं रहा।
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वेद बड़े प्राचीन हैं। हिंदू अघाते नहीं यह घोषणा करते, कि हमारी किताब सबसे ज्यादा पुरानी है। लेकिन जितनी पुरानी किताब उतनी ही व्यर्थ ! पुरानी किताब का मतलब ही यह है, कि अब वह दुनिया ही नहीं रही, जब किताब लिखी गई थी। अब वे प्रश्न नहीं रहे, अब वे उलझनें नहीं रहीं। जिंदगी रोज नये ढांचे लेती है, नये रूप, नये रंग !
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गंगा रोज नये किनारे को छूती है, पुराने किनारे छूट गए। और तुम पुराने नक्शे लिये घूम रहे हो। तुम्हारा गंगा से मिलन नहीं होता। क्योंकि गंगा नई होती जा रही है, तुम्हारे पास पुराने नक्शे हैं। गंगा ने जिन जमीनों पर बहना छोड़ दिया, तुम वहां के नक्शे लिये हो। और गंगा जहां बह रही है अभी, इस क्षण, वहां तुम्हारे नक्शे की वजह से तुम नहीं पहुंच पाते। कभी-कभी बिना नक्शे का आदमी भी पहुंच जाये, पर पुराने नक्शों को लेकर चलने वाला कभी नहीं पहुंच सकता। उसके लिये तो भारी अड़चन है।
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वह दूसरी स्त्री विदा कर दी गई। तीसरी स्त्री बुलाई गई, वह एक वेश्या थी। और जब फकीर ने उसे समस्या बताई कि समस्या यह है, कि पचास आदमी हैं, तुम हो, नाव डूब गई, एकांत निर्जन द्वीप होगा, तुम अकेली स्त्री होओगी। समस्या कठिन है; तुम क्या करोगी ?
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वह वेश्या हंसने लगी। उसने कहा, मेरी समझ में आता है कि नाव है, पचास आदमी हैं, एक स्त्री मैं हूं। फिर नाव डूब गई है, पचास आदमी और मैं किनारे लग गये, निर्जन द्वीप है, समझ में आता; लेकिन समस्या क्या है ? वेश्या के लिये समस्या हो ही नहीं सकती ! इसमें समस्या कहां है, यह मेरी समझ में नहीं आता। और जब समस्या ही न हो, तो समाधान का सवाल ही नहीं उठता।
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तीसरे वर्ग के लोग भी हैं। वे इतने दिन तक समस्या में रह लिए हैं, कि समस्या दिखाई पड़नी ही बंद हो गई। जब तुम बहुत किसी चीज के आदी हो जाते हो, तो तुम्हारी आंखें धुंधली हो जाती हैं। फिर वह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ती। अगर तुम्हारे घर के सामने ही कोई वृक्ष लगा हो, तो वह तुम्हें दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। तुम उसे रोज देखते हो, वह दिखाई पड़ना बंद हो जाता है।
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जिस चीज के साथ तुम धीरे-धीरे रम जाते हो, उसकी चोट पड़नी बंद हो जाती है। जीवन बहुतों के लिये समस्या ही नहीं है। वे चकित होते हैं दूसरों को जीवन का समाधान खोजते हुए देखकर। वे हैरान होते हैं। उनकी नजरों में ये खोजनेवाले पागल हैं, दीवाने हैं। इनके दिमाग में कुछ खराबी हो गई हे; अन्यथा दुनिया सब ठीक है। “समस्या कहां है ?’ वेश्या ने पूछा।
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वेश्या भी विदा कर दी गई। क्योंकि जिसके लिए समस्या ही नहीं है, उसे समाधान की यात्रा पर कैसे भेजा जा सकता है ? चौथी स्त्री के सामने भी वही सवाल फकीर ने रखा। उस स्त्री ने सवाल सुना, आंखें बंद कीं, आंखें खोलीं और कहा, “मुझे कुछ पता नहीं। मैं निपट अज्ञानी हूं।’
वह चौथी स्त्री स्वीकार कर ली गई। ज्ञान के मार्ग पर वही सकता है, जो अज्ञान को स्वीकार ले।
ओशो;

= १५८ =

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*दादू कदि यहु आपा जाइगा,*
*कदि यहु बिसरै और ।*
*कदि यह सूक्ष्म होइगा, कदि यहु पावै ठौर ॥*
*साभार ~ @Subhash Jain*
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एक ही प्रश्न महत्वपूर्ण है, पूछ लेने जैसा है, रोएं-रोएं में कंपित कर लेने जैसा है–कैसे तुम्हारे गीत गाऊं ? कैसे तुम्हें पुकारूं ? कैसे तुम मेरे मन-मंदिर में विराजमान हो जाओ ? कैसे तुम्हारा जागरण, तुम्हारी ऊर्जा, तुम्हारी चेतना मेरा भी जागरण बने, मेरी भी ऊर्जा बने, मेरी भी चेतना बने ? 
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मेरे भीतर सोया मालिक, मेरे भीतर सोया माली कैसे जगे, कि मेरी बगिया में भी फूल हों, चंपा के हो, चमेली के हों, गुलाब के हों और अंततः कमल के फूल खिलें ! यह मेरा जीवन कीचड़ ही न रह जाए। यह कीचड़ कमल में रूपांतरित होनी चाहिए। 
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और यह कमल में रूपांतरित हो सकती है। कीमिया कठिन भी नहीं है। जरा सी जीवन की समझ की बात है। बेसमझे सब व्यर्थ होता हो जाता है। और जरा सी समझ, बस जरा सी समझ–और मिट्टी सोना हो जाती है। अमी झरत, बिससत कंवल ! एक थोड़ी सी क्रांति, एक थोड़ी सी चिनगारी।
नाम बिन भाव करम नहिं छूटै॥
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उस चिनगारी का इशारा कर रहे हैं दरिया कि जब तक तुम्हारा कर्ता का भाव न छूट जाए तब तक तुम परमात्मा को स्मरण न कर सकोगे; या परमात्मा का स्मरण कर लो तो कर्ता का भाव छूट जाए। कर्ता के भाव में ही हमारा अहंकार है। कर्ता का भाव ही हमारे अहंकार का शरण स्थल है–यह करूं वह करूं, यह कर लिया वह कर लिया, यह करना है वह करना है। 
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कृत्य के पीछे ही कृत्य के धुएं में छिपा है तुम्हारा दुश्मन। और अगर इस अहंकार के कारण ही तुमने मंदिर में पूजा की और मस्जिद में नमाज पढ़ी और गिरजे में घुटने टेके, सब व्यर्थ हो जाएगा, क्योंकि वह अहंकार इन प्रार्थनाओं से भी पुष्ट होगा। क्योंकि ये प्रार्थनाएं भी उसी मूल भित्ति को सम्हाल देंगी, नयी-नयी ईंटें चुन देंगी–मैं कर रहा हूं !
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प्रार्थना की नहीं जाती, प्रार्थना होती है–वैसे ही जैसे प्रेम होता है। प्रेम कोई करता है, कर सकता है ? कोई तुम्हें आज्ञा दे कि करो प्रेम, जैसे सैनिकों को आज्ञा दी जाती है बाएं घूम दाएं, घूम, ऐसे आज्ञा दे दी जाए करो प्रेम। दाएं-बाएं घूमना हो जाएगा, देह की क्रियाएं हैं; अगर प्रेम ? प्रेम तो कोई क्रिया ही नहीं है, कृत्य ही नहीं है। 
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प्रेम तो भेंट है विराट की ओर से। प्रेम तो अनंत की ओर से भेंट है। उन्हें मिलती है जो अपने हृदय के द्वार को खोलकर प्रतीक्षा करते हैं। प्रेम तो वर्षा है। अमी झरत ! यह तो ऊपर से गिरता है आकाश से इसलिए इशारा है। एक कि अमृत तो आकाश से झरता है और कंवल जमीन पर खिलाता है। आकाश से परमात्मा उतरता है और भक्त पृथ्वी पर खिलता है। 
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भक्त के हाथ में नहीं है कि अमृत कैसे झरे, लेकिन भक्त अपने पात्र को तो फैलाकर बैठ सकता है ! भक्त बाधाएं तो दूर कर सकता है ! पात्र ढक्कन से ढका रहे, अमृत बरसता है, तो भी पात्र खाली रह जाएगा। पात्र उल्टा रखा हो, तो भी पात्र खाली रह जाएगा। पात्र फूटा हो तो भरता-भरता लगेगा और भर नहीं पाएगा। कि पात्र गंदा हो, जहर से भरा हो, कि अमृत उसमें पड़े भी तो जहर में खो जाए। पात्र को शुद्ध होना चाहिए, जहर से खाली।
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और ज्ञान पांडित्य–जहर है। जितना तुम जानते हो उतने ही बड़े तुम अज्ञानी हो। क्योंकि जानने से भी तुम्हारा अहंकार प्रबल हो रहा है कि मैं जानता हूं ! जितने शास्त्र तुम्हारे पात्र में हों उतना ही जहर है। पात्र खाली करो। पात्र बेशर्त खाली करी। क्योंकि उस खाली शून्यता में ही निर्दोषता होती है, पवित्रता होती है~ओशो

= १५७ =

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*दादू संगी सोई कीजिये, जे कलि अजरावर होइ ।*
*ना वह मरै, न बीछूटै, ना दुख व्यापै कोइ ॥२॥*
*साभार ~ @Ramavtar Sharma*
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🪺🧘‍♂️_॥ श्रीहरि: ॥_ 🧘‍♂️🪺
दिनांक 22.2.2025. शनिवार
परम श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का प्रवचन
दिनांक— 23.5.1994, प्रातः 5.18 बजे। स्थान— गीताभवन, ऋषिकेश
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⚜️ एक साधन तो ऊपर से भरा जाता है और एक साधन करने की भीतर से रुचि पैदा होती है; भीतर के साधन से मनुष्य की पारमार्थिक उन्नति बहुत जल्दी होती है। जीव मात्र की किसी- न- किसी का सहारा, आश्रय लेने की स्वाभाविक ही प्रवृत्ति रहती है; जीवात्मा प्रकृति से संबंध जोड़कर नाशवान् प्राणी- पदार्थों का आश्रय लेता है, जो कि टिकने वाला नहीं है। जीवात्मा यदि भगवान् का आश्रय ले ले, तो फिर किसी दूसरे का आश्रय लेना ही नहीं पड़े। आश्रय नित्य का लेना चाहिए, जो कभी छूटे नहीं।
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काठ की ओट से काठ बचे नहीं,
आग लगे तब दोनों को जारे।
स्याल की ओट से स्याल बचे नहीं,
सिंह पड़े जब दोनों को फाड़े।।
मूसा की ओट से मूसा बचे नहीं,
बिल्ली पड़े जब दोनों को मारे।
आन की ओट से जीव बचे नहीं,
रज्जब वेद- पुराण पुकारे॥
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जब तक मनुष्य भगवान् के अलावा अन्य का सहारा लेता है, तब तक इसके वे सहारे टिकते नहीं हैं। जो दुःख अभी आया नहीं है, भविष्य में आने वाला है, उस वृद्धावस्था और मृत्यु रूपी दुःख से छूटने का उपाय मनुष्यों को करना चाहिए।मनुष्य यदि अपने स्वभाव के अनुरूप साधन करे तो उसकी पारमार्थिक उन्नति बहुत जल्दी हो सकती है। जिनकी प्रवृत्ति किसी का आश्रय लेने की है, उनके लिए भक्ति मार्ग, शरणागति बढ़िया उपाय है और जिनका स्वभाव स्वतंत्र रहने का है, उनके लिए ज्ञान मार्ग बढ़िया है।
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⚜️ शरीर की मुख्यता से जो साधन किया जाता है, वह साधन बड़ा ऊंचा होगा, ऐसी बात नहीं है; क्योंकि न तो शरीर निरन्तर रहने वाला है, ना ही शरीर की क्रिया निरन्तर रहने वाली है। जिस साधन में स्वयं की मुख्यता रहती है, वह साधन श्रेष्ठ होता है और शीघ्र परमात्मप्राप्ति कराने वाला होता है।
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⚜️ ज्ञान मार्ग में निर्विकारता मुख्य है और भक्ति मार्ग में एक भगवान् के आश्रय की मुख्यता है। इसमें एक मार्मिक बात है कि ज्ञानयोगी अपने को स्वतंत्र मानता है, लेकिन उसके ऊपर अपनी पूरी जिम्मेदारी रहती है, जबकि भक्तियोग में भक्त भगवान् के आश्रित रहता है, उसकी भगवान् की पराधीनता परम आनन्द देने वाली, निर्भयता देने वाली होती है; पराधीनता द्वितीय (अर्थात् पराये) की दुःखदायी होती है, अपनों की नहीं।
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⚜️ भगवान् ने अपनी शरणागति को बहुत श्रेष्ठ और गोपनीय बताया है।
एक भरोसो एक बल एक आस बिस्वास।
एक राम घन स्याम हित चातक तुलसीदास॥
अनुभवी महापुरुष जो धन, मान, बड़ाई आदि कुछ भी नहीं चाहते हैं, उनके हृदय में स्वाभाविक ही जीवों के प्रति दया रहती है और उनकी वाणी से स्वाभाविक ही जीवों का कल्याण होता है; वे चाहे गीता के अनुसार लिखें, चाहे अपने अनुभव के अनुसार लिखें। जो भक्त अपना कल्याण चाहते हैं, उनपर भगवान् कृपा करते ही हैं। गीताजी में भक्ति की बात विशेषता से आई है; अपना कोई आग्रह नहीं रखकर गीताजी का गहन अध्ययन किया जाय तो गीताजी का मूल सिद्धान्त भक्तियोग मालूम देता है। गीताजी के अनुसार ज्ञानयोग और कर्मयोग साधन हैं और भक्तियोग साध्य है।

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2025

*४४. रस कौ अंग ११३/११६*

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*४४. रस कौ अंग ११३/११६*
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इस मारग मंहिं आइ करि, काहे अटकै बीच ।
जगजीवन तहँ पहुँचिये, रोम रोम रस सींच ॥११३॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि हे जीवात्मा प्रभु के मार्ग में आकर फिर बीच में क्यों रुकते हो जहाँ वास्तविक विश्राम है प्रभु शरण वहां ही पहुंचो । और अपने हर रोम में राम रस सिंचित कर लीजिये ।
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निरमल कीजै आरती, रांम नांम ल्यौ लाइ ।
तौ जगजीवन प्रेम रस, पीवै प्रांण अघाइ ॥११४॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि शुद्ध मन से प्रभु की आरती करें । और राम नाम की लिव लगा लें । तब ये प्राण भरपूर जी भर कर प्रेमरस का पान करेंगे ।
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जब लग जीवन जीव७ है, तब लग पीस्यां८ प्रेम ।
जगजीवन हारी भजन सौं, हियड़ा होसी हेम९ ॥११५॥
७. जीवन जीव=प्राणियों में प्राण । ८. पीस्यां=पीवेंगे । ९. हेम=सुवर्ण ।
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जब तक शरीर में प्राण हैं तब तक प्रेम पान करेंगे । इस प्रकार हरि भजन से ह्रदय स्वर्ण जैसा मूल्यवान हो जायेगा निर्मल शुद्ध हो जायेगा ।
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आदि देव अमर स्थान, अलख लखिआनंद कृतं ।
कहि जगजीवन निरख नूर१०, जागि जन अम्रित क्रितं ॥११६॥
१०. नूर=तेज ।
संत जगजीवन जी कहते हैं कि दादूजी महाराज ही हमारे आदि देव हैं जो अमर स्थान पर विराजते हैं । उनको देखने मात्र से ही जीव अमृत प्राप्ति सा अनुभव करता है ।
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सांठो११ हरि मंहि रस रहै, मीठौ लागै मांहि ।
कहि जगजीवन परमारथ करि, कोइ दुख व्यापै नांहि ॥११७॥
११. सांठो=इक्षु (ईख) ।
संत जगजीवन जी कहते हैं कि सद्गुण ईख के रस जैसे मीठे लगते हैं । ऐसे ही जो दूसरों की भलाई करते हैं उन्हें कोइ दुख नहीं व्यापता है ।
इति रस का अंग संपूर्ण ॥४४॥ 
(क्रमशः)

*धूंधलीमलजी की शब्दी*

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*निगुणा गुण मानै नहीं, कोटि करै जे कोइ ।*
*दादू सब कुछ सौंपिये, सो फिर बैरी होइ ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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धूंधलीनाथजी की समाधि खुल गई । एक दिन धूंधलीनाथजी ने देखा कि मेरा शिष्य भिक्षा लेकर आ रहा है किन्तु उसके पैर पृथ्वी से ऊपर हैं अधर ही चला आ रहा है । उन्होंने समझा यह भिक्षा माँगकर खाने और मेरी सेवा का फल इ२ सको प्राप्त हुआ है । अतः कल भिक्षा लाने में ही जाऊँगा । दूसरे दिन धूंधलीजी भिक्षा लाने गये, किन्तु किसी ने भी भिक्षा नहीं दी । उनके साथ लोगों ने जैसे वचनों का व्यवहार किया सो घूंधलीनाथजी की शब्दियों द्वारा ही देखिये -
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*धूंधलीमलजी की शब्दी*
ग्राम के लोगों ने कहा- "आयस१जी जाओ" ॥१॥
नाथजी बोले-
"बाबा आवत जावत बहुत जगदीठा, कछू न चढ़िया३ हाथ" ।
अब का आवण सफल सु फलिया, पाया निरंजन नाथं ॥१॥
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ग्राम के लोगों ने कहा- "आयसजी जाओ" ॥२॥
नाथजी बोले-
"बाबा जे जाया ते जाय रहेगा, ता मैं कैसा संसा" ।
विछुरत वेला४ मरण दुहेला५, ना जाणों कत हंसा ॥२॥
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अन्य स्थान पर जाने से लोगों ने कहा- "आयसजी बैठो" ॥३॥
नाथजी बोले-
"बाबा बैठा ऊठी ऊठा बैठी, बैठ उठ जगदीठा" ।
घर घर रावल६ भिक्षा माँगे, इक महा अमीरस मीठा" ॥३॥
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लोगों ने कहा- "आयसजी ऊभा" ॥४॥
नाथजी बोले-
"बाबा जे ऊभा ते इकटग ऊभा, शंभु समाधि लगाई ।"
उभा रहे ही कौण फायदा, जे मन भरमे जग मांही" ॥४॥
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लोगों ने कहा- "आयसजी आडा पड़ो ॥५॥"
नाथजी बोले-
"बाबा जे आड़ा ते गहि गुण गाढ़ा, नौ दरवाजा ताली७ ।"
योग युगति करि सन्मुख लागा, पंच पचीसों बाली८ ॥५॥
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लोगों ने कहा- "आयसजी सोवो" ॥६॥
नाथजी बोले-
"बाबा जे सूता ते खरा विगूता९, जन्म गया अरु हार्यो" ।
काया हिरणी काल अहेड़ी, हम देखत जग मार्यो" ॥६॥
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लोगों ने कहा- "आयसजी जागो" ॥७॥
नाथजी बोले-
"बाबा जे जाग्या ते युग युग जाग्या, कह्या सुन्या है कैसा ।
गगन मंडल में ताली१० लागी, योग पंथ है ऐसा" ॥७॥
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लोगों ने कहा- "आयस जी मरो" ॥८॥
नाथजी बोले-
"बाबा हम भी मरणा, तुम भी मरणा, मरणा सब संसारं ।
सुर नर गण गन्धर्व भी मरणा, कोई विरला उतरे पारं" ॥८॥
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लोगों ने कहा- "आयसजी जीवो" ॥९॥
नाथजी बोले-
"बाबा जे जीया ते मित ही जीया, मार्या ते सब मूवा ।
योग युगति करि पवना साध्या, सो अजरामर हूवा" ॥९॥
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लोगों ने कहा- "आयसी ठगो" ॥१०॥
नाथजी बोले-
"बाबा जे ठगिया ते तो मन बैठा, अरु ठगिया यम कालं ।
हम तो योगी निरन्तर रहिया, तजिया माया जालं ॥१०॥
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लोगों ने कहा- "आयसजी फेरी द्यौ" ॥११॥
नाथजी बोले-
"बाबा जे फेरै तो मन को फेरै, दश दरवाजा घेरै ।
अर्धउर्ध११ बिच ताली लावै, तो अठ-सिधि नौ निधि नेरै" ॥११॥
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लोगों ने कहा- "आयसजी धन्धे लागो" ॥१२॥
नाथजी बोले-
"बाबा गोरख धन्धे१२ अहनिश इक मन, योग युगति सौं जागे ।
काल व्याल का भय हम देख्या, नाथ निरंजन लागे" ॥१२॥
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लोगों ने कहा- "आयसजी देखो" ॥१३॥
नाथजी बोले-
"बाबा यहाँ भी दीठा वहाँ भी दीठा, दीठा सकल संसारम् ।
उलट पलट निज तत्त्व चीन्हिवा, मन से करिवा विचारम्" ॥१३॥
"जैसा करै सु पावै तैसा, रोस न कोई करणा ।
सिद्ध शब्दे को बूझै१४ नांहीं, तो बिन ही खूटी१५ मरणा" ॥१४॥
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१. आयसजी=आदेश या नाथजी । २. दीठा=देखा । ३. चढ़िया=आया । ४. वेला=समय ।
५. दुहेला=कठिन । ६. रावल=राजा । ७. ताली=बन्द करके । ८. बाली=वृत्तियाँ रूप बालिकायें । ९. विगूता=नष्ट । १०. ताली=समाधि । ११. अर्धउर्द्ध=हृदय में । ताली=वृत्ति को रोके । १२. गोरख धन्धा=इन्द्रियों को जीतने का काम । १३. चीन्हिवा=जाना । १४. बूझे=समझे । खूटी=आयु व्यतीत हुए बिना ही ।
(क्रमशः)

सोमवार, 17 फ़रवरी 2025

गुरु-वाक्य में विश्वास

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*दादू जीव जंजालों पड़ गया, उलझ्या नौ मण सूत ।*
*कोई इक सुलझे सावधान, गुरु बाइक अवधूत ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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श्रीरामकृष्ण का फोटो लिया जा रहा है, उसी समय वे समाधिमग्न हो गये ।
अब श्रीरामकृष्ण राजेन्द्र मित्र के मकान पर आये हैं । राजेन्द्र रिटायर्ड डिप्टी मैजिस्ट्रेट हैं ।
श्री महेन्द्र गोस्वामी आँगन में भागवत का प्रवचन कर रहे हैं । अनेक भक्तगण उपस्थित हैं - केशव अभी तक नहीं आये । श्रीरामकृष्ण बातचीत कर रहे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - (भक्तों के प्रति ) - गृहस्थी में धर्म होगा क्यों नहीं ? परन्तु है बड़ा कठिन । आज बागबाजार के पुल पर से होकर आया । कितने संकलों से उसे बाँधा है ! एक संकल के टूटने से भी पुल का कुछ न होगा, क्योंकि वह और भी अनेक संकलों से बँधा हुआ है । वे सब उसे खींचे रहेंगे । उसी प्रकार गृहस्थों के अनेक बन्धन हैं, ईश्वर की कृपा के बिना उन बन्धनों के कटने का उपाय नहीं है ।
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“उनका दर्शन होने पर फिर कोई भय नहीं है । उनकी माया में विद्या और अविद्या दोनों ही हैं; पर दर्शन के बाद मनुष्य निर्लिप्त हो जाता है । परमहंस-स्थिति प्राप्त होने पर यह बात ठीक तरह से समझ में आती है । दूध में जल है, हंस दूध लेकर जल को छोड़ देता है, पर केवल हंस ही ऐसा कर सकता है, बतख नहीं ।”
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एक भक्त - फिर गृहस्थ के लिए क्या उपाय है ?
श्रीरामकृष्ण – गुरु-वाक्य में विश्वास । उनकी वाणी का सहारा लेकर, उनका वाक्यरूपी खम्भा पकड़कर घूमो, गृहस्थी का काम करो ।
“गुरु को मनुष्य नहीं मानना चाहिए । सच्चिदानन्द ही गुरु के रूप में आते हैं । गुरु की कृपा से इष्ट का दर्शन होता है । उस समय गुरु इष्ट में लीन हो जाते हैं ।
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"सरल विश्वास से क्या नहीं हो सकता ? एक समय किसी गुरु के यहाँ अन्नप्राशन हो रहा था । उस अवसर पर शिष्यगण, जिससे जैसा बना, उत्सव का आयोजन कर रहे थे । उनमें एक दीन विधवा भी शिष्या थी । उसके एक गाय थी । वह एक लोटा दूध लेकर आयी । गुरुजी ने सोचा था कि दूध-दही का भार वही लेगी, किन्तु एक लोटा दूध देखकर क्रोधित हो उन्होंने उस लोटे को फेंक दिया और कहा, 'तू जल में डूबकर मर क्यों नहीं गयी ?' स्त्री ने गुरु का यही आदेश समझा और नदी में डूबने के लिए गयी ।
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उस समय नारायण ने दर्शन दिया और प्रसन्न होकर कहा, 'इस बर्तन में दही है, जितना निकालोगी उतना ही निकलता जायगा । इससे गुरु सन्तुष्ट होंगे ।' वह बर्तन जब गुरु को दिया गया तो वे दंग रह गये और सारी कहानी सुनकर नदी के किनारे पर आकर उस स्त्री से बोले - 'यदि मुझे नारायण का दर्शन न कराओगी तो मैं इसी जल में कूदकर प्राण छोड़ दूँगा ।'
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नारायण प्रकट हुए, परन्तु गुरु उन्हें न देख सके । तब स्त्री ने कहा, 'प्रभो, गुरुदेव को यदि दर्शन न दोगे और यदि उनकी मृत्यु हो जायगी तो मै भी शरीर छोड़ दूँगी ।' फिर नारायण ने एक बार गुरु को भी दर्शन दिया ।
"देखो, गुरु-भक्ति रहने से अपने को भी दर्शन हुआ, फिर गुरुदेव को भी हुआ ।
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"इसलिए कहता हूँ – ‘यदि मेरे गुरु शराबखाने में भी जाते हों तो भी मेरे गुरु नित्यानन्द राय हैं ।'
“सभी गुरु बनना चाहते हैं । चेला बनना कदाचित् ही कोई चाहता है । परन्तु देखो, ऊँची जमीन में वर्षा का जल नहीं जमता, वह तो नीची जमीन में - गढ़े में ही जमता है ।
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"गुरु जो नाम दें, विश्वास करके उस नाम को लेकर साधनभजन करना चाहिए ।
"जिस सीप में मुक्ता तैयार होता है, वह सीप स्वाति नक्षत्र का जल लेने के लिए तैयार रहती है । उसमें वह जल गिर जाने पर फिर एकदम अथाह जल में डूब जाती है, और वहीं चुपचाप पड़ी रहती है । तभी मोती बनता है ।"
(क्रमशः)

साँच चाणक को अंग १४

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*कामधेनु घट घीव है, दिन दिन दुर्बल होइ ।*
*गौरू ज्ञान न ऊपजै, मथि नहिं खाया सोइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक को अंग १४
तेल को कूंपो न तेल सौं कोमल,
नीकी नरम्म ह्वै और अधौरी ।
गाय के दूध महाबलि बाछरो,
गाय गई अपने बल बौरी ॥
मणि सौं विष और मनुष्य को उतरे,
सर्प समीप सदा इक ठौरी ।
हो रज्जब सु:ख सदा श्रोता वक्ता के,
विनाश कदे नहिं त्यौरी ॥८॥
तेल का कुप्पा(ऊंट की चर्म से बना पात्र) तेल से कोमल नहीं होता किंतु दूसरी चर्म१ भली प्रकार कोमल हो जाती है ।
गाय के दूध से उसका बछड़ा महाबली हो जाता है किंतु गाय अपने बल को खो देती है अर्थात कमजोर हो जाती है ।
सर्प की मणि से अन्य मनुष्य का सर्प विष उतर जाता है किंतु सर्प के पास वह सदा रहती है और विष तथा मणि एक ही स्थान पर रहत है किंतु सर्प विष नष्ट नहीं होता ।
वैसे ही सज्जनों ! श्रोता को तो सुनने में सदा सुख होता है किंतु वक्ता की वह ज्ञान दृष्टि वक्ता के दु:ख को कभी नष्ट नहीं करती है ।
(क्रमशः)

*वियोगानन्तर संयोग*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*प्रेम लहर की पालकी, आतम बैसे आइ ।*
*दादू खेलै पीव सौं, यहु सुख कह्या न जाइ ॥*
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*वियोगानन्तर संयोग*
॥साषी लापचारी की॥१ (इसका अर्थ ‘भेष बिन साध कौ अंग’ में देखें ।)
अब मेरे नैंन सीतल भये ।
निरमल बदन निहारत हरि कौ, पाप पुरातन दूरि गये ॥टेक॥
महलि सहेली मंगल गावै, परफूलित अति कवल बिगास ।
अब ऊणारति रही न कोई, मन का मनोरथ पुरवन आस ॥
आनँद आज भयौ मन मेरे, आनँद की निधि नैंनौं जोइ ।
घरि आनँद बाहरि परि आनँद, आनँद आनँद चहुँ दिसि होइ ॥
मेरै रली बधाई मेरै, मेरै प्रीतम संगि सनेह ।
दरसन परि बषनौं बलिहारी, जाणिक दूधाँ बूठौ मेह ॥३६॥
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लापचारी = इसका शाब्दिक सही अर्थ क्या है, हमारी जानकारी में नहीं है किन्तु गायक किसी पद को गाने के पूर्व पद की विषयवस्तु से साम्य रखने वाली कोई साखी, दोहा, श्लोक आदि बोला करते हैं । संभवतः पूर्वपीठिका, पुरोवाक्, प्रस्तावना ही लापचारी शब्द का प्रसंगतः अर्थ सही हो । पुरातन = संचितकर्मों का नाश हो गया । प्रारब्धकर्मों का नाश भोग से तथा संचितकर्मों का नाश भगवन्नामजप, भगवद्दर्शन से ठीक उसी प्रकार हो जाता है जैसे अग्नि की चिनगी पड़ने पर घास का नाश हो जाता है । ‘क्रीयमाण करिये नहीं, प्रारब्ध कर्म ले भोग । संचित ऊपर भजन करि, यौं छूटै भव रोग ।’ श्रीरामजन वीतराग वाणी ॥ कवल = कमल । ऊणारति = कमी । पुरवन = पूरी करने के लिये । बूठौ = वर्षा हुई ॥
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परमप्रियतम के मिल जाने पर अब मेरा रोना-धोना बंद हो गया है जिससे मेरे नेत्र शीतल हो गये हैं । प्रियतम के निर्मल मुखकमल को देखते ही मेरे समस्त संचितकर्मों का नाश हो गया है ।
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शरीर रूपी महल में निवास करने वाली सभी इन्द्रियाँ रूपी सखियाँ आनंदित हुई मंगलाचार करने लगी हैं और हृदय = अंतःकरण आनन्दमग्न हो गया है । अब कोई भी किसी भी प्रकार की कमी शेष नहीं रह गई है क्योंकि मन के मनोरथों को पूर्ण करने वाले परमप्रियतम का मुझे साक्षात्कार हो जो गया है ।
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आनंद की निधि = परमावधि रूप प्रियतम को नेत्रों द्वारा निहारकर आज मेरा मन आनंद में निमग्न हो गया है मेरे मन में परम आनंद हुआ है । शरीरस्थ हृदय में आनंद है । शरीर के बाहर = व्यवहार पक्ष में परमानंद का अनुभव हो रहा है । चारों ओर आनंद ही आनंद है । चारों अन्तःकरणों में आनंद ही आनंद हो गया है । वस्तुतः जब तक अंतःकरण रहता है तब तक ही अनानंद की स्थिति रहती है । जैसे ही यह परमात्मामय होता है, वैसे ही अखण्डानंद की स्थिति का प्राकट्य हो जाता है ।
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मुझे परमात्मा की प्राप्ति हो गयी है । मेरे बधाई = आनंद का संचार हो गया है । मेरे चित्त में प्रियतम के प्रति अनन्यप्रीति का संचार हो गया है । परमात्मा के दर्शन पर बषनां न्यौछावर होता है क्योंकि अब ऐसा लग रहा है मानों वर्षा जल की न होकर दूध की हो रही है ॥३६॥
(क्रमशः)

*४४. रस कौ अंग १०९/११२*

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*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४४. रस कौ अंग १०९/११२*
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खिजमत१ कीजै खसम की१, तन मन सौंपी सरीर ।
जगजीवन तौ२ पीजिये, हरि जल अम्रित नीर ॥१०९॥
१-१. खिजमत कीजै खसम की=पति की सेवा करे । २. तौ=तब ।
संत जगजीवन जी कह रहैं है कि अपने प्रभु रुपी पति की सेवा तन मन व देह अर्पण कर करें । तभी तुम्हें परमात्मा की कृपा रुपी अमृतजल पान करने को मिलेगा ।
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हरि रस भीजै आतमा, झिलै प्रेम रस दास ।
जगजीवन बरिषै घटा, मिटै जनम की प्यास ॥११०॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि हरि कृपा रुपी रस में आत्मा आनंदित है । जिससे प्रभु भक्त सिक्त हो रहे है । ऐसी वर्षा का आनंद अनुभव हो रहा है कि जन्म जन्म की प्यास मिट रही है ।
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मालिक३ मीत४ पिछांणि ले, अल्लह एक अजीज५ ।
कहि जगजीवन चेति चित्त, चाखै अम्रित चीज६ ॥१११॥
३. मालिक=स्वामी । ४. मीत=मित्र(सहायक) । ५. अजीज=प्रिय ।
६. चीज=पदार्थ ।
संत जगजीवन जी कहते हैं कि अपने मालिक और मित्र की पहचान कर ले वह ही सबका प्रिय अल्लाह है । जो चित से जागृत हैं वे ही अमृत पदार्थ पाते हैं ।
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गुणै न रीझै निरगुणी, रीझै सौ रस राखि ।
जगजीवन प्रहरी बिषै, चरन कंवल रस चाखि ॥११२॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जो निर्गुणी है वह किसी भी गुण को नहीं मानता न आकर्षित होता है । उनके चाहे विषयों के कितने ही पहरे हो वे चरण कमलों का आनंद लेते ही है ।
(क्रमशः)

*धूंधलीनाथजी पद्य टीका*

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*सांई सौं साचा रहै, सतगुरु सौं सूरा ।*
*साधू सौं सनमुख रहै, सो दादू पूरा ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*धूंधलीनाथजी पद्य टीका*
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*इन्दव-*
*द्वादश वर्ष हि नेम लियो गुरु,*
*गांव सु पट्टण पास रहाई ।*
*ग्राम गयो शिष भीख न पावत,*
*एक कुम्हारि उपाय बताई ॥*
*मो सुत साथहिं इन्धन लाकर,*
*पीसन पोवन की मम आई ।*
*आवत शिष्य जु पाँव नहीं धर,*
*बूझ गये गुरु भीख न पाई ॥४२६॥*
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गुरु धूंधलीनाथजी ने अपने शिष्य को कहा- मैने इस पट्टण नगर के पास के इस पर्वत के इस आश्रम में १२ वर्ष समाधि में रहने का नियम लिया है । तुम मेरे पास ही रहना । फिर गुरुजी ने समाधि लगा ली ।
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शिष्य ग्राम में भिक्षा लाने गया किन्तु वहाँ भिक्षा नहीं मिली । एक कुम्हारी ने कुछ दिन भिक्षा देकर कहा- "सदा के लिये भोजन की व्यवस्था का उपाय बताती हूँ- आप मेरे पुत्र के साथ जाकर इस पर्वत के वन से सूखा काष्ठ लाकर ग्राम में बेच के अन्न ला दिया करो । उसके पीसने और रोटी बना कर देने की सेवा मेरे हिस्से में आई अर्थात् वह सब मैं करूँगी ।" नाथ ने वैसा ही किया १२ वर्ष पूरे हो गये ।
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धूंधलीनाथजी की समाधि खुल गई । एक दिन धूंधलीनाथजी ने देखा कि मेरा शिष्य भिक्षा लेकर आ रहा है किन्तु उसके पैर पृथ्वी से ऊपर हैं अधर ही चला आ रहा है । उन्होंने समझा यह भिक्षा माँगकर खाने और मेरी सेवा का फल इ२ सको प्राप्त हुआ है । अतः कल भिक्षा लाने में ही जाऊँगा । दूसरे दिन धूंधलीजी भिक्षा लाने गये, किन्तु किसी ने भी भिक्षा नहीं दी । उनके साथ लोगों ने जैसे वचनों का व्यवहार किया सो घूंधलीनाथजी की शब्दियों द्वारा हो देखिये-
(क्रमशः)

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2025

= १५६ =

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*सहज शून्य मन राखिये, इन दोन्यों के मांहि ।*
*लै समाधि रस पीजिये, तहाँ काल भय नांहि ॥*
*साभार ~ @Subhash Jain*
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*सूर्य ऊर्जा और चंद्र ऊर्जा*
तुमने कभी गौर किया, बाएं हाथ का उपयोग करने वाले लोगों को दबा दिया जाता है ! अगर कोई बच्चा बाएं हाथ से लिखता है, तो तुरंत पूरा समाज उसके खिलाफ हो जाता है माता पिता, सगे संबंधी, परिचित, अध्यापक सभी लोग एकदम उस बच्चे के खिलाफ हो जाते हैं। पूरा समाज उसे दाएं हाथ से लिखने को विवश करता है। दायां हाथ सही है और बायां हाथ गलत है।
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कारण क्या है ? ऐसा क्यों है कि दायां हाथ सही है और बायां हाथ गलत है ? बाएं हाथ में ऐसी कौन सी बुराई है, ऐसी कौन सी खराबी है ? और दुनिया में दस प्रतिशत लोग बाएं हाथ से काम करते हैं। दस प्रतिशत कोई छोटा वर्ग नहीं है। दस में से एक व्यक्ति ऐसा होता ही है जो बाएं हाथ से कार्य करता है। शायद चेतनरूप से उसे इसका पता भी नहीं होता हो, वह भूल ही गया हो इस बारे में, क्योंकि शुरू से ही समाज, घर परिवार, माता पिता बाएं हाथ से कार्य करने वालों को दाएं हाथ से कार्य करने के लिए मजबूर कर देते हैं। ऐसा क्यों है ?
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दायां हाथ सूर्यकेंद्र से, भीतर के पुरुष से जुड़ा हुआ है। बाया हाथ चंद्रकेंद्र से भीतर की स्त्री से जुड़ा हुआ है। और पूरा का पूरा समाज पुरुष केंद्रित है। हमारा बायां नासापुट चंद्रकेंद्र से जुड़ा हुआ है। और दायां नासापुट सूर्यकेंद्र से जुड़ा हुआ है। तुम इसे आजमा कर भी देख सकते हो।
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जब कभी बहुत गर्मी लगे तो अपना दायां नासापुट बंद कर लेना और बाएं से श्वास लेना और दस मिनट के भीतर ही तुमको ऐसा लगेगा कि कोई अनजानी शीतलता तुम्हें महसूस होगी। तुम इसे प्रयोग करके देख सकते हो, यह बहुत ही आसान है। या फिर तुम ठंड से कांप रहे हो और बहुत सर्दी लग रही है, तो अपना बायां नासापुट बंद कर लेना, और दाएं से श्वास लेना; दस मिनट के भीतर तुम्हें पसीना आने लगेगा।
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योग ने यह बात समझ ली और योगी कहते हैं और योगी ऐसा करते भी हैं प्रात: उठकर वे कभी दाएं नासापुट से श्वास नहीं लेते। क्योंकि अगर दाएं नासापुट से श्वास ली जाए, तो अधिक संभावना इसी बात की है कि दिन में व्यक्ति क्रोधित रहेगा, लड़ेगा झगड़ेगा, आक्रामक रहेगा शांत और थिर नहीं रह सकेगा। 
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इसलिए योग के अनुशासन में यह भी एक अनुशासन है कि सुबह उठते ही सबसे पहले व्यक्ति को यह देखना होता है कि उसका कौन सा नासापुट क्रियाशील है। अगर बायां क्रियाशील है तो ठीक है, वही ठीक क्षण होता है बिस्तर से बाहर आने का। अगर बायां नासापुट क्रियाशील नहीं है तो अपना दायां नासापुट बंद करना और बाएं से श्वास लेना। धीरे धीरे जब बायां नासापुट क्रियाशील हो जाए, तभी बिस्तर से बाहर पांव रखना।
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हमेशा सुबह उसी समय बिस्तर से बाहर आना जब बायां नासापुट क्रियाशील हो, और तब तुम पाओगे कि तुम्हारी पूरी की पूरी दिनचर्या में अंतर आ गया है। तुम कम क्रोधित होगे, चिड़चिडाहट कम होगी और अधिकाधिक शांत, थिर और ठंडे अनुभव करोगे। ध्यान में अधिक गहरे जा सकोगे। अगर लड़ना झगड़ना चाहते हो, तो उसके लिए दायां नासापुट अच्छा है। अगर प्रेमपूर्ण होना चाहते हो, तो उसके लिए बायां नासापुट एकदम ठीक है।
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और हमारी श्वास हर क्षण, हर पल बदलती रहती है। तुमने शायद कभी ध्यान नहीं दिया होगा, लेकिन इस पर ध्यान देना। आधुनिक चिकित्साशास्त्र को इसे समझना होगा, क्योंकि रोगी के इलाज में इसका प्रयोग बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है। 
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ऐसे बहुत से रोग हैं, ऐसी बहुत सी बीमारियां हैं, जिनके ठीक होने में चंद्र की मदद मिल सकती है। और ऐसे रोग भी हैं जिनके ठीक होने में सूर्य से मदद मिल सकती है। अगर इस बारे में ठीक ठीक मालूम हो, तो श्वास का उपयोग व्यक्ति. के इलाज के लिए किया जा सकता है। लेकिन आधुनिक चिकित्साशास्त्र की अभी तक इस तथ्य से पहचान नहीं हुई है।
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श्वास निरंतर परिवर्तित होती रहती है. चालीस मिनट तक एक नासापुट क्रियाशील रहता है, फिर चालीस मिनट दूसरा नासापुट क्रियाशील रहता है। भीतर सूर्य और चंद्र निरंतर बदलते रहते हैं। हमारा पेंडुलम सूर्य से चंद्र की ओर, चंद्र से सूर्य की ओर आताजाता रहता है। इसीलिए हमारी भावदशा अकसर ही बदलती रहती है। कई बार अकस्मात चिडचिडाहट होती है बिना किसी कारण के, अकारण ही। बात कुछ भी नहीं है, सभी कुछ वैसा का वैसा है, उसी कमरे में बैठे हो कुछ भी नहीं हुआ है अचानक चिड़चिड़ाहट आने लगती है।
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थोड़ा ध्यान देना। अपने हाथ को अपने नाक के निकट ले आना और उसे अनुभव करना. तुम्हारी श्वास बायीं ओर से दायीं ओर चली गयी होगी। अभी थोड़ी देर पहले तो सभी कुछ ठीक था, और क्षण भर के बाद ही सभी कुछ बदल गया, कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा। बस, लड़ने को, झगड़ने को और कुछ भी करने के लिए तैयार हो।
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ध्यान रहे, हमारा पूरा शरीर दो भागों में विभक्त है। हमारा मस्तिष्क भी दो मस्तिष्कों में विभाजित है। हमारे पास एक मस्तिष्क नहीं है; दो मस्तिष्क हैं, दो गोलार्ध हैं। बायीं ओर का मस्तिष्क सूर्य मस्तिष्क है, दायीं ओर का मस्तिष्क चंद्र मस्तिष्क है। तुम थोडी उलझन में पड़ सकते हो, क्योंकि ऐसे तो बायीं ओर सब कुछ चंद्र से संबंधित होता है, तो फिर दायीं ओर के मस्तिष्क का चंद्र से क्या संबंध !
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दायीं ओर का मस्तिष्क शरीर के बाएं हिस्से से जुड़ा हुआ है। बाया हाथ दायीं ओर के मस्तिष्क से जुड़ा हुआ है, दायां हाथ बायीं ओर के मस्तिष्क से जुड़ा हुआ है, यही कारण है। वे एक दूसरे से उलटे जुडे हुए हैं। दायीं ओर का मस्तिष्क कल्पना को, कविता को, प्रेम को, अंतर्बोध को जन्म देता है। मस्तिष्क का बाया हिस्सा बुद्धि को, तर्क को, दर्शन को, सिद्धांत को, विज्ञान को जन्म देता है।
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और जब तक व्यक्ति सूर्यऊर्जा और चंद्रऊर्जा के बीच संतुलन नहीं पा लेता है, अतिक्रमण संभव नहीं है। और जब तक बाया मस्तिष्क दाएं मस्तिष्क से नहीं मिल जाता है और उनमें एक सेतु निर्मित नहीं हो जाता है, तब तक सहस्रार तक पहुंचना संभव नहीं है। 
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सहस्रार तक पहुंचने के लिए दोनों ऊर्जाओं का एक हो जाना आवश्यक है, क्योंकि सहस्रार परम शिखर है, आत्यंतिक बिंदु है। वहां न तो पुरुष की तरह पहुंचा जा सकता है, न ही वहा स्त्री की तरह पहुंचा जा सकता है। वहा एकदम शुद्ध चैतन्य की तरह होकर, समग्र और संपूर्ण होकर पहुंचना संभव होता है।
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पुरुष की कामवासना सूर्यगत है, स्त्री की कामवासना चंद्रगत है। इसीलिए स्त्रियों के मासिक धर्म का चक्र अट्ठाइस दिन का होता है, क्योंकि चंद्र का मास अट्ठाइस दिन में पूरा होता है। स्त्रियां चंद्रमा से प्रभावित होती हैं चंद्र का वर्तुल अट्ठाइस दिन का होता है।
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और इसीलिए बहुत सी स्त्रिया पूर्णिमा की रात थोड़ा पागलपन का अनुभव करती हैं। जब पूर्णिमा की रात आए, तो अपनी पत्नी या अपनी प्रेयसी से सावधान रहना। वह थोड़ी परेशान और अस्तव्यस्त हो जाती है। जैसे पूर्णिमा की रात समुद्र में ज्वार भाटा आने लगता है और समुद्र प्रभावित हो जाता है, ऐसे स्त्रियां भी उत्तप्त हो जाती हैं।
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क्या तुमने कभी ध्यान दिया है ? पुरुष खुली आंखों से प्रेम करना चाहता है। केवल इतना ही नहीं, बल्कि प्रकाश भी पूरा चाहता है। अगर किसी तरह की बाधा न हो, तो पुरुष दिन में प्रेम करना पसंद करता है। और उन्होंने ऐसा करना शुरू भी कर दिया है विशेषकर अमेरिका में, क्योंकि उस तरह की बाधाएं और समस्याएं अब वहां पर समाप्त हो गयी हैं। वहा लोग रात्रि की अपेक्षा सुबह प्रेम अधिक करते हैं। 
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स्त्री अंधकार में प्रेम करना पसंद करती है, जहां थोड़ी भी रोशनी न हो और अंधेरे में भी वे अपनी आंखें बंद कर लेती हैं। चंद्रमा रात्रि में, अंधकार में चमकता है, उसे अंधकार से प्रेम है रात्रि से। इसीलिए स्त्रियां अश्लील साहित्य में उत्सुक नहीं हैं। अब नारी मुक्ति आंदोलन के कारण, कुछ पत्रिकाओं ने प्लेबाय और इसी तरह की पत्रिकाओं के साथ प्रतिस्पर्धा की शुरुआत की है इसी प्रतिस्पर्धा के कारण प्लेगर्ल पत्रिका सामने आयी है। 
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लेकिन मूल रूप से स्त्रियां अश्लील साहित्य में, अश्लील पत्रिकाओं में जरा भी उत्सुक नहीं होतीं। असल में तो स्त्रियों को यह समझ ही नहीं आता है कि आखिर पुरुष क्यों इतना अधिक नग्न स्त्रियों के चित्र देखने में उत्सुक रहता है। इस तथ्य को समझने में उन्हें कठिनाई अनुभव होती है।
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पुरुष सूर्योन्मुखी होता है, उसे प्रकाश अच्छा लगता है। आंखें सूर्य का हिस्सा हैं, इसीलिए आंखें देखने में सक्षम होती हैं। आंखों का तालमेल सूर्य ऊर्जा के साथ रहता है। तो पुरुष आंखों से, दृष्टि से अधिक जुड़ा हुआ है। इसीलिए पुरुष को देखना अच्छा लगता है और स्त्री को प्रदर्शन करना अच्छा लगता है। पुरुषों को यह समझ में ही नहीं आता है कि आखिर स्त्रियां स्वयं को इतना क्यों सजाती संवारती हैं ?
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मैंने सुना है, एक दंपति हनीमून मनाने के लिए किसी पहाड़ी स्थान पर गए। युवक बिस्तर पर लेटा हुआ पत्नी की प्रतीक्षा कर रहा था। और पत्नी थी कि अपने श्रृंगार करने में लगी हुई थी, अपने को सजाने संवारने में लगी हुई थी। उसने अपने शरीर पर पाउडर लगाया, बाल संवारे, नाखूनों पर नेल पालिश लगाई, इत्र की कुछ बूंदें कान के पीछे लगाई, बस वह अपने को सजाती ही जा रही थी।
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आखिरकार जब उस युवक से न रहा गया, तो वह बिस्तर से झटके से उठकर खड़ा हो गया। पत्नी ने पूछा, क्या बात है ? आप कहां जा रहे हो ? वह अपने सूटकेस की तरफ दौड़ा और बोला, अगर यह एक औपचारिक प्रेम ही रहने वाला है तो कम से कम मैं अपने कपड़े तो पहन लूं। स्त्रियों में प्रदर्शन की प्रवृत्ति होती है वे चाहती हैं कोई उन्हें देखे। और यह एकदम ठीक भी है, क्योंकि इसी तरह से तो पुरुष और स्त्रियां एक दूसरे के अनुकूल बैठ पाते हैं पुरुष देखना चाहता है, स्त्री दिखाना चाहती है। वे एक दूसरे के अनुरूप हैं, यह एकदम ठीक है।
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अगर स्त्रियों को प्रदर्शन में उत्सुकता न होगी, तो वे दूसरी कई मुसीबत खड़ी कर देती हैं। और अगर पुरुष स्त्री को देखने में उत्सुक नहीं है, तो फिर स्त्री किसके लिए इतना श्रृंगार करेगी, आभूषण पहनेगी, सजेगी संवरेगी आखिर किसके लिए ? फिर तो कोई भी उनकी तरफ नहीं देखेगा। प्रकृति में हर चीज एक दूसरे के अनुरूप होती है, उनमें आपस में सिन्क्रानिसिटी, लयबद्धता होती है।
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लेकिन अगर सहस्रार तक पहुंचना हो, तो द्वैत को गिराना होगा। परमात्मा तक पुरुष या स्त्री की भांति नहीं पहुंचा जा सकता है। परमात्मा तक तो सहज रूप में, शुद्ध अस्तित्व के रूप में ही पहुंचा जा सकता है, स्त्री और पुरुष के रूप में नहीं। सिर के शीर्ष भाग के नीचे की ज्योति पर संयम केंद्रित करने से समस्त सिद्धों के अस्तित्व से जुड्ने की क्षमता मिल जाती है।
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ऊर्जा को अगर ऊपर की ओर गतिमान करना है, तो इसकी विधि संयम है। पहली बात, अगर तुम पुरुष हो तो तुम्हें तुम्हारे सूर्य के प्रति तुम्हारे सूर्य ऊर्जा के केंद्र के प्रति, तुम्हारे काम केंद्र के प्रति, पूरी तरह होशपूर्ण होना होगा। तुम्हें मूलाधार में रहना होगा, अपने संपूर्ण चैतन्य को, अपनी पूरी ऊर्जा को मूलाधार पर बरसा देना होगा। जब मूलाधार पर पूरा होश आ जाता है तो तुम पाओगे कि ऊर्जा हारा केंद्र की ओर उठ रही है, चंद्र की ओर बढ़ रही है।
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और जब ऊर्जा चंद्रकेंद्र की ओर गतिमान होगी, तो तुम बहुत संतृप्ति, बहुत आनंदित अनुभव करोगे। सारी कामवासना के आनंद इसकी तुलना में कुछ भी नहीं हैं कुछ भी नहीं हैं। जब सूर्य ऊर्जा अपनी ही चंद्रऊर्जा में उतरती है, तो उस आनंद की सघनता उससे हजारों गुना अधिक होती है। तब सच में पुरुष और स्त्री का मिलन घटित होता है।
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बाहर किसी भी स्त्री से कितनी भी निकटता क्यों न हो, कितने भी करीब क्यों न हो, तुम अपने को पृथक और अलग ही अनुभव करते हो। बाहर का मिलन तो बस सतही और औपचारिक ही होता है दो सतह, दो परिधियां ही आपस में मिलती हैं। दो सतह एक दूसरे को स्पर्श करती हैं, बस इतना ही होता है। 
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लेकिन जब सूर्यऊर्जा चंद्रऊर्जा की ओर गतिमान होती है, तब दो ऊर्जा केंद्रों की ऊर्जा आपस में मिल जाती है और जिस व्यक्ति के सूर्य और चंद्र एक हो जाते हैं, वह परम रूप से आनंदित और संतृप्त हो जाता है और फिर वह हमेशा आनंदित और संतृप्त बना रहता है, क्योंकि इसको खोने का कोई उपाय ही नहीं है। यह आनंद और मिलन सनातन है।
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अगर तुम स्त्री हो तो तुम्हें अपनी संपूर्ण चेतना को हारा तक ले आना होगा, और तब तुम्हारी ऊर्जा सूर्य केंद्र की ओर बढ़ने लगेगी। प्रत्येक व्यक्ति में एक केंद्र निष्किय होता है और एक केंद्र सक्रिय होता है। सक्रिय केंद्र को निष्किय केंद्र के साथ जोड़ दो, तो निष्‍क्रिय केंद्र सक्रिय हो जाता है। और जब दोनों ऊर्जाओं का मिलन होता है जब सूर्यऊर्जा और चंद्र ऊर्जा एक हो रहे होते हैं, तो ऊर्जा ऊपर की ओर उठती है। तब व्यक्ति ऊर्ध्वगमन की ओर बढ़ने लगता है।
पतंजलि योगसूत्र~ओशो