मंगलवार, 7 मार्च 2017

= विन्दु (२)९३ =

#daduji
॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू चरितामृत(भाग-२)* 
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*= विन्दु ९३ =*
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*= सांवलदास की प्रार्थना =*
फिर हाथ जोड़कर सामने बैठे हुये सांवलदास ने प्रार्थना की - भगवन् ! निजी अनुभव का उपदेश कीजिये ? सांवलदासजी की उक्त प्रार्थना सुनकर दादूजी महाराज ने यह पद कहा -
“सुख दुःख संशय दूर किया, 
तब हम केवल राम लिया ॥ टेक ॥
सुख दुख दोऊ भरम विकारा, 
इन सौं बंध्या है जग सारा ॥ १ ॥
मेरी मेरा सुख के तांई, 
जाय जन्म नर चेते नांहीं ॥ २ ॥ 
सुख के तांई झूठा बोले, 
बाँधे बन्धन कबहूं न खोले ॥ ३ ॥
दादू सुख दुख संग न जाई, 
प्रेम प्रीति पिय सौं ल्यौ लाई ॥ ४ ॥” 
निज अनुभव युक्त उपदेश कर रहे हैं - साधन से सुख होगा वा दुख होगा, यह संशय दूर करके प्रेम पूर्वक प्रभु का भजन किया तब हमने अद्वैत राम को आत्म रूप से प्राप्त किया है । भ्रम पूर्ण विचारों के द्वारा इन दोनों सुख - दुःख आदि द्वन्द्वों से सब जगत् बंधा हुआ है । सांसारिक सुख के लिये मेरी - मेरी करते हुये जीवन नष्ट होता जा रहा है किन्तु मनुष्य कल्याणार्थ सावधान नहीं होता है । विषय सुख के लिये मिथ्या बोलता है । कर्म बन्धन बाँध रखे हैं, आत्म ज्ञान द्वारा उन्हें खोलने का प्रयत्न कभी भी नहीं करता है किंतु स्मरण रखना चाहिये, ये सुख - दुःख के साधन अनित्य हैं, साथ नहीं जायेंगे । इसलिये प्रेम - साधना का आश्रय लेकर प्रीति सहित प्रभु में वृत्ति लगाओ । यही निजी अनुभव का सार है । इसको सुनकर सांवलदासादि सभी ने मस्तक नमाते हुये कहा - भगवन् ! आपका कथन सर्वथा सत्य है, इसमें किसी भी प्रकार के संशय को अवकाश ज्ञात नहीं होता है किन्तु मोह ममतादि इसमें प्रवृत्त ही नहीं होने देते हैं । प्राणी प्रमाद के वश आप महात्माओं के उपदेशों को स्मरण नहीं रख पाता है । इससे क्लेश भी पाता है । फिर सब प्रणाम करके राजा राजमहल को तथा ग्रामवासी अपने घरों को चले गये । पांचवें दिन नारायणा नरेश नारायणसिंह भाई भीमराज तथा भोजराज आदि के साथ दादूजी महाराज के दर्शन तथा सत्संग के लिये त्रिपोलिया पर गये और दादूजी महाराज को प्रणाम सत्यराम करके सन्मुख बैठ गये । फिर अवकाश देखकर भीमराज ने कहा - स्वामीजी महाराज ! आप तो परम अनुभवी संत हैं अतः परब्रह्म स्वरूप का परिचय दीजिये ? भीमराज का प्रश्न सुनकर दादूजी बोले - 
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*= भीमराज के प्रश्न का उत्तर =* 
“थकित भयो मन कह्यो न जाई, 
सहज समाधि रह्यो ल्यौ लाई ॥ टेक ॥ 
जे कुछ कहिये सोच विचारा, 
ज्ञान अगोचर अगम अपारा ॥ १ ॥ 
साइर बूंद कैसे कर तोले, 
आप अबोल कहा कह बोले ॥ २ ॥
अनल पंखि परे पर दूर, 
ऐसे राम रह्या भरपूर ॥ ३ ॥ 
अब मन मेरा ऐसे रे भाई, 
दादू कहबा कहण न जाई ॥ ४ ॥” 
परब्रह्म संबन्धी आश्चर्य दिखा रहे हैं - हम से तो उस परब्रह्म का अन्त नहीं कहा जाता है । हमारा मन तो थक गया है । हम तो अब सहज समाधि में उसके स्वरूप में वृत्ति लगाकर के ही स्थित रहते हैं । जो भी कुछ सोच विचार करके कहते हैं, तो वह ज्ञान के द्वारा इन्द्रियों से परे और मन से अगम, अपार ही कहा जाता है । बुद्धि रूप विन्दु ब्रह्म - सागर का माप तो कैसे कर सकती हैं ? और वह स्वयं ही तो वचनातीत है, उसे क्या कहकर कहा जाय ? जैसे अनल पक्षी आकाश में रहता है किन्तु आकाश उसके माप तोल के परे ही रहता है, वह आकाश का पार नहीं पाता है, वैसे ही राम में सब सब रहते हैं और राम सबमें परिपूर्ण रूप से रहने पर भी सबसे दूर हैं, उनका पार कोई भी नहीं पाता है । हे भाई ! अब मेरे मन की तो ऐसी दशा हो रही है - वह प्रभु के स्वरूप संबन्ध में कहना चाहता है, किन्तु उससे कहा नहीं जाता है । कारण ? उसमें अनुभव करने की शक्ति है, अनुभव करने की नहीं है । वाणी में कहने की शक्ति है, अनुभव करने की नहीं है । अतः ब्रह्म का स्वरूप अकथनीय तथा आश्चर्य रूप है । उक्त पद को सुनकर भीमराज अति प्रसन्नता को प्राप्त हुये ।
(क्रमशः)

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