मंगलवार, 28 मार्च 2017

= १५६ =

卐 सत्यराम सा 卐
ऐसो खेल बन्यो मेरी माई, 
कैसै कहूँ कछु जान्यो न जाई ॥ 
सुर नर मुनिजन अचरज आई, 
राम-चरण को भेद न पाई ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya

****HIGHT OF INDIA****

तुम हो, किस कारण हो? मन में सवाल उठते हैं, किसलिए हूं मैं? क्या कारण है मेरे होने का? सिर्फ इस देश में उसका ठीक - ठीक उत्तर दिया गया है। सारी दुनिया में उत्तर देने की कोशिश की गई है।
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ईसाई कहते हैं कुछ, मुसलमान कहते हैं कुछ, यहूदी कहते हैं कुछ, लेकिन सिर्फ इस देश में ठीक - ठीक उत्तर दिया गया है। इस देश का उत्तर बड़ा अनूठा है। अनूठा है - लीला के कारण। लीला का मतलब होता है, अकारण। खेल है। उसकी मौज है। इसमें कुछ कारण नहीं है। क्योंकि जो भी कारण तुम बताओगे वह बड़ा मूढ़तापूर्ण मालूम पड़ेगा।
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कोई कहता है, परमात्मा ने इसलिए संसार बनाया कि तुम मुक्त हो सको। यह बात बड़ी मूढ़तापूर्ण है। क्योंकि पहले संसार बनाया तो तुम बंधे। न बनाता तो बंधन ही नहीं था, मोक्ष होने की जरूरत क्या थी? यह तो बड़ी उल्टी बात हुई कि पहले किसी को जंजीरों में बांध दिया और फिर वह पूछने लगा, जंजीरों में क्यों बांधा? तो उसको जबाब दिया कि तुम्हें मुक्त होने के लिए। जंजीरों में ही काहे को बांधा जब मुक्त ही करना था?
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परमात्मा ने संसार को बनाया आदमी को मुक्त करने के लिए? यह तो बात उचित नहीं है अर्थपूर्ण नहीं है, बेमानी है। कि परमात्मा ने संसार को बनाया कि आदमी ज्ञान को उपलब्ध हो जाये? यह भी बात बेमानी है। इतना बडा संसार बनाया तो ज्ञान ही सीधा दे देता। इतने चक्कर की क्या जरूरत थी? कि परमात्मा ने बुराई बनाई कि आदमी बुराई से बचे। ये कोई बातें हैं ! ये कोई उत्तर है ! बुराई से बचाना था तो बुराई बनाता ही नहीं। 
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प्रयोजन ही क्या है? यह तो कुछ अजीब सी बात हुई कि जहर रख दिया ताकि तुम जहर न पीयो। तलवार दे दी ताकि तुम मारो मत। कांटे बिछा दिये ताकि तुम सम्हलकर चलो। पर जरूरत क्या थी? ठीक इस देश में उत्तर दिया गया है। उत्तर है - लीलावत। यह जो इतना विस्तार है, यह किसी कारण नहीं है। इसके पीछे कोई प्रयोजन नहीं है। इसके पीछे कोई व्यवसाय नहीं है। इसके पीछे कोई लक्ष्य नहीं है, यह अलक्ष्य है। फिर क्यों है?
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जैसे छोटे बच्चे खेल खेलते हैं, ऐसा परमात्मा अपनी ऊर्जा का स्फुरण कर रहा है। ऊर्जा है तो स्फुरण होगा। जैसे झरनों में झर - झर नाद हो रहा है, जैसे सागरों में उतुंग लहरें उठ रही हैं। यह सारा जगत एक महाऊर्जा का सागर है। यह ऊर्जा अपने से ही खेल रही है, अपनी ही लहरों से खेल रही है। खेल शब्द ठीक शब्द है। लीला शब्द ठीक शब्द है। यह कोई काम नहीं है जो परमात्मा कर रहा है। लीलाधर ! यह उसकी मौज है। यह उसका उत्सव है।
osho 
अष्‍टावक्र: महागीता (भाग–6) प्रवचन–76

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