परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी

मंगलवार, 28 मार्च 2017

= १५५ =


卐 सत्यराम सा 卐
लोभ मोह मद माया फंध, ज्यों जल मीन न चेतै अंध ॥ 
दादू यहु तन यों ही जाइ, राम विमुख मर गये विलाइ ॥ 
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*मनुष्य हो तो दीन कैसे..?*

अरब की एक मलिका ने अपनी मौत के बाद कब्र के पत्थर पर ये पंक्तियां लिखने का आदेश जारी किया- ‘‘मेरी इस कब्र में अपार धनराशि गड़ी हुई है। इस संसार में जो व्यक्ति सर्वाधिक निर्धन, दीन-दरिद्र और अशक्त हो, वही इस कब्र को खोद कर अपार धनराशि प्राप्त कर अपनी निर्धनता दूर कर सकता है।’’
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देखते-देखते मलिका की कब्र को बने हजारों वर्ष बीत गए। अनेक दरिद्र और भिखमंगे उधर से गुजरे, लेकिन किसी ने भी खुद को इतना दरिद्र नहीं माना कि धन के लिए किसी की कब्र ही खोदने लगे।
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आखिरकार एक दिन वह व्यक्ति भी आ पहुंचा जो उस कब्र को खोदे बिना नहीं रह सका। अचरज की बात तो यह थी कि यह कब्र खोदने वाला व्यक्ति स्वयं भी एक राजा था। उसने कब्र वाले इस देश को हाल ही में युद्ध में जीता था। अपनी जीत के साथ ही उसने बिना समय गंवाए उस कब्र की खुदाई का काम शुरू कर दिया।
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लेकिन कब्र की खुदाई में उसे अपार धनराशि की बजाय एक पत्थर ही हाथ लगा जिस पर लिखा हुआ था, ‘‘ऐ कब्र खोदने वाले इंसान, तू अपने से सवाल कर… क्या तू सचमुच मनुष्य है?’’
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निराश व अपमानित हुआ वह सम्राट जब कब्र से वापस लौट रहा था तो लोगों ने देखा कि कब्र के पास रहने वाला एक बूढ़ा भिखमंगा जोर-जोर से हंस रहा था। हंसते-हंसते वह कह रहा था, ‘‘सालों से इंतजार कर रहा था, आखिरकार आज धरती के सबसे निर्धन, दरिद्र और अशक्त व्यक्ति के दर्शन हो ही गए।’’
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यह आवाज राजा के कान तक भी जा पहुंची। उसे लगा सचमुच वह सबसे दरिद्र, दीन और अशक्त है। अपनी जीत के बावजूद उसे लगने लगा जैसे वह कब्र के उस पत्थर की इबारत से बुरी तरह पराजित हो गया है।

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