रविवार, 12 मार्च 2017

= विन्दु (२)९४ =

#daduji
॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू चरितामृत(भाग-२)* 
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*= विन्दु ९४ =*
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*= भेष प्रसंग =* 
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एक दिन टीलाजी दादूजी महाराज को दंडवत करके बोले गुरुदेव ! मेरी इच्छा है थोड़ा भैराणा पर्वत की ओर भ्रमण कर आऊं । तब दादूजी ने कहा - तुम्हारी इच्छा है तो घूम आओ । फिर दादूजी की आज्ञा होने पर वे भैरणा पर्वत के ऊपर तथा इच्छा अनुसार इधर - उधर भ्रमण करके रात्रि में अजमेर की ओर आने वाले मार्ग में आकर उन्होंने शयन किया और प्रातः तीन बजे ही उठकर मार्ग पर बैठे बैठे ब्रह्म भजन करने लगे । 
उसी समय लखनऊ का नवाब अपने दलबल के सहित जहां टीलाजी बैठे थे उधर से ही निकला । टीलाजी के शरीर पर कोई साधु भेष तो था नहीं, वे साधारण मानव के समान ही जान पड़ते थे । नवाब के नगारे ले जाने वाला मानव बहुत थक गया था । नवाब के साथियों ने टीलाजी को मार्ग पर बैठे देखकर उन्हें कहा - ये नगारे अपने शिर पर रखकर हमारे साथ चलो । टीलाजी तो संत थे । उन्होंने कहा - बहुत अच्छा । नगारे शिर पर रखकर उनके साथ साथ चलने लगे । 
जब सूर्य उदय होकर प्रकाश हुआ तो सबने देखा नगारे टीलाजी के शिर से सवा गज ऊपर आकाश में अपने आप चल रहे हैं । यह देखकर नवाब के साथी सब आश्चर्य में पड़ गये और कांपते हुये दौड़कर नवाब के पास गये । शिर से नगारे ऊंचे चलने की बात नवाब को कही तब नवाब समझ गया । कोई महात्मा होगा । फिर अपनी सवारी से उतर कर टीलाजी के पास आया और प्रणाम करे क्षमा मांगी । टीलाजी तो संत थे, उन्होंने क्षमा कर दिया । इस घटना का वर्णन ‘गुरु पद्धति’के ३० वे प्रकाश में भी इस प्रकार किया है – 
“चल्यो है नवाब लखनऊ को सु ख्वाजे थान, 
ताके संग भैराणे बेगार टीला लये हैं । 
चलत नगारे शिर ऊपर जो सवा गज, 
प्रात भये लोक देख अचंभ जु भये हैं ॥ 
कंपत सु सर्व लोक गये जु नवाब पास, 
भय रूप वचन सुनाय तब दये हैं । 
तज गज साज सब चरण पड्यो है आय, 
कंपत सु दल सब सुधि भूल गये हैं ॥ ८ ॥ 
नवाब के क्षमा मांगने पर टीलाजी ने कहा – 
“बोलत टीला, यह हरिलीला दीन संतोष न तब दोषा” ॥ १३ ॥ 

उक्त पंक्ति छंद का भाव यह है – 
टीलाजी ने कहा - हे नवाब ! यह तो हरि की लीला है, इसमें तुम्हारा किसी का भी दोष नहीं है । तुमने तो मेरा हरि - विश्वास बढ़ाया है । ऐसा कहकर नवाब को संतोष दिया । फिर टीलाजी को प्रणाम करके नवाब अपने साथियों के सहित अजमेर की ओर चल दिया । 
पश्चात् ब्रह्म - भजन करते हुये टीलाजी नारायणा नगर के नारायण विन्दु सरोवर के पश्चिम तट पर स्थित दादू - ग्राम में आकर सत्यराम बोलते हुये दादूजी महाराज को साष्टांग दंडवत करके सामने बैठ गये और वहां उपस्थित अपने गुरुभाई संतों को सत्यराम करके पश्चात् उक्त प्रसंग कह कर कहा - स्वामीजी महाराज । मेरे शरीर पर कोई साधु भेष का चिन्ह नहीं होने से ही मुझे नवाब के साथियों ने शिर पर नगारे रखकर अपने साथ चलने को कहा था । यदि कोई साधु का भेष चिन्ह होता तो संभव है, वे मेरे शिर पर नगारे रखकर मुझे अपने साथ चलने को नहीं कहते । ऐसा मेरा विचार है । अतः आपकी शिष्य संप्रदाय का कोई बाह्य चिन्ह भी अवश्य होना ही चाहिये । टीलाजी की उक्त प्रार्थना सुनकर दादूजी महाराज ने कहा - ठीक है ? तुम लोग कोई बाह्य चिन्ह बनाकर लाओ । 
(क्रमशः)

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