卐 सत्यराम सा 卐
दादू दीया है भला, दीया करौ सब कोइ ।
घर में धर्या न पाइये, जे कर दीया न होइ ॥
दादू दीये का गुण तेल है, दीया मोटी बात ।
दीया जग में चाँदणां, दीया चालै साथ ॥
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साभार ~ सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र
!! श्री शारदा - चन्द्रमौलीश्वराय नमः !!
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*॥ श्रीमद्भगवद्गीता के - कर्मप्रशंसायोग ॥*
------------------- { १४ } -------------------
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नारायण ! अब, भगवान् यह बताते हैं कि कर्म किस तरह कामना - पूरक बनता है :
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥
अर्थात् यज्ञ से देवताओं का संवर्धन करो, वे देवता तुम सभी को उन्नत करें । एक - दूसरे को तृप्त करते हुए परम कल्याण पाओ ।
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नारायण ! यज्ञ के द्वारा, इन्द्रादि जो देवता हैं, उनकी वृद्धि करो । "देवता" से दोनों समझना व्यष्टि देवता आँख आदि इन्द्रियाँ और समष्टि देवता सूर्यादि । देवता अधिदेव भी है, और अध्यात्म भी, अर्थात् शरीर में बैठे हुए हैं, और ब्रह्माण्ड में भी बैठे हुए हैं । शरीर में बैठे उनके स्वरूप को व्यष्टि और ब्रह्माण्ड में बैठे स्वरूप को समष्टि कहते हैं । जब तुम यज्ञ के रूप में आचरण करोगे तब तुम्हारी इन्द्रियाँ भी बढ़ेंगी, उत्तम होंगी, पुष्ट होंगी, और उनके देवता भी पुष्ट होंगे । समष्टि भी पुष्ट होगा । शरीर में होने वाली इन्द्रियों को भी देवता कहते हैं। "देव" का अर्थ होता है ज्ञान । इन्द्रियों से ज्ञान होता है इसलिये उनको देवता कहते हैं । बाहर जो प्रकाशमान है, जिनके प्रकाश से सारे संसार के काम होते हैं, उनको भी देवता कहते हैं । यज्ञ के द्वारा जब समष्टि की अभिवृद्धि होगी तब व्यष्टि अपने आप ही पुष्टि होती है ।
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नारायण ! एक ज्योतिषी राजा के पास जाया करते थे, राजा उन्हें मान देता था। पुराने जमाने में राजा पुरोहितों से , पण्डितों से प्रधानतः यही पूछते थे, कि जमाना अर्थात् खेती - बाड़ी कैसी होगी ? भारतवर्ष में तो, सारा उद्योगीकरण होने के बाद भी, पचहत्तर प्रतिशत अर्थव्यवस्था खेती पर ही निर्भर है । ज्योतिषी जी ठीक बता दिया करते थे । अनेक वर्षों तक यह क्रम चला, फिर वे मर गये । उनका जो लड़का था, उसने कभी पढ़ने में रुचि नहीं ली । पिता समझाते भी रहे, लेकिन खाने - पीने की कोई कमी नहीं थी, तो जैसा आजकल भी होता है, खाने - पीने की कमी नहीं हो तो लड़के पढ़ने में रुचि नहीं लेते । कुछ साल तक तो पिता द्वारा एकत्र धन से घर का काम चलता रहा । परन्तु यदि, कुआँ भी होवे, पर उसमें पानी आवे नहीं और निकालते जाओ, तो एक दिन ख़त्म हो ही जाता है । ऐसे ही उनके पास भी धन की कमी हो गयी । माँ कहने लगी, "अरे, राजा तुम्हारे पिता जी को बहुत देते थे, तुम राजा के पास जाओ । उनका बेटा जानकर कुछ दे देंगे ।" उसने कहा "ठीक है", चल दिया ।
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रास्ते में एक पेड़ के नीचे आराम करने के लिये लेटा तो एक विषधर सर्प आया और फुफकारा । लड़के ने आँख खोली, देखा, घबराया ! सर्प मनुष्य की बोली में बोला "अरे ! भागो नहीं । डरो नहीं । कौन हो ? कहाँ जा रहे हो ?" उस लड़के ने कहा "मैं राज - ज्योतिषी जी का लड़का हूँ, राजा के यहाँ जा रहा हूँ ।" साँप ने परिचय समझकर पूछा "राजा के यहाँ जा कर क्या करोगे ?" लड़के ने जवाब दिया "उनसे कहुँगा कि पिताजी मर गये हैं, कुछ धन दे दो मुझे।" वह विषधर साँप हँस कर बोला "राजा लोग ऐसे धन नहीं दिया करते कि तुम जाकर माँगो और मिल जाये ! मैं तुम्हारे पिता का मित्र हूँ । मुझे पता है, तुम्हारे पिता मुझे बतलाते रहते थे कि तुम कुछ पढ़े - लिखे ही नहीं । राज के पास जाओगे तो राजा से कहना, "साल में मैं एक सवाल का ही जवाब दूंगा । एक सवाल पूछ लो ।" तो राजा सवाल पूछेगा । तुम उसका जवाब देना । फिर राजा तुमको धन देगा ।" उसने पूछा, "जी, वे कौन - सा सवाल पूछ लेंगे, और मैं कौन - सा जवाब दूँगा ?" सर्प ने बताया "राजा तुम से यही पूछेगा कि जमाना कैसा होगा ? कहना कि इस साल भयंकर गर्मी पड़ेगी, पानी की बूंद नहीं बरसेगी, अकाल पड़ेगा । होगा वैसा ही ही अतः तेरे को धन मिल जायेगा ।"
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नारायण ! ज्योतिषी का लड़का गया राजा के पास । उसने अपना परिचय दिया, तो राजा ने कहा "तुम इतने साल नहीं आये । चलो, अब तो आ गये । अच्छा किया ।" उसने कहा, "जी, मैं एक साल में एक सवाल का ही जवाब देता हूँ । एक प्रश्न पूछो । "राजा ने वही पूछा कि" जमाना कैसा रहेगा ? उसने कह दिया कि ऐसी - ऐसी गर्मी पड़ेगी। उन्होंने उसके रहने का इंतजाम कर दिया, आराम करने का निवास दे दिया । उस वर्ष सचमुच में बहुत भयंकर गर्मी पड़ी । राजा को श्रद्धा हुई कि यह ठीक कहता है । उसे भरपूर धनादि दे दिया । वहाँ से चलने लगा तो उसके मन में आया कि "साँप ने आज मुझे बतलाया है, कल और किसी को बतला देगा । यह ज़िन्दा रहेगा तो गड़बड़ करेगा । इसलिये इसे ख़त्म कर देना चाहिये ।" राजा से कहा "हमें एक गाड़ी भर कर जलाने की लकड़ी दे दीजिये ।" यात्रा करते हुए पेड़ के नीचे आया तो जितनी साँपों की बामिबयाँ थीं, सब के अन्दर ठूस - ठूस कर आग जला दी ! लड़के ने सोचा कि साँप मर जायेगा, और खुद गाँव चला गया । धन ले करके गया था, सब काम ठीक चलने लग गया । साल भर के बाद, फिर उसने सोचा "फिर चलूँ राजा जी के पास ।" उसी पेड़ के नीचे बैठा था आराम करने, वही जगह थी रास्ते में । सोच रहा था, कि गई बार तो बेचारे साँप ने मेरी मदत की थी, परन्तु अब कौन बतायेगा ! लेकिन मूर्ख था हीं, निश्चय किया कि राजा वही सवाल करेगा और इस बार भी जवाब वही होगा ! यही समझकर निश्चिंत था । तभी साँप सामने आ गया । लड़का घबराया तो सही, पर नम्रता दिखा कर बात - चीत करने लगा । साँप ने पूछा "इस साल क्या बतायेगा ?" उसने पुराना जवाब ही दुहरा दिया ! साँप ने कहा "ऐसा नहीं होता ! इस बार बहुत पानी बरसेगा, बाढ़ आयेगी ।" लड़के ने जाकर यही कहा और यही हुआ ।
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नारायण ! पुनः धन आदि लेकर बिदा होते समय उसने सोचा कि "साँप ने क्रम बता दिया, एक साल सुखा पड़ता है, दूसरे साल बाढ़ आती है । यह मैं समझ चुका । अब साँप से फायदा नहीं, नुकसान की संभावना है । आग से वह मरा नहीं तो अब पानी से मारना चाहिये ।" उसने साथ कई मज़दूर ले लिये । पेड़ के पास पहुँचकर सब बाम्बियों में पानी भरवा दिया यह मानकर कि साँप डूबकर मर जायेगा । अगले वर्ष राजदरबार की ओर आते हुए वह लड़का जब उसी स्थान पर रुका तब पुनः सर्पराज का दर्शन हुआ ! वह बहुत सकपकाया पर सँभल कर अभिवादन करने लगा । साँप ने पूछा "इस बार क्या कहेगा ?" लड़का बोला "पिछली बार बाढ़ थी तो इस बार अकाल होगा !" साँप हँस दिया, कहने लगा "नहीं, इस बार सुभिक्ष होगा, अनाज दूध आदि पर्याप्त होगा ।" लड़के ने राजा से ऐसा ही कहा और हुआ भी ऐसा ही । इस बार लड़के ने सोचा "जमाने का तो कुछ पता नहीं चलता, कोई क्रम समझ नहीं आता, अतः साँप से बनाये रखने में ही फायदा है, इसे मारने के बाद तो पता ही नहीं लगेगा कि क्या कहना है ।" उसने राजा से कह कर प्रभूत दूध साथ लेकर यात्रा शुरू की और साँप के पास आकर उसकी प्रशंसाकर कहा "यह सारा दूध आपके लिये, आपके सम्पूर्ण परिवार के लिये है ।" सर्प ने सबको बुलाया सभी ने यथेष्ट दूध पिया । साँप भी दूध पीकर लौटने लगा ।
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नारायण ! लड़के को उसका व्यवहार अखरा, पूछा "सर्पराज ! दूध पीकर आप प्रसन्न तो हैं ? आपने कुछ कहा नहीं ?" साँप बोला "क्या कहूँ ! जब सारे राज्य में तपन थी, सूखा था, तब मेरे घर में भी आग लगी । जब सर्वत्र बाढ़ आई तब मेरे बिलों में भी पानी भर गया । उस समय भी मैंने कोई शिकायत नहीं की । इस साल सर्वत्र सुभिक्ष है तो मुझे भी दूध मिल गया । इसमें कहने जैसी क्या बात है !" यह विवेक की दृष्टि है, समष्टि से स्वतन्त्र व्यष्टि नहीं है, समष्टि में जो होगा वह व्यष्टि को मिलेगा ही । यज्ञार्थ कर्म से यही अभिप्रेत है कि समष्टि के हित के उद्देश्य चेष्टाएँ की जायें, व्यक्तिगत स्वार्थ से नहीं, तब कर्म बन्धनकारी नहीं होता । तभी यज्ञ के द्वारा सारी इष्ट कामनाएँ पूरी होंगी । यज्ञ को भगवान् ने कामधुक् अर्थात् कामधेनु बतलाया । कामधुक् का मतलब होता है जिससे कामनाओं को दुहा जा सकता है । जैसे कामधेनु से जो चाहो सो दुह लो, वैसे ही यज्ञ इष्ट - कामधुक् है, जो तुम्हारी इष्ट - कामनाएँ हैं ? उन सब के विषय तुम यज्ञ से प्राप्त कर सकते हो ।
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नारायण ! यज्ञों के द्वारा, भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण ने कहा कि, देवताओं की अर्थात् जो समष्टि फल देने वाले हैं उनकी सेवा करो, समष्टि की सेवा करो । और समष्टि के देवता तुम्हारी रक्षा करें । यह है परस्पर भावना । तुम कर्म करो, और वे उसका फल दें। जो फल दे रहे हैं, उनको तुम पुनः अर्पण करो, तब चक्र बना रहेगा । इससलिये भगवान् ने कहा कि एक - दूसरे को बढ़ाते हुए कल्याण पाओ । व्यक्ति सब के लिये करे, और सब व्यक्ति का ख्याल रखें, तब समाज, संसार ठीक चलेगा, यह भगवान् ने यहाँ कह रहे हैं ।
नारायण ! इससे विपरीत यदि होगा, तो विपरीत फल को उत्पन्न करेगा इस बात को भगवान् अब बताते हैं –
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ॥
अर्थात् यज्ञ से तृप्त हुए देव तुम्हें वांछित विषय प्रदान करेंगे । उनके द्वारा दिये भोग उन्हें समर्पित किये बिना जो स्वयं ही भोग लेता है वह चोर ही है ।
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नारायण ! इसके पूर्व में श्रीमुख श्लोक भगवान् ने कहा था कि परस्पर एक दूसरे की "भावना" करो, तुम देवताओं की सेवा करो, देवता तुम्हें पुष्ट करें, उसी को कारण रूप से यहाँ कह रहे हैं "हि" कहकर । "हि" मायने इसलिये, इस कारण से । यज्ञ के द्वारा पूजित हुए, तुम्हारे द्वारा कृत यज्ञ से संतुष्ट हुए जो देवता हैं वे फल देंगे । यज्ञ के द्वारा देवताओं की भावना अर्थात् उपासना की जाती है । उनके संतोष के लिये यज्ञ किया जाता है । यज्ञ से संतुष्ट हुए देवता तुम लोगों को जो भोग तुम चाहते हो, वे भोग देंगे। इष्ट सबका बदलता रहता है, परन्तु जिस इष्ट के लिये तुम काम करोगे वह तुमको देवता देंगे । यज्ञ से पुष्ट हुए देवताओं ने तुम्हें भोग्य पदार्थ दिये तो देवताओं को उनका हिस्सा फिर दो । उनके लिये जो इष्ट भोग है उन्हें देवताओं को बिना दिये हुए जो उनका भोग करना है, वह तो चोरी करता है ।
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नारायण ! देवताओं ने जो तुम्हें दिया, उसमें से देवताओं को देने का जो हिस्सा है, वह देना चाहिये । उन्होंने सारे भोग तुम्हें दे दिये, तुम उनको अगर वे विषय अर्पित नहीं करते हो, तो तुमने उनके हिस्से की चोरी की, और यह सारा चक्र बिगाड़ दिया, क्योंकि अब तुमने दिया नहीं ताकि वे पुनः तुम्हें दें । दृष्टान्त के लिये अपने छोटे बेटे को देखो : वह क्या कमाता है ? कुछ नहीं । जो कुछ तुम देते हो वही है उसके पास । पर तुम्हारे जन्मदिवस पर उसमें से बचाकर वह तुमको भेंट देता है, तब तुम सुखी होते हो । और अगर वह सारा अपने ऊपर ही खर्च करता रहे तो तुम प्रसन्न नहीं होगे । इसी प्रकार देवताओं द्वारा दी हुई चीजों में से जो उनके लिये उचित हिस्सा है वह उन्हें बिना दिये हुए अगर जो मिला उसका खुद ही भोग कर लिया, तो चोरी ही कर रहे हैं । सावशेष .......
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नारायण स्मृतिः

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