सोमवार, 27 मार्च 2017

= उक्त अनूप(ग्रन्थ ७/१-२) =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🙏 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🙏
🌷 *#श्रीसुन्दर०ग्रंथावली* 🌷
रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
https://www.facebook.com/DADUVANI
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*= उक्त अनूप१ (ग्रन्थ ७) =*
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(१. उक्त अनूप = अनुपम उक्ति, बढ़िया सुन्दर कथन । इस छोटे से ग्रन्थ में श्रीसुन्दरदासजी ने माया के तीनों गुणों का प्रभाव और उनसे आत्मा की भिन्नता तथा उन गुणों से किसी प्रकार बचकर निर्गुणता को पाना--श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदि से दिव्य ज्ञान की प्राप्ति; गुरु का शुभ अवसर तथा शुद्ध अवस्था में आने पर शिष्य को ज्ञान का परम उपदेश देना और उससे ब्रह्मज्ञान का होना कहा है ।)
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[इस छोटे से ग्रन्थ में यह दिखाया गया है कि शरीर तमोगुण, रजोगुण एवं सत्त्वगुण से समन्वित है तथा आत्मा नित्य, मुक्त और असंग है । केवल भ्रम से ही शरीर में आत्मा का संग माना गया है । जैसे जलस्थ प्रतिबिम्ब जल के हिलने से हिलता हुआ दिखायी है, वैसे ही त्रिगुणात्मक देह में निश्चल आत्मा चंचल-सा दिखायी पड़ता है । 
जड़ के सम्बन्ध से चेतन भी ऐसा प्रतीत होता है मानों इसकी चेतनसत्ता खो गयी । जब तमोगुण और रजोगुण अथवा इनके साथ सतोगुण मिश्रित रहता है तो उत्तरोत्तर दुष्कर्म, दुःख, उद्यम, सुख और कर्म एवं यज्ञादि शुभ कर्म की इच्छा उत्पन्न होती है । परन्तु जब शुद्ध सात्विक वृत्ति उत्पन्न होती है तब कर्मवासना--क्या इस लोक की, क्या परलोक की--छूट जाती है । 
यदि वासना रहती भी है तो मुक्ति की । कोई सद्गुरु मिल जाय तो वह साधक शिष्य को उपयुक्त सत्पात्र जानकार सत्य उपदेश कर अल्प काल में ही उसके शुद्ध हृदय में निज स्वरूप का बोध करा देता है और वह शिष्य कृतकृत्य हो जाता है ।]
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*= मंगलाचरण =*
*= दोहा =*
*नमस्कार गुरुदेव कौं, बार बार करि जोरि ।*
*सुन्दर जिनि प्रभु शब्द सौं, काटै बंधन कोरि ॥१॥
सर्वप्रथम मैं(स्वामी सुन्दरदास) अपने उन गुरुदेव(श्रीदादूदयालजी महाराज) के श्रीचरणकमलों में हाथ जोड़ कर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करता हूँ जिन्होंने कृपा करके समर्थ(सशक्त) शब्दों से उपदेश देकर मेरे सांसारिक ममता में फँसानेवाले करोड़ों बन्धन काट दिये ॥१॥
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*= ज्ञान की उपयोगिता =*
*तिनकी आज्ञा पाइ कै, भाखौं ज्ञान अनूप ।*
*अनसमझैं भव जल बहै, समझै ह्वै चिद्रूप ॥२॥*
उन श्री गुरुदेव की आज्ञा पाकर अब साधकों को अनुपम ज्ञान के विषय में कुछ अनमोल गम्भीर बातें बताउँगा, जिनको जाने बिना संसार का निरीह प्राणी भवजाल(संसार के आवागमन) में डूबता-उतराता रहता है, परन्तु उन बातों को जान जाने पर उसे अपने चिद् रूप का बोध हो जाता है ॥२॥
(क्रमशः)

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