परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी

रविवार, 12 मार्च 2017

= १२४ =

卐 सत्यराम सा 卐
ज्यों तुम भावै त्यों खुसी, हम राजी उस बात ।
दादू के दिल सिदक सौं, भावै दिन को रात ॥ 
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साभार ~ Rajnish Gupta

((((((((( गिरधर भक्त गिरवर )))))))))
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नर्मदा नदी के किनारे एक गांव था । इस गाँव में गिरवर नाम के एक राजपूत किसान थे । परिवार में वृद्ध माता-पिता थे । पत्नी गौरी सुशील और सदा चारिणी स्त्री थी । ऊदा नाम का पांच वर्षीय पुत्र था ।
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पूरा परिवार धर्म और कर्म पर आश्रित था । वृद्ध माता-पिता ईश्वर के ध्यान में मग्न रहते थे । स्वयं गिरवर और उनकी पत्नी उनकी सेवा को ईश्वर की सेवा मानकर रहते । बालक ऊदा भी अच्छे संस्कारों से धर्म की महिमा जान गया था ।
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गिरवर की ईश्वर में प्रबल आस्था थी । वह अन्य लोगों को भी गीता का सही ज्ञान देते कि जो भी होता है कल्याण हेतु होता है । कई लोग तो इस बात से सहमत हो जाते और कई मीनमेख निकालने वाले विदूषक भी मिल जाते ।
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”गिरवर जी ! घर में सब सुख-साधन हैं इसलिए कल्याण ही कल्याण देखते हो । अच्छी पत्नी अच्छा पुत्र अच्छा भोजन ।” विदूषक कहते : ”जब तक स्वयं पर दुख नहीं पड़ता तब तक दूसरे की पीड़ा का आभास नहीं होता । सुख में तो सब सुमिरन करते हैं दुख में भक्त का पता चलता है ।”
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गिरवर की आस्था सच्ची थी इसलिए वह बहस नहीं करते । जिन्हें दयानिधि की दया पर विश्वास है उन्हें ऐसी बातों से क्या लेना ? कुछ समय पश्चात गिरवर के माता-पिता का स्वर्गवास हो गया । ”माता-पिता की सेवा का अल्प सौभाग्य था ।” उन्होंने दुखी हो रही पत्नी को समझाया : ”माता-पिता की सेवा बड़े सौभाग्य से मिलती है ।
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भगवान ने हमें थोड़ा ही अवसर दिया । भगवान ने जो किया है हमारे कल्याण के लिए ही किया होगा ।” समय गुजरता रहा । गिरवर का पुत्र आठ वर्ष का हो गया था । एक दिन ऊदा नदी में नहाने गया तो घड़ियाल ने दबोच लिया । घड़ियाल उसे पानी की अथाह गहराई में खींचने लगा ।
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लोगों में हाहाकर मच गया । गिरवर और उनकी पत्नी भी पगलाए-से तट पर पहुंचे । ”हे ठाकुर जी, मेरी प्राण रक्षा करो ।” ऊदा ने भगवान को पुकारा । और देखते-ही-देखते ऊदा अनंत जलराशि में लुप्त हो गया । मां का हृदय फट गया । वह करुण विलाप करके पति से लिपट गई ।
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”भगवान जो करते हैं कल्याण के लिए करते हैं ।” गिरवर ने अपनी आस्था से तिल-भर हिलना स्वीकार नहीं किया । गौरी को पति की वह बात उचित नहीं लगी । ”हे सहधर्मिणी ! संसार एक अथाह समुद्र है । यहा कोई किसी का नहीं है जो इस जन्म में तुम्हारा पुत्र था वह किसी जन्म में तुम्हारा पिता भाई मित्र शत्रु रह चुका होगा ।
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यह संसार एक सराय के समान है । यहां जीव अपने कर्मफल भोगने आता है । जिसका समय समाप्त हो जाता है वह चला जाता है । प्रिये यह संसार एक उपवन है । गृहस्थ उस उपवन का पेड़ है । हम उस पेड़ के माली होते हैं। उस पर कोई फूल-फल इत्यादि ईश्वर खिलाता है ।
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यदि ईश्वर उस पेड़ के पुष्प को अपने लिए मांग ले तो क्या बुरा है ? जो हमारा है नहीं उसके जाने का शोक कैसा ? हमारा पुत्र भी ऐसा ही पुष्प था ? जो ईश्वर को पसंद आया और उसने अपने पास बुला लिया । वह पुण्यात्मा था । अन्त समय में भी हमारी नहीं भगवान की मदद चाह रहा था ।
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तुम्हें व्यर्थ ही शोक नहीं करना चाहिए । ईश्वर जो भी करता है कल्याण के लिए करता है । क्या पता ऊदा अभी जीवित हो ! अनंत जल राशि उसे कहीं ऐसी जगह पहुंचा दे जहा वह और भी सुख से रहे !” पति की ऐसी आध्यात्मिक बातों से गौरी को बड़ा बल मिला ।
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उसका शोक खत्म हो गया । दोनों घर वापस आए । माता-पिता और पुत्र की मृत्यु के पश्चात गिरवर जी ने भजन-कीर्तन में ही रमे रहने का निश्चय किया । खेती को बंटाई पर दे दिया । अब दोनों पति-पत्नी ठाकुर जी की सेवा में ध्यान में मगन रहते । वेद पुराण, और विष्णु सहस्रनाम का पाठ करते।
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”देखो गौरी ! यदि हमारा ऊदा होता तो उसके लालन-पालन से हमें इतना समय कैसे मिलता कि हम भगवान में लीन रहते । भगवान ने ऊदा के रूप में हमें एक सेवा सौंपी जो वापस ले ली । अब दूसरी सेवा सौंप दी तभी तो कहता हू कि ईश्वर जो भी करते हैं कल्याण हेतु करते हैं ।”
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”सत्य कह रहे हैं स्वामी ! भगवान की लीला अपरम्पार है ।” उधर भगवत कृपा ऐसी हुई कि नदी में घड़ियाल ने ऊदा को घायल करके छोड़ दिया था । जलप्रवाह में बहता वह राजा धर्मसिंह की नगरी के समीप पहुच गया जहा उस समय राजा स्वयँ उपस्थित थे ।
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राजा ने उसे निकाला और अपने राजमहल ले गए । ऊदा का उपचार हुआ तो वह ठीक हो गया परतु वह अपना अतीत भूल गया उसे सिर्फ अपना नाम याद था तब राजा धर्मसिंह ने उसे पुत्र बना लिया और उसका नाम उदयराज रख दिया ।
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वह भगवद्भक्त तो था ही शिक्षा में भी मेधावी था । समय व्यतीत होता रहा । शिक्षा पूर्ण होते ही उदयराज का विवाह विजयनगर की राजकुमारी कौशलेश से हो गया । इधर अकाल पड़ गया तो लोग अन्न-जल के लिए तड़पने लगे । गिरवर और गौरी भी हर सम्भव गरीबों की सहायता करते ।
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वे स्वय भी उस दुर्भिक्ष की चपेट में आ गए । अंतत: उन्होंने गाव छोड़ दिया । चलते-चलते वे एक घने जगल में पहुंचे और एक वृक्ष के नीचे रात्रि विश्राम किया । उसी वृक्ष की जड़ में एक विषधर रहता था जिसने सोती हुई गौरी को डस लिया और वह छटपटाती हुई भगवान का नाम लेती रही ।
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अतत: उसकी श्वास बद हो गई । गिरवर ने अपनी आखों से अपनी पत्नी को छटपटाते देखा । ”जैसी प्रभु की इच्छा । सभव है कि इसमें भी कोई कल्याण हो ।” ऐसा कहकर गिरवर रात-भर पत्नी की मृत देह के पास बैठे भगवान का भजन करते रहे । प्रात: होने पर गौरी के पार्थिव शरीर को नर्मदा के पावन जल में प्रवाहित कर दिया ।
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वहां से गिरवर जी के मन में वैराग्य तीव्र हो उठा । अब भगवान से साक्षात्कार की कामना प्रबल हो उठी थी । वह एक वृक्ष के नीचे बैठकर भगवद् भजन में इतने लीन हुए कि उनकी आखों से अश्रु और मुख से ठाकुर जी का नाम निकलने लगा । उनकी लगन से नटवर नागर का हृदय पिघल गया । अपने भक्त की इच्छा पूर्ण करने के लिए सर्वेश्वर गिरवर के पास पहुंचे।
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जैसे नर्मदा नदी का स्वरूप यमुना में परिवर्तित हो गया वह वन दिव्य वृदावन में बदल गया ईश्वर की अलौकिक लीला से एक कदम्ब का वृक्ष उगकर बड़ा हो आया और उस वृक्ष के नीचे यशोदानंदन द्वारिकाधीश श्रीकृष्णचंद्र जी अधरों से बांसुरी लगाकर दिव्य झांकी के दर्शन देने लगे ।
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गिरवर जैसे कृतार्थ हो गए । वह अपने ठाकुर जी के चरणों में गिर पड़े । श्याम सुदर ने उन्हें उठाकर हृदय से लगाया । ”हे गिरवर! तेरी लगन आस्था निष्काम भावना और सब कुछ मुझे अर्पण कर देने की इच्छा ने मुझे तेरा भक्त बना दिया है । अब तू मेरे साथ मेरे धाम चल ।” गिरधारी के स्पर्श से ही गिरवर जैसे जन्म-मरण के बंधनों से छूट गए ।
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उनके शरीर से एक ज्योतिपुंज निकला और वह पुंज एक शिखा में परिवर्तित हो गया । तत्पश्चात भगवान श्रीकृष्ण उन्हें लेकर वृदावन सहित अपने धाम चले गए । 
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इधर विषधर के विष के प्रभाव में गौरी जब नर्मदा की जीवनदायी लहरों पर यात्रा कर रही थी तो लहरों के प्रभाव और भगवत्कृपा से विष का प्रभाव कम होता गया ।
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जिसके जीवन का भार स्वय जगन्नाथ ने उठाया हो उसका कौन क्या बिगाड़े ! गौरी बहती-बहती एक सिद्ध पुरुष के आश्रम के समीप पहुंची तो स्नानादि करने आए महात्मा ने उसे निकाल लिया । उसकी नाड़ी में स्पंदन जानकर महात्मा ने उसका उपचार किया । गौरी उस उपचार से ठीक हो गई । 
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महात्मा उसे कुटी पर ले आए और पुत्रीवत स्नेह दिया । महात्मा के दिव्य उपदेश से गौरी के हृदय में सांसारिक मोह नष्ट हो गया । उसने भाव-नाम को सर्वस्व मानकर गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया । अब गौरी नित्य प्रति इकतारा हाथ में लेकर प्रभु के ध्यान में लगी रहती ।
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कृष्ण नाम की धुन में मगन वह अपनी सुध-बुध भूल जाती और उसके पग जिधर चल पड़ते चली जाती । ऐसे ही एक दिन प्रभुनाम में लीन वह एक नगर में पहुंची । नगर में बड़ी चहल-पहल थी । हर तरफ हर्षोल्लास था । नर-नारी अत्यत प्रसन्न थे । ”क्या यहां कोई उत्सव है ?” गौरी ने एक स्त्री से पूछा ।
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”हां । कल हमारे नए राजा का राज्याभिषेक होने जा रहा है जो राजा धर्मसिंह की भांति ही न्यायप्रिय और दयालु हैं । प्रजा के हितकारी हैं । यह हर्षोल्लास युवराज उदयराज के राज्याभिषेक के उपलक्ष्य में है ।” 
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”ईश्वर तुम्हारी मनोकामना पूर्ण करें । तुम्हारा नवीन राजा तुम्हारे हितों का पूर्ण ध्यान रखे ।” गौरी ने उसे आशीर्वाद दिया और एक सुंदर-सा मंदिर देखकर ध्यान में मगन हो गई । 
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रात्रि हुई । युवराज उदयराज अपने शयनकक्ष में पलग पर लेटे अपने नए सम्राट जीवन की योजनाएं बना रहे थे कि उनकी औखें लग गईं और उन्होंने एक विचित्र स्वप्न देखा ।
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”हे युवराज उदयराज !” एक दिव्य पुरुष उन्हें स्वप्न में कह रहा था: ”तुम महाराज धर्मसिंह के पुत्र नहीं हो । तुम्हारी माता भगवान कृष्ण की परमभक्त गौरी और पिता गोलोकवासी गिरवर हैं । 
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बाल्यकाल में नदी में तुम्हें घड़ियाल ने खींच लिया था और तुम राजा धर्मसिंह को मिले थे ।
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आज तुम्हारी माता तुम्हारे ही नगर में मुरली मनोहर कृष्प के मंदिर में आई हुई है । उसे तुम्हारी मृत्यु का विश्वास नहीं है और आज भी तुमसे मिलने की इच्छा उसके हृदय में कहीं दबी है ।”
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ऊदा हड़बड़ाकर जागा और उसी क्षण मंदिर पहुच गया । गौरी को देखते ही उसकी स्मृति लौट आई ।
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”मां ! मैं…मैं ऊदा तेरा ऊदा…।” ”बेटा ऊदा !” गौरी भावविह्वल हो गई: ”तू जीवित है ! मेरा हृदय तो पहले ही कहता था ! तेरे पिता का भी यह विश्वास सत्य था कि भगवान जो भी करते हैं कल्याण के लिए करते हैं !” 
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प्रात: काल नगर में उत्सव की धूम दोगुनी हो गई । ऊदा राजा बना और गौरी संसार के समस्त सुख भोगकर परमधाम पहुंची जहा भक्त गिरवर पहले ही महाप्रभु कृष्ण की सेवा में निरत थे ।
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आस पुरी कर दे मेरी,
कर दे एक एहसान।
जिन्दगी बीते तेरी भक्ती मे,
जुबा पर हो बस तेरा नाम ।
तेरे चरणो मे बस जगह हो मेरी,
ना देना कभी अभिमान।
प्राण निकले हँसते हँसते,
बस कहते हुए जय श्री श्याम...
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(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
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