परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी

गुरुवार, 30 मार्च 2017

= १६० =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू दृष्टैं दृष्टि समाइ ले, सुरतैं सुरति समाइ ।
समझैं समझ समाइ ले, लै सौं लै ले लाइ ॥ 
दादू भावैं भाव समाइ ले, भक्तैं भक्ति समान ।
प्रेमैं प्रेम समाइ ले, प्रीतैं प्रीति रस पान ॥ 
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साभार ~ Sadanand Soham

*एक संन्यासी*
 
एक वृद्ध संन्यासी अपने एक युवा भिक्षु के साथ एक जंगल पार कर रहा था। रात उतर आई, अंधेरा घिरने लगा। तो उस बूढ़े संन्यासी ने युवा संन्यासी को पूछा कि बेटे, रास्ते में कोई डर तो नहीं है, कोई भय तो नहीं है? रास्ता बड़ा जंगल का बीहड़.. अंधेरी रात उतर रही है, कोई भय तो नहीं है?
(SOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOHAM)
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युवा संन्यासी बहुत हैरान हुआ, क्योंकि संन्यासी को… और भय का सवाल ही नहीं उठना चाहिए। संन्यासी को भय का कहां सवाल है! चाहे रात अंधेरी हो और चाहे उजाली हो, और चाहे जंगल हो और चाहे बाजार हो। संन्यासी को भय उठे, यही आश्चर्य की बात है! और इस बूढ़े को आज तक कभी भी नहीं उठा था। आज क्या गड़बड़ हो गई है, इसे भय क्यों उठता है? कुछ न कुछ मामला गड़बड़ है!
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फिर और थोड़े आगे बढ़े। रात और गहरी होने लगी। उस बूढ़े ने फिर पूछा कि कोई भय तो नहीं है? हम जल्दी दूसरे गांव तो पहुंच जाएंगे? रास्ता……कितना फासला है? फिर वे एक कुएं पर हाथ - मुंह धोने को रुके। उस बूढ़े ने अपने कंधे पर डाली हुई झोली उस युवक को दी और कहा सम्हाल कर रखना। उस युवक को खयाल हुआ कि झोली में कुछ न कुछ होना चाहिए, अन्यथा न भय का कारण है और न सम्हाल कर रखने का कारण है।
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संन्यासी भी कोई चीज सम्हाल कर रखे तो गड़बड़ हो गई। फिर संन्यासी होने का कोई मतलब ही न रहा। सम्हाल कर जो रखता है, वही तो गृहस्थ है। सब सम्हाल—सम्हाल कर रखता है, इसीलिए गृहस्थ है। संन्यासी को क्या सम्हाल कर रखने की बात है? बूढा हाथ - मुंह धोने लगा। और उस युवक ने उस झोली में हाथ डाला और देखा सोने की एक ईंट झोली में है। वह समझ गया कि भय किस बात में है। उसने ईंट उठा कर जंगल में फेंक दी और एक पत्थर का टुकड़ा उतने ही वजन का झोली के भीतर रख दिया। बूढा जल्दी से हाथ - मुंह धोकर आया और उसने जल्दी से झोली ली, टटोला, वजन देखा, झोली कंधे पर रखी और चल पड़ा।
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और फिर कहने लगा थोड़ी दूर चल कर कि रात बड़ी हुई जाती है, रास्ता हम कहीं भटक तो नहीं गए हैं? कोई भय तो नहीं है? उस युवक ने कहा अब आप निर्भय हो जाइए, भय को मैं पीछे फेंक आया। वह तो घबड़ा गया। उसने जल्दी से झोली में हाथ डाला - देखा, वहां तो एक पत्थर का टुकड़ा रखा हुआ था। एक क्षण को तो वह ठगा सा खड़ा रह गया और फिर हंसने लगा और उसने कहा मैं भी खूब पागल था। 
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इतनी देर पत्थर के टुकड़े को लिए था तब भी मैं भयभीत हो रहा था, क्योंकि मुझे यह खयाल था कि यह सोने की ईंट भीतर है। था पत्थर का वजन, लेकिन खयाल था कि सोने की ईंट भीतर है तो उसे सम्हाले हुए था। फिर जब पता चल गया कि पत्थर है, उठा कर उसने पत्थर फेंक दिया। झोली एक तरफ रख दी और युवक से कहा अब रात यहीं सो जाएं, अब कहां परेशान होंगे, कहां रास्ता खोजेंगे। फिर रात वे वहीं सो गए।
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तो जिस विचार को आप सोने की ईंट समझे हुए हैं, अगर वह सोने की ईंट दिखाई पड़ता है तो आप उसको सम्हाले रहेंगे, सम्हाले रहेंगे, उससे आप मुक्त नहीं हो सकते। लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूं वह सोने की ईंट नहीं है। वहां बिलकुल पत्थर का वजन है। जिसको आप ज्ञान समझे हैं, वह जरा भी ज्ञान नहीं है, वह सोना नहीं है, वह बिलकुल पत्थर है।
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दूसरों से मिला हुआ ज्ञान बिलकुल पत्थर है। खुद से आया हुआ ज्ञान ही सोना होता है। जिस दिन आपको यह दिखाई पड़ जाएगा कि झोली में ईंट सम्हाले हुए हैं, पत्थर सम्हाले हुए हैं, उसी दिन मामला खत्म हो गया। अब उस ईंट को उठा कर फेंकने में कठिनाई नहीं रह जाएगी।
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कचरे को फेंकने में कठिनाई नहीं रह जाती, सोने को फेंकने में कठिनाई होती है। जब तक आपको लग रहा है कि यह विचार ज्ञान है, तब तक आप इसे नहीं फेंक सकते हैं। यह मन आपका एक उपद्रव का स्थल बना ही रहेगा, बना ही रहेगा, बना ही रहेगा। आप लाख उपाय करेंगे, कोई उपाय काम नहीं करेगा। क्योंकि आप बहुत गहरे में चाहते हैं कि यह बना रहे, क्योंकि आप समझते हैं यह ज्ञान है। जीवन में सबसे बड़ी कठिनाइयां इस बात से पैदा होती हैं कि जो चीज जो नहीं है उसको हम समझ लें, तो सारी कठिनाइयां पैदा होनी शुरू हो जाती हैं। पत्थर को कोई सोना समझ ले तो मुश्किल शुरू हो गई। पत्थर को कोई पत्थर समझ ले, मामला खत्म हो गया।
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तो हमारे विचार की संपदा वास्तविक संपदा नहीं है - इस बात को समझ लेना जरूरी है। इसे कैसे समझें? क्या मेरे कहने से आप समझ लेंगे? अगर मेरे कहने से समझ लिए तो यह समझ उधार हो जाएगी, यह समझ बेकार हो जाएगी। क्योंकि यह मैं कह रहा हूं और आप समझ लेंगे। मेरे कहने से समझने का सवाल नहीं है, आपको देखना पड़े, खोजना पड़े, पहचानना पड़े।
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वह युवक अगर उस बूढ़े से कहता कि चले चलिए, कोई फिकर नहीं है, आपके झोले में ईंट है, पत्थर है, कोई सोना नहीं है, तो इससे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं था, जब तक कि बूढा देख न ले उस झोले में कि ईंट है, सोने की या पत्थर की! युवक कहता तो कोई बात खयाल में आने वाली नहीं थी। हंसता लड़के पर कि लड़का है, नासमझ है, कुछ पता नहीं। या हां भी भर देता तो वह हां झूठी होती, भीतर गहरे में वह ईंट को सम्हाले ही रहता। लेकिन खुद देखा तो फर्क पड़ गया।
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तो अपने मन की झोली में देखना जरूरी है कि जिन्हें हम ज्ञान समझ रहे हैं वह विचार ज्ञान है? उनमें ज्ञान जैसा कुछ भी है या कि सब फिजूल कचरा हमने इकट्ठा कर रखा है? गीता के श्लोक इकट्ठे कर रखे हैं, वेदों के वचन इकट्ठे कर रखे हैं, महावीर, बुद्ध के शब्द इकट्ठे कर रखे हैं और उन्हीं को लिए बैठे हुए हैं और उन्हीं का हिसाब लगाते रहते हैं। उनका अर्थ निकालते रहते हैं, टीकाएं पढ़ते रहते हैं और टीकाएं लिखते रहते हैं और एक - दूसरे को समझाते रहते हैं और समझते रहते हैं।




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