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卐 सत्यराम सा 卐
*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*मन का अँग १०*
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*विरक्तता *
सींप सुधा रस ले रहे,
पीवे न खारा नीर ।
माँहीं मोती नीपजे, दादू बँद शरीर ॥४९॥
४९ में कहते हैं - वैराग्य हो तभी अपरोक्ष ज्ञान होता है - जैसे
शुक्ति स्वाति बिन्दु को लेकर अपना सँपुट बन्द कर लेती है, समुद्र का खारा जल
नहीं पान करती, तब ही उसमें स्वाति बिन्दु मोती रूप को धारण करती है । (समुद्र
का जल उसमें प्रवेश कर जाय तो मोती खराब हो जाता है) । वैसे ही साधक सत्संग -
समुद्र से विचार - सुधा - रस ग्रहण करके अपने मन को विषय - प्रवाह में जाने से
वैराग्य द्वारा बन्द करके निरँतर ब्रह्म - चिन्तन में ही संलग्न रहता है तब उसमें
अपरोक्ष - ज्ञान - रूप मोती अवश्य उत्पन्न होता है ।
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*मन *
दादू मन पँगुल भया, सब गुण गये बिलाइ ।
है काया नव यौवनी, मन बूढ़ा ह्वै जाइ ॥५०॥
५० - ५१ में अपरोक्ष - ज्ञान प्राप्त मन की अवस्था बता रहे हैं
- अपरोक्ष - ज्ञान प्राप्त होते ही आशा - तृष्णा रूप पैर टूट जाने से मन पँगुल हो
जाता है और कामादि सभी गुण उसे त्याग देते हैं । इस समय साधक का शरीर तो नव यौवन
सम्पन्न दिखाई देता है किन्तु मन अति वृद्ध हो जाता है=अति वृद्ध पुरुष के शरीर की
प्रकृति के समान उसकी प्रवृत्ति रुक जाती है ।
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दादू कच्छप अपने कर लिये, मन इन्द्री निज ठौर ।
नाम निरंजन लाग रहु,
प्राणी परहर और ॥५१॥
जैसे कछुआ अपने अँगों को अपनी ढाल के नीचे ले आता है वैसे ही
अपरोक्ष - ज्ञान को प्राप्त प्राणी का मन अन्य साँसारिक विषयों को त्याग कर तथा
अपनी इन्द्रियों को बाह्य विषयों से खींच कर ब्रह्मात्मा रूप निजस्थान पर ले आता
है और ब्रह्मात्मा के अभेद चिन्तन में ही संलग्न रहता है । हे साधक प्राणी ! तू भी
अन्य सबको त्याग कर निरंजन ब्रह्म के नाम चिन्तन में ही लगा रह ।
(क्रमशः)
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