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॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू चरितामृत(भाग-२)*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*= विन्दु ९६ =*
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*= अध्यात्मब्रह्म =*
इसी प्रकार ओंकार द्वारा प्राप्तव्य जो अध्यात्म ब्रह्म है, वह भी चतुष्पात् है । जैसे माण्डूक्य में लिखा है -
“अयमात्मा ब्रह्म, सोsयमात्मा । चतुष्पात् ।”
अध्यात्म के भी निरुक्त और और अनिरुक्त दो भेद हैं । निरुक्त ब्रह्म अवस्था भेद से त्रिधा विभक्त हो जाता है । जाग्रदवस्थाभिमानी चेतन की विश्व और वैश्वानर संज्ञा है । स्वप्नावस्थाभिमानी की तैजस संज्ञा है । सुषुप्ति के अभिमानी की प्राज्ञ संज्ञा होती है । ये तीन भेद साकार अर्थात् निरुक्त की तीन मात्रायें रूप हैं । और इन से परे निराकार अनिरुक्त ब्रह्म है वह कूटस्थ साक्षी है, सर्व प्रपंच से रहित है । इनका वर्णन माण्डूक्योपनिषत् तथा गौडपादीय कारिकाओं में है । उक्त प्रकार अध्यात्म(व्यष्टि ब्रह्म) का उक्त तीन शून्य आकार की से समन्वय होता है ।
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*= अधिदेव ब्रह्म =*
अधि दैवत(समिष्ट ब्रह्म) उक्त प्रकार हि चतुष्पात् है । वह भी निरुक्त, अनिरुक्त भेद से दो प्रकार का है । पृथव्यभिमानी व समिष्ट स्थूल शरीर का अभिमानी समिष्ट चेतन विराट् है । अन्तरिक्षाभिमानी व् समिष्ट सूक्ष्म शरीर के अभिमानी चेतन को हिरण्यगर्भ कहते हैं । ध्युलोकाभिमानी व समिष्ट अज्ञान रूप कारण शरीर के अभिमानी चैतन्य को सर्वज्ञ कहते हैं । ये तीनों साकार स्वरूप हैं और इन सब में अन्तर्व्याप्त अपरिच्छेद्य शुद्ध चैतन्य चतुर्थ अमात्र रूप है ।
१. जाग्रादि-अवस्था - चतुष्टय - जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति भेद से तीन अवस्था हैं, वे साकार हैं, इनसे परे तुरीयावस्था निराकार है ।
२. उत्पत्याद्यवस्था - चतुष्टय - उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय, ये तीनों आकार की हैं । इन से परे इनके आधार शुद्ध चेतन की अवाप्ति(स्वरूप स्थिति ) रूप तुरीयावस्था है, वह निराकार है ।
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*= सांख्यमतानुसार समन्वय =*
सत्व, रज, तम, ये तीन आकार की तीन मात्रा हैं । इन से परेनिर्लेप, निराकार तथा गुणातीत पुरुष है, वह निर्गुण रूप चौथी मात्रा है । सांख्यमत में २५ तत्त्व मानते हैं और उन २५ को चार भेदों में विभक्त करते हैं, प्रकृति, विकृति, प्रकृति विकृति और अनुभव । मूल प्रकृति प्रकृति है । महत्ततत्व, अहंकार, और पंच तन्मात्रायें प्रकृति विकृति है । पंच ज्ञानेन्द्रिय, पंच कर्मेन्द्रिय, पंच महाभूत तथा मन ये विकार(विकृति) हैं । पुरुष न प्रकृति और न विकृति है । प्रकृति, प्रकृति विकृति, विकृति, ये तीन अवस्था आकार को तीन मात्रायें हैं । पुरुष इन से परे अमात्र निर्गुण चतुर्थ मात्रा है । शरीर भेद से समन्वय - स्थूल, सूक्ष्म, कारण भेद से तीन शरीर आकार की तीन मात्रायें हैं, इनसे परे अशरीर आत्मा चतुर्थ निर्गुण मात्रा है ।
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*= वैयाकरण मतानुसार समन्वय =*
१ - वैयाकरण - सिद्धान्त के अनुसार संसार के सब पदार्थ तीन लिंगों में विभक्त हैं - पुल्लिंग, स्त्रीलिंग, नपुंसक लिंग हैं । इन तीनों से से परे अव्यय है, वह ब्रह्म है । इसी अव्यय का स्वरूप श्रुतियों ने निम्न प्रकार कहा है -
“सदृशं त्रिषु लिंगेषु, सर्वासु च विभिक्तिषु ।
वचनेषु च सर्वेषु, यन्न व्येति तदव्ययम् ॥
नैव स्त्री न पुमानेष, न चैवायं नपुंसकः ।
यद्यच्छरीरमादत्ते, तेन तेन स युज्यते ॥”
इनमें तीन लिंग, आकार की तीन मात्रायें हैं और अव्यय रूप ब्रह्म निर्गुण चतुर्थ मात्रा है ।
२ - वैयाकरण शब्द के चार भेद मानते हैं -
परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी । श्रोत्र से स्पष्ट सुनाई देनें वाली वाक् वैखरी है । पद प्रत्यक्ष के बिना ही आन्तरिक ज्ञान के द्वारा जो व्यवहार का करण पड़ती है, वह हृदय देशस्थ वाक् मध्यमा है । लोक व्यवहार से अतीत केवल योगियों के द्वारा समाधि से ज्ञाय - मान जो वाक् है, वह पश्यन्ती है । उक्त तीनों वाणियां सविकल्पक ज्ञान का विषय होती है । इन तीनों से परे योगी व्यवहारातीत जो वाणी है, वह ‘परा’ है । वही वैयाकरणों का शब्द ब्रह्म है । इस वाणी से निर्विकल्पक ज्ञान होता है । इनमें - वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती, ये तीन साकार की तीन मात्रायें हैं । चौथी परा - वाणी निराकार, निर्गुणरूप चौथी मात्रा है, वही अमात्र है ।
(क्रमशः)
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