॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू चरितामृत(भाग-२)*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*= विन्दु ९६ =*
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*= योग दर्शन =*
योग दर्शन में - समाधि, साधन, विभूति और कैवल्य भेद से चार पाद हैं । इनमें आदि के तीन साधन हैं और चौथा कैवल्य साधन है । साधन आकार की तीन मात्रा हैं और कैवल्य चिद्रूप होने से निर्गुण व निराकार चतुर्थ मात्रा है । कर्म चार प्रकार के हैं - कृष्ण, शुक्ल, मिश्र(कृष्ण शुक्ल) और अशुक्लाकृष्ण । दानयागादि शुक्ल कर्म हैं और शुभ फलदाता हैं । ब्रह्म-हत्या, गोवध आदि कृष्ण कर्म हैं । इनसे अशुभ फल नरक गमनादि मिलता है । शुक्ल और कृष्ण दोनों कर्मों का जहां मिश्रण हो वे शुक्ल कृष्ण कर्म हैं । वे मिश्र फल देते हैं । सुख दुःख दोनों देते हैं । चौथा अशुक्लाकृष्ण कर्म हैं । उसको योगिजन फलेच्छा से रहित होकर करते हैं । उससे किसी भी प्रकार का फल नहीं होता है । इनमें आदि के तीन कर्म साकार हैं । अन्त का कर्म अफल स्वरूप होने से निर्गुण रूप है ।
*१ - योग के चार भेद हैं* - मन्त्र, हठ, लय, राजयोग । इनमें आदि तीन साधन हैं और राज योग साध्य है* - “सर्वे हठ लयोपाया राजयोगस्य सिद्धये ॥”
*२ - प्रणायाम के चार भेद हैं - पूरक, रेचक, कुम्भक और केवल कुम्भक । इनसे भी उक्त साखी का समन्वय होता है ।
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*= जैमिनि दर्शन =*
जैमिनि दर्शन में प्रधानतया विधि के चार भेद माने जाते हैं - उत्पत्तिविधि,
विनियोगविधि, प्रयोगविधि और अधिकारविधि । कर्म के स्वरूप का बोधन करने वाली विधि को उत्पत्ति विधि कहते हैं । अंग और प्रधान के संबन्ध को बताने वाली विधि को विनियोग विधि कहते हैं । अंग सहित प्रधान के अनुष्ठान का बोधन करने वाली विधि को प्रयोग विधि कहते हैं । फल के संबन्ध का बोधन करने वाली विधि को अधिकार विधि कहते है । इनमें आदि तीन साधन रूप हैं और अंत की साध्य रूप है । आदि तीन साकार मात्रा रूप हैं । अंत की अपूर्व जन्य स्वर्गादि की प्रतिपादक होने से निराकार स्थानीय है । यद्यपि अपूर्व व स्वर्गादि वस्तुतः निराकार नहीं हैं किंतु अपेक्षाकृत तारतम्य को लेकर भेद होने से समन्वय हो सकता है ।
*वैशेषिक दर्शन* - वैशेषिक - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय व अभाव भेद से सात पदार्थ मानते हैं किंतु मोक्ष को दुःखाभाव रूप मानते हैं । अतः मोक्ष चौथी मात्रा रूप निर्गुण ही है ।
*न्याय दर्शन* - न्याय प्रत्यक्ष, अनुमा, उपमान, शब्द ये चार प्रमाण मानता हैं । आदि के तीन प्रमाण प्रायः साकार बोधक होने से आकार की तीन मात्रायें हैं । शब्द निराकार व निर्गुण का बोधक होने से चौथी मात्रारूप है ।
*आयुर्वेद के चार व्यूह माने गये हैं* - रोग, रोग निदान, भेषज और आरोग्य । आदि तीन साधन रूप होने से साकार मात्रा रूप हैं और आरोग्य शुद्ध - रूप होने से निराकार चतुर्थ मात्रा रूप है ।
*साहित्य* - साहित्य शास्त्र में काव्य के चार भेद माने गये हैं - अधम, मध्यम, उत्तम, उत्तमोत्तम । शब्द चमत्कार प्रधान काव्य अधम होता है । स्पष्ट तथा प्रतीयमान व्यंग्यार्थ चमत्कार से रहित और अर्थ चमत्कार से युक्त मध्यम काव्य होता है । व्यंग्यार्थ जन्य चमत्कार की प्रतीति होने पर भी वाच्यार्थ की प्रधानता वाला उत्तम काव्य होता है । स्पष्ट प्रतीयमान व्यंग्यार्थ की प्रधानता रखने वाला काव्य उत्तमोत्तम कहा जाता है । इनका विशद निरूपण रस - गंगाधर में है । इनमें उत्तमोत्तम ध्वनि कहा जाता है । रस, भाव, रसाभाव, भावाभास आदि इसी ध्वनि काव्य के भेद हैं और रस ‘रसो वै सः’ इस तैत्तिरीय श्रुति के अनुसार ब्रह्म रूप ही है । इससे आदि के तीन काव्य के साकार की तीन मात्रायें हैं । अन्त्य ध्वनि रूप काव्य अव्यक्त चतुर्थ मात्रा है । इसी प्रकार और कितनों से उक्त साखि का समन्वय किया जा सकता है ।
*जैसे - चार आश्रम* - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास ।
*शब्द वृत्ति* - शक्ति, लक्षणा, तात्पर्य और व्यंजना ।
*ऋत्विक भेद* - होता, अध्वर्यु, उदगाता, ब्रह्मा ।
*वेद भेद* - ऋक, यजुः, साम, अथर्व ।
*योगि भेद* - प्रथम कल्पिक, मधुभूमिक, प्रज्ञा ज्योति, अतिक्रान्त भावनीय ।
*भक्त भेद* - आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु, ज्ञानी । रोगारोग्य हेतु अयोग, अतियोग, मिथ्यायोग, समत्वयोग ।
इत्यादिक अनेक शास्त्रों के साथ दादूवाणी की एक साखी का समन्वय होता है तब दादूवाणी की तो पांच हजार संख्या है । उसमें वेदादि शास्त्र सूत्र रूप से हैं यह कथन यथार्थ ही सिद्ध होता है । और पूर्व विन्दु ९५ के अन्त में दादूवाणी के विषयों की संख्या दे आये हैं वहां ५५३ विषय दादूवाणी में हैं, यह बताया गया है ।
इससे सिद्ध होता है कि दादू वाणी महान् ग्रंथ है और जो दादूजी महाराज ने गरीबदासजी को कहा था कि - “मेरी वाणी में सूत्र रूप से सब कुछ मिलेगा ॥” वह उक्त ९५ विन्दु के अंत भाग और ९६ विन्दु के पढ़ने से निर्विवाद सिद्ध होता है ।
उक्त विचार संकेत मात्र ही दिखाये गये हैं, शास्त्रों के वचन यहां नहीं दिये गये हैं । शास्त्रों के वचन रखने से उनका अनुवाद भी देना आवश्यक हो जाता था । बिना अनुवाद सर्व साधारण के उपयोगी नहीं हो सकते थे । विद्वान यदि उक्त विचारों को पढ़ेंगे तो उनको तो पढ़ते पढ़ते ही शास्त्रों के वचन अपने आप ही स्मरण होते जायेंगे । यही विचार करके शास्त्रों के वचन दादू वाणी के वचनों के साथ नहीं दिये गये हैं । मेरे विचार से जो दिया गया है वही पर्याप्त है । विद्वानों के लिये अधिक की आवश्यकता ही नहीं हैं । संकेत ही चाहिये था सो कर दिया गया है ।
(क्रमशः)
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