मंगलवार, 18 अप्रैल 2017

= १८९ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू बिन पाइन का पंथ, क्यों करि पहुँचै प्राण ।
विकट घाट औघट खरे, मांहि शिखर असमान ॥
मन ताजी चेतन चढै, ल्यौ की करै लगाम ।
शब्द गुरु का ताजणां, कोइ पहुंचै साधु सुजाण ॥ 
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साभार ~ Chetna Kanchan Bhagat

जिनके पास कोई आत्मिक अनुभव नहीं, उनके पास गंवाने को भी कुछ नहीं। वै निश्चित रहें। वे बेसुध सोए, वे घोड़े बेचकर सोए, कुछ हर्जा नहीं। लेकिन जब तुम्हारे पास कुछ आने लगे संपदा, तब सावधान होना, तब सजग, सावचेत होना, क्योंकि अब कुछ है जो खो सकता है।
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जो ऊंचाइयों पर चले, उसे बहुत ही जागरूक हो जाना चाहिए क्योंकि वहां से गिरेगा तो हड्डी - पसलियां टूट जाएंगी, चकनाचूर हो जाएगा। जो सपाट भूमि पर चल रहा है, उसे डरने की जरूरत नहीं। वह नशा करके भी चले तो चलेगा। लेकिन अब तुम्हें जरा भी अस्मिता का नशा न आए।
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तुमने देखा न, हमारे पास एक शब्द है : ‘योग - भ्रष्ट’। लेकिन तुमने ‘भोग - भ्रष्ट’ शब्द सुना ? भोगी को भ्रष्ट होने का उपाय नहीं है, इसलिए भोग - भ्रष्ट जैसा शब्द नहीं है। भोगी सपाट जमीन पर चलता है; वहा से गिर ही नहीं सकता। योग - भ्रष्ट कोई हो सकता है, भोग - भ्रष्ट क्या होगा ? योग ऊंचाइयों पर ले जाता है; वहां से पतन संभव है। आकाश में उड़ोगे तो गिर सकते हो, इसलिए जितनी ऊंचाई बढ़े उतनी सजगता। धन्यभागी हो। इस धन्यवाद को प्रगट करना, अनेक - अनेक रूपों में; पर भूलकर भी, अनजान में भी, अचेतन में भी, अस्मिता को मत उठने देना।

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