卐 सत्यराम सा 卐
दोष अनेक कलंक सब, बहुत बुरे मुझ मांहि ।
मैं किये अपराध सब, तुम तैं छाना नांहि ॥
टीका ~ हे परमेश्वर ! हमारे में अनेकों दोष, अनेकों कलंक, अनेकों अपराध, बुरे से बुरे भरे हैं । मेरे अपराध आपसे कोई छुपे नहीं हैं ॥
अंतर की जगन्नाथ जन, जो जानो समर्थ ।
तिनसूं बात बनाइ कर, कहणी सबही व्यर्थ ॥
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सब कुछ व्यापै राम जी, कुछ छूटा नांही ।
तुम तैं कहाँ छिपाइये, सब देखो मांही ॥
टीका ~ हे राम जी ! इस शरीर में हमको सब कुछ व्याप रहे हैं । काम आदि दोष, अहंकार, ये कुछ भी नहीं छूटे हैं अर्थात् रज, तम आदि गुणों की प्रवृत्ति और लोभ, मोह आदि विकार छूटते नहीं हैं । आप तो अन्तर्यामी रूप से सब देख रहे हो ॥
(श्री दादूवाणी ~ बिनती का अंग)
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