卐 सत्यराम सा 卐
दादू कहै सतगुरु शब्द सुनाइ करि, भावै जीव जगाइ ।
भावै अन्तरि आप कहि, अपने अंग लगाइ ॥ २४ ॥
टीका ~ हे परमेश्वर ! आप इन अज्ञानी जीवों को जगावें, सचेत करें, आप अन्तर्यामी हैं । "अंतरि" कहिए अन्त:करण में प्रेरणा पैदा करके, अपने अंग स्वरूपानन्द में लगाओ, अथवा गुरु से शिष्य प्रार्थना करता है, कि हे सतगुरु ! भले ही आप इस जीव को अपने शब्द उपदेशों से सत्यमार्ग का बोध कराओ या हमारे हृदय में अपनी कृपा-दृष्टि द्वारा राम-नाम में प्रेम पैदा करो । अत: जैसे भी बने, इस अज्ञानी जीव को आप अपनी शरण में लीजिए ॥ २४ ॥
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शिष्य की विनती सुनकर दयालु सतगुरु ने शब्द द्वारा शिष्य को उपदेश किया । जिसका शिष्य पर जो प्रभाव हुआ, वह निम्न साखी से स्पष्ट करते हैं :-
*सतगुरु शब्द बाण*
दादू बाहरि सारा देखिये, भीतरि किया चूर ।
सतगुरु शब्दों मारिया, जाण न पावै दूर ॥ २५ ॥
टीका ~ ब्रह्मर्षि दादू दयाल जी महाराज उपदेश करते हैं कि ज्ञान उपदेश द्वारा सतगुरु ने शिष्य की बाह्य वासनाओं का नाश किया, जिससे बाहरी व्यवहार में सारे शरीर की स्थूलतादिक या बाहरी पठन-पाठन वा उपदेशादि देखने में आते हैं, किन्तु भीतरी अहंकार, काम, क्रोधादि वासनामय अन्त: करण का अत्यन्त प्रभाव प्रगट करने के लिए श्री सतगुरु महाराज ने "चूर" पद का प्रयोग किया है । अर्थात् पुन: वासनाओं का उदय होना कदापि सम्भव नहीं है । इसीलिए आगे कहते हैं कि "जाण न पावै दूर" अर्थात् आसुरी विभूतियों के नाश हो जाने से अन्त:करण में जो महानन्द हुआ है, उसको छोड़कर गुरु उपदेश से विमुख मायाकृत पदार्थों में आसक्त नहीं होता है ॥ २५ ॥
लूट लिए सब संत जन, चोरन कियो विचार ।
तुम मारन के हाथ थे, सतगुरु काटे डार ॥
द्रष्टान्त :- ब्रह्मर्षि दादू दयाल जी महाराज के शिष्य पण्डित जगजीवन राम जी, दौसा नगर के टहलड़ी आश्रम में निवास करते थे । आप के यहाँ संतों की खूब सेवा होती थी । एक समय चोरों ने विचार किया कि इस स्थान में हम लोग चोरी करें, क्योंकि यह स्थान धन-धान्य सम्पन्न है । वे चोरी करने आए और सम्पत्ति के गट्ठर बाँधने लगे । संत लोग लेटे हुए देख रहे थे । चोरों ने विचार किया कि ये लोग हमें मना क्यों नहीं करते ? इनसे पूछना चाहिए । चोर बोले :- "महाराज ! हम आपकी सम्पत्ति बांध कर ले जाने को तत्पर हैं । आप लोग हमें मना क्यों नही करते हो ? आप बड़े बली हो, आप में से एक ही हमें सबक सिखा सकता है ।" संत जी बोले:- "तुम्हारे को सबक देने के जो हाथ थे, वे सतगुरु ने हमारे काट दिये । अब दया-पालन, रक्षा करने, के हाथ सतगुरु ने बना दिये । आप सम्पत्ति को ले जाओ और बच्चों को खिला देना ।" यह सुनकर चोर चरणों में पड़ गए और चोरी का कुकर्म छोड़कर सच्चे मानव बन गए ।
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दादू सतगुरु मारे शब्द सौं, निरखि निरखि निज ठौर ।
राम अकेला रह गया, चित्त न आवै और ॥ २६ ॥
टीका ~ पूर्व कही हुई साखी के ही भावार्थ का उल्लेख करते हैं निज अहंत्व या कामना आदि कृपा-सिन्धु सतगुरु, बाह्य विषयों में शिष्य की अहंत्व या ममत्व की शारीरिक या मानसिक चेष्टाओं को खोज-खोज करके शब्द से मारते हैं । ज्ञान उपदेश व ताड़ना द्वारा उनका समूल नाश करते हैं । इसका फल क्या हुआ ? "चित्त न आवै और" अर्थात् जब सतगुरु ने उपदेश द्वारा शिष्य को निरावरण किया, तो फिर अनात्म-वासना चित्त में नहीं उठती, है जिससे फिर केवल राम ही ध्यान में रह जाता है अर्थात् निरंजन राम ही व्याप्त रहता है ॥ २६ ॥
*(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)*
चित्र सौजन्य ~ मुक्ता अरोड़ा स्वरूप निश्चय
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