मंगलवार, 26 दिसंबर 2023

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*जे कबहूँ समझै आत्मा, तौ दृढ़ गह राखै मूल ।*
*दादू सेझा राम रस, अमृत काया कूल ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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धर्म ऐसा गीत है जो तुमने अपने लिए गाया। किसी ने सुन लिया, बात और। और कोई आनंदित हुआ, धन्यभाग ! कोई सुनने न आया, कुछ भेद नहीं पड़ता। क्योंकि मजा गाने में है, किसी के सुनने में नहीं। आनंद तो था गीत के फूटने में, अभिव्यक्ति में। वह किसी ने तालियां बजाईं या निर्जन एकांत ने उसे सुना, कोई भेद नहीं पड़ता। तुम्हारा आनंद पूरा है।
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तुम्हारे आनंद से ही तुम्हारा गीत जन्मा है। गीत के कारण तुम्हें आनंद मिलने वाला नहीं है; आनंद से ही गीत बहा है। तो एक तो दरबारी गवैया है, एक सुबह के पक्षी हैं। दरबारी गवैया गाता है दरबार के लिए। अकबर ने तानसेन से पूछा एक बार कि मैं सदा सोचता हूं--तुझसे श्रेष्ठ कोई गायक नहीं हो सकता।
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तानसेन ने कहा, रुकें। मेरी खुद की ऐसा धारणा नहीं है। अकबर ने कहा, तेरा मतलब ? तानसेन ने कहा, शायद आप समझ पाएं, न समझ पाएं, लेकिन मेरे गुरु अभी जीवित हैं। और मैंने उस व्यक्ति को देखा है। उसके सामने मैं पैरों की धूल भी नहीं हूं। अकबर को बड़ी तीव्र आकांक्षा जगी। उसने कहा, तो फिर गुरु को निमंत्रण दो। जो भी शर्तें होंगी, पूरी कर देंगे। विशेष आयोजन किया जाए।
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तानसेन ने कहा, इसीलिए मैंने कभी गुरु का नाम आपके सामने नहीं लिया। क्योंकि निमंत्रण पर वे नहीं गाते हैं। गाते हैं, तब कोई सुन ले, बात और। फर्माइशी नहीं हैं, दरबारी नहीं हैं। वे आएंगे नहीं। उन्हें लाने का कोई उपाय नहीं है। हम वर्षों उनके चरणों में रहे, लेकिन हमारी आकांक्षा रही हो कि वे गाएं, कभी उन्होंने गाया नहीं। चोरी-चोरी हमें सुनना पड़ा है। इसीलिए मैंने कभी नाम नहीं लिया, क्योंकि आप समझ ही न पाएंगे।
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अकबर को थोड़ी चोट भी लगी। कहा, कौन है यह आदमी ? नाम तो बताओ ! बुला लेंगे। तुम फिक्र छोड़ो। क्योंकि अकबर जैसे लोग जानते ही नहीं कि धन के पार भी कोई चीज है, पद-आकांक्षा के पार भी कोई चीज है। अकबर जैसे व्यक्तियों को ऐसे व्यक्तियों से मिलना करीब-करीब असंभव है, जिन्हें लोभित न किया जा सके, जिन्हें प्रलोभन न दिया जा सके।
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अकबर की तो समझ यही होगी कि हरेक व्यक्ति खरीदा जा सकता है। थोड़ा कम-ज्यादा मूल्य होगा। कोई दस हजार मांगता है, कोई दस लाख मांगेगा, बस ! फर्क मात्रा का होगा, गुण का नहीं हो सकता। उसने कहा, तू फिक्र छोड़, तानसेन। मुझे तू नाम बता। नाम पूछा तो तानसेन को बताना पड़ा। कहा, हरिदास। फकीर हैं। तानसेन की बात सुन कर अकबर हंसने लगा। कहा, फकीर हैं ! बुला लेंगे, पकड़वा लेंगे। धन जो भी खर्च होगा, करवा देंगे। पूरी राजधानी सजाई जाएगी।
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तानसेन की आंख से आंसू बहने लगे। उसने कहा, आप समझे ही नहीं बात। इसीलिए मैं चुप था और आपकी प्रशंसा भी सुन लेता था कि मुझसे बड़ा कोई गायक नहीं। मैं जानता हूं कि बड़ा अभी जीवित है। यह बात--मैंने अपने गुरु को देखा है--यह बात मैं कभी स्वीकार नहीं कर सकता कि मुझसे बड़ा कोई गायक नहीं है।
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लेकिन अगर आपका मुझ पर थोड़ा भी प्रेम है, तो भूल कर भी मेरे गुरु को परेशान न करें। अगर सुनना ही है, सच्ची आकांक्षा उठी है, तो फिर मैं इंतजाम करूंगा। चोरी-चोरी चलना होगा। वे यमुना के किनारे रहते हैं आगरा में। अक्सर वे तीन बजे रात मस्ती में नाचते हैं, गाते हैं। तो मैं पता लगा लूं। तो हम छुप जाएंगे झोपड़ी के बाहर और सुन लेंगे।
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शायद ही किसी सम्राट ने किसी को इस तरह सुना हो। अकबर गया। वह आदमी बहुमूल्य था अकबर भी। उसको भी बात तो समझ में आई कि यह भी हो तो सकता ही है कि ऐसा कोई व्यक्ति हो जो पक्षियों की तरह गाता हो। देख लेना चाहिए। वह अगर तैमूरलंग और नेपोलियन और सिकंदर जैसा अगर होता तो उसकी समझ में न आता।
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वह बुरे लोगों की दुनिया में भला आदमी था। वह गया। रात दो बजे दोनों छिप गए झोपड़े के बाहर। तीन बजे एक अपूर्व संगीत का जन्म हुआ। अकबर के आंसू थमते नहीं हैं। वह रोता ही रहा। बात ही कुछ हृदय के गहरे तक पहुंच गई। जैसे तीर चुभ गया। जैसे पहली दफा संगीत जाना।
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जैसे अब तक जो सुना था वे केवल झूठी छायाएं थीं। जैसे पहली दफा असली संगीत जाना। अब तक जो जाना था वे कार्बन-कापियां थीं। पहली दफा असली संगीत का अनुभव हुआ। अब तक जो जाना था वह दूर से सुनी गई ध्वनि थी। आज पहली दफा पास स्पर्श हुआ। सुनने वाला न रहा अकबर। खो गया।
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ताली बजाने की भी हिम्मत न आ सकी। क्योंकि उससे भी बाधा पड़ेगी। और ताली बेहूदी मालूम पड़ी। इतने बड़े संगीत के लिए ताली नहीं बजाई जा सकती। यह कोई राजनेता का व्याख्यान नहीं है कि ताली बजा दी। क्योंकि ताली बजाने वाला मूढ़ मालूम पड़ेगा। उससे पता चलेगा कि वह समझा ही नहीं; अन्यथा चुप होता, मौन होता।
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चुपचाप, पैर की आवाज न हो जाए, वे भाग कर रथ में बैठ कर वापस लौट गए। रास्ते भर अकबर चुप रहा। तानसेन भी थोड़ा बेचैन हुआ कि वह कुछ बोला नहीं। एक शब्द नहीं कहा। कभी ऐसी घड़ी होती है कि शब्द बोलना नासमझी का सबूत होता है। कभी ऐसी घड़ी होती है, प्रशंसा छोटी मालूम पड़ती है। कभी यह कहना कि बहुत खूब, बहुत छोटी बुद्धि का सबूत होता है। कभी चुप रहना ही एकमात्र प्रशंसा होती है। जितनी बड़ी घटना हो उतनी ही शब्द में समाती नहीं।
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पर आंसू बहते रहे। सीढ़ियों पर महल की, अंदर महल के जाते वक्त उसने इतना ही कहा, तानसेन ! तुम सही हो। मैं सोचता था तुमसे बड़ा कोई गवैया नहीं। अब मैं सोचता हूं कि तुम अपने गुरु जैसा क्यों नहीं गा सकते ? तुम तो मीलों फासले पर हो, बहुत दूर हो। जल्दी करो, अन्यथा जीवन ऐसे ही बीत जाएगा। इतना ही मैं तुमसे पूछना चाहता हूं कि इतना फर्क क्यों है ? और मैं जानता हूं कि तुम कुशल हो। और मैं जानता हूं कि तुम सब भांति योग्य हो। फिर इतना फासला क्यों ?
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तानसेन ने कहा, फासला बहुत साफ है। मैं गाता हूं ताकि कुछ पा सकूं, वे गाते हैं क्योंकि उन्होंने कुछ पा लिया है। मेरे गाने में आकांक्षा है पाने की--पुरस्कार, धन, संपदा, यश, प्रतिष्ठा, सफलता। अन्यथा क्यों आपके दरबार में होता ? मैं दरबारी हूं। वे पक्षी हैं खुले आकाश के। मैं पिंजड़े में बंद तोता हूं। उनका गीत खुले आकाश का गीत है।
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मेरे गीत में मेरे पिंजड़े की छाया पड़ेगी ही। मैं बंधन में हूं। अभी वासना नहीं मिटी। इसलिए जो गाता हूं वह कंठ से ही आता है, हृदय से नहीं आता। उन्होंने किसी के लिए गाया नहीं है, गाने के लिए गाया है। मस्ती में गाया है। किसी से कोई प्रयोजन नहीं है। भीतर से आया है। उनकी गीत की घटना सामाजिक नहीं है, नितांत वैयक्तिक है।
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उनके एकांत का आविर्भाव है। मेरी घटना सामाजिक है। मैं तैयार करता हूं, फिक्र करता हूं। जब मैं गा रहा हूं तब भी चिंता मन में यही बनी रहती है कि प्रशंसा मिलेगी, नहीं मिलेगी ? प्रतिस्पर्धा है, ईष्या है, जलन है, लोभ है, वासना है। इन सबके बीच कैसे उस महासंगीत का जन्म हो सकता है ? वैसा संगीत तो केवल संतों के जीवन में ही होता है।
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आप ठीक कहते हैं। मीलों नहीं, कोसों की दूरी है। मुझसे ज्यादा भलीभांति कोई भी नहीं जानता कि दूरी कितनी बड़ी है। जब तक भीतर की वासना न गिर जाए वह दूरी मिट न सकेगी। दूरी मिटाने से न मिटेगी। दूरी तो मैं ही बदलूंगा तो ही मिटेगी। मैं ही मरूंगा तो ही मिटेगी।
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नये का आविर्भाव होगा तो मिटेगी। धर्म भीतर से पैदा हुआ संगीत है। स्वभावतः नीति उसके साथ बहती चली आती है। लेकिन नीति के साथ धर्म बहता हुआ नहीं चला आता। ऐसा समझो कि तुम सुंदर हो तो तुम्हारा आचरण सुंदर स्वभावतः हो जाता है। तुम ज्योतिर्मय हो तो तुम्हारे कृत्यों में भी ज्योति झलकती है, दीये जलते हैं।
ओशो

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