बुधवार, 24 जुलाई 2024

= ९ =

*🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷*
*🌷🙏 卐 सत्यराम सा 卐 🙏🌷*
*https://www.facebook.com/DADUVANI*
*आन पुरुष हूँ बहिनड़ी, परम पुरुष भरतार ।*
*हूँ अबला समझूं नहीं, तूं जानै करतार ॥*
=============
*साभार ~ @Subhash Jain*
.
*स्त्री का शिष्यत्व*
स्त्री अगर शिष्य हो, तो उससे श्रेष्ठ शिष्य खोजना मुश्किल है। स्त्री का शिष्यत्व श्रेष्ठतम है। कोई पुरुष उसका मुकाबला नहीं कर सकता है। क्योंकि समर्पण की जो क्षमता उसमें है, वह किसी पुरुष में नहीं है। जिस संपूर्ण भाव से वह अंगीकार कर लेती है, ग्रहण कर लेती है, उस तरह से कोई पुरुष कभी अंगीकार नहीं कर पाता, ग्रहण नहीं कर पाता।
.
जब कोई स्त्री स्वीकार कर लेती है, तो फिर उसमें रंचमात्र भी उसके भीतर कोई विवाद नहीं होता है, कोई संदेह नहीं होता है; उसकी आस्था परिपूर्ण है। अगर वह मेरे विचार को या किसी के विचार को स्वीकार कर लेती है, तो वह विचार भी उसके गर्भ में प्रवेश कर जाता है। वह उस विचार को भी, बीज की तरह, गर्भ की तरह अपने भीतर पोसने लगती है।
.
पुरुष अगर स्वीकार भी करता है, तो बड़ी जद्दो-जहद करता है, बड़े संदेह खड़ा करता है, बड़े प्रश्न उठाता है। और अगर झुकता भी है, तो वह यही कह कर झुकता है कि आधे मन से झुक रहा हूँ, पूरे से नहीं। शिष्यत्व की जिस ऊंचाई पर स्त्रियां पहुंच सकती हैं, पुरुष नहीं पहुंच सकते। क्योंकि निकटता की जिस ऊंचाई पर स्त्रियां पहुंच सकती हैं, पुरुष नहीं पहुंच सकता -- स्वीकार की, समर्पण की।
.
और चूंकि स्त्रियां बहुत अदभुत रूप से, गहन रूप से, श्रेष्ठतम रूप से, शिष्य बन सकती हैं, इसलिए गुरु नहीं बन सकतीं। क्योंकि शिष्य का जो गुण है, वही गुरु के लिए बाधा है। गुरु का तो सारा कृत्य ही आक्रमण है। वह तो तोड़ेगा, मिटाएगा, नष्ट करेगा; क्योंकि पुराने को न मिटाए, तो नए का जन्म नहीं हो सकता है।
.
तो गुरु तो अनिवार्य रूप से विध्वंसक है; क्योंकि उसी से सृजन लाएगा। वह आपकी मृत्यु न ला सके, तो आपको नया जीवन न दे सकेगा। स्त्री की वह क्षमता नहीं है। वह आक्रमण नहीं कर सकती, समर्पण कर सकती है। समर्पण उसे शिष्यत्व में तो बहुत ऊंचाई पर ले जाता है।
.
लेकिन स्त्री कितनी ही बड़ी शिष्या हो जाए, वह गुरु नहीं बन सकती। उसका शिष्य होने का जो गुणधर्म है, जो खूबी है, वही तो बाधा बन जाती है कि वह गुरु नहीं हो सकती है..
सद्गुरु ओशो

1 टिप्पणी:

  1. " स्त्री कितनी ही बड़ी शिष्या हो जाए, वह गुरु नहीं बन सकती। "~ इसी भ्रमपूर्ण दकियानूसी मान्यता (delusional beliefs) को दूर करने के लिए स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस देव ने तंत्रसाधना के लिए भैरवी ब्राह्मणी को अपने प्रथम गुरु के रूप में ग्रहण किया था।
    श्रीरामकृष्ण ने यह अनुभव किया कि श्रीजगन्माता (माँ भवतारिणी काली ) की आज्ञा से ही भैरवी ब्राह्मणी को गुरु मानकर "गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा ~Be and Make " की शास्त्रीय प्रणाली का अवलंबन कर श्रीजगन्माता का साक्षात्कार करने का अवसर प्राप्त हुआ है। क्योंकि पार्थिव विभिन्न विषयों में संलग्न ( अर्थात कामिनी -कांचन और नाम- यश की ऐषणाओं में घोर रूप से आसक्त) हमारे ह्रदय के भीतर वह उपरति (detachment) तथा एकाग्रता (concentration of Mind) कहाँ है ? मानस समुद्र (हृदय सागर) के विचित्र और प्रबल आकर्षक रंग-रसपूर्ण तरंगों में न तैरकर उसके तली को स्पर्श करने के उद्देश्य से सर्वस्य त्यागकर (नामरूप में आसक्ति को त्यागकर) निमग्न होने या गोता मारकर डूब जाने का असीम साहस हममें कहाँ है ?
    --'एकदम डूब जाओ ', 'स्वयं अपने अन्दर डूब जाओ ' कहकर श्रीरामकृष्णदेव बारम्बार जैसे हमें प्रोत्साहित किया करते थे , ठीक वैसे ही संसार के समस्त पदार्थ तथा अपने शरीर की माया-ममता का परित्यागकर कर आत्मस्वरूप में विलीन हो जाने का सामर्थ्य हममें कहाँ है ?
    [आत्मा में कोई लिंगभेद नहीं है - किन्तु ....... ] श्रीजगन्माता वास्तव में हैं , तथा सर्वस्व त्यागकर व्याकुल हो पुकारने पर अवश्य ही उनका दर्शन मिलता है - क्या हम इस बात पर श्री राकृष्णदेव की तरह सरल रूप से विश्वास करते हैं ? (श्रीरामकृष्णदेव की तन्त्रसाधना, श्रीरामकृष्ण लीला प्रसंग -पृष्ठ २८६ -२८९)

    जवाब देंहटाएं