बुधवार, 31 जुलाई 2024

*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग १३३/१३६*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग १३३/१३६*
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कहि जगजीवन बुहारी, भगति करी झाड़ि ।
सुमिरन करि सेवा करी, सुक्रित की करि बाड़ि ॥१३३॥ 
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इस बुहारी को भी ज्ञान व भक्ति से विकार रहित करें । स्मरण करके सेवा भी करें तो सुकृत्य की भरमार हो जायेगी ।
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चौ९ चहुंदिसि मासौ व्रिषा९, षट रितु१० षट रस११ भोग ।
कहि जगजीवन बिरहणी, बिलसि बिरहि हरि जोग ॥१३४॥
(९-९. चौ चहुँ दिस मासौ व्रिषा-वर्षा ऋतू के चार महीनों को चौमासा कहते हैं) (१०. षट रितु=छह ऋतु । १. वसन्त, २. ग्रीष्म, ३. वर्षा, ४. शरत, ५. हेमन्त एवं ६.शिशिर)     (११. षट रस=छह रस । १. मधुर, २. अम्ल, ३. लवण, ४. कटु, ५. कषाय एवं ६ तिक्त)  
संतजगजीवन जी कहते हैं कि वर्षा ऋतु के चार माह चौमासा कहे जाते हैं । कुल छः ऋतुयें होती है । जिनमें जीव भोग विलास करते हैं । किंतु प्रभु विरही आत्मा का तो यह चौमासा प्रभु न मिलने के कारण आतुर व्याकुल अवस्था में ही व्यतीत होता है ।
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चा चेतनि चरणै लपटि, करी क्रिपा हरि जांणि ।
कहि जगजीवन बंदगी खिजमति१२ खसम१३ पिछांणि ॥१३५॥
(१२. खिजमति=पतिसेवा)    (१३. खसम=पति =स्वामी)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि च से चिंतामणि चेतन स्वरूप प्रभु के चरणों से लिपटो या वन्दन करो । अपना प्रभु जान कर पहचान कर उनकी खिदमत या सेवा करें ।
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गो पृथमी रु बदन हर, त्रिंण१ छरी सरवै दूध२ ।
कहि जगजीवन रांम भगति करि, अरथ पिछांणै सुध३ ॥१३६॥
{१. त्रिंण=तृण(घास)}    (२. सरवै दूध=दूध देती है)   {३. सूध=शुद्ध(यथार्थ)}
संत कहते हैं कि जीव पृथ्वी से ज्ञान रुपी तृण से पोषित हो अमृत रुपी(भक्ति) दूध प्रदान करती है । वह सच्चे अर्थों में प्रभु भक्ति का रहस्य जान जाती है ।
(क्रमशः) 

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