सोमवार, 22 जुलाई 2024

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*ज्यों रचिया त्यों होइगा, काहे को सिर लेह ।*
*साहिब ऊपरि राखिये, देख तमाशा येह ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain
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जो लिखा है वह होगा। जो उसने लिख रखा है वही होगा। अपनी तरफ से कुछ भी करने का उपाय नहीं है। कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। फिर चिंता किसको ? फिर बोझ किसको ? जब तुम बदलना ही नहीं चाहते कुछ, जब तुम उससे राजी हो, उसकी मर्जी में राजी हो, जब तुम्हारी अपनी कोई मर्जी नहीं, तब कैसी बेचैनी ! तब कैसा विचार ! तब सब हलका हो जाता है। पंख लग जाते हैं। तुम उड़ सकते हो उस आकाश में, जिस आकाश का नाम है–इक ओंकार सतनाम। नानक की एक ही विधि है। और वह विधि है, परमात्मा की मर्जी। वह जैसा करवाए। वह जैसा रखे।
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ऐसा हुआ कि बल्ख का एक नवाब था, इब्राहीम। उसने बाजार में एक गुलाम खरीदा। गुलाम बड़ा स्वस्थ, तेजस्वी था। इब्राहीम उसे घर लाया। इब्राहीम उसके प्रेम में ही पड़ गया। आदमी बड़ा प्रभावशाली था। इब्राहीम ने पूछा कि तू कैसे रहना पसंद करेगा ? तो उस गुलाम ने मुस्कुरा कर कहा, मालिक की जो मर्जी। मेरा कैसा, मेरे होने का क्या अर्थ ? आप जैसा रखेंगे वैसा रहूंगा। इब्राहीम ने पूछा, तू क्या पहनना, क्या खाना पसंद करता है ? उसने कहा, मेरी क्या पसंद ? मालिक जैसा पहनाए, पहनूंगा। मालिक जो खिलाए, खाऊंगा।
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इब्राहीम ने पूछा कि तेरा नाम क्या है ? हम क्या नाम ले कर तुझे पुकारें ? उसने कहा, मालिक की जो मर्जी। मेरा क्या नाम ? दास का कोई नाम होता है ? जो नाम आप दे दें। कहते हैं, इब्राहीम के जीवन में क्रांति घट गई। उठ कर उसने पैर छुए इस गुलाम के और कहा कि तूने मुझे राज बता दिया जिसकी मैं तलाश में था। अब यही मेरा और मेरे मालिक का नाता। तू मेरा गुरु है। तब से इब्राहीम शांत हो गया। जो बहुत दिनों के ध्यान से न हुआ था, जो बहुत दिन नमाज पढ़ने से न हुआ था, वह इस गुलाम के सूत्र से मिल गया।
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हुकमि रजाई चलणा नानक लिखिआ नालि।
सोचो, थोड़ा प्रयोग करो। जैसा रखे, रहो। अपनी तरफ से तुमने बहुत कोशिश करके भी देख ली, क्या हुआ ? तुम वैसे के वैसे हो। जैसा उसने भेजा था उससे विकृत भला हो गए हो, उससे सुकृत नहीं हुए हो। जैसे आए थे बचपन में भोले-भाले, उतना भी नहीं बचा हाथ में। स्लेट गंदी हो गई है, तुमने सब लिख डाला। पाया क्या है ? सिवाय दुख, तनाव, संताप के क्या तुम्हारे हाथ लगा है ? थोड़े दिन नानक की सुन कर देखो। छोड़ दो उस पर।
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इसलिए नानक कहते हैं, न जप, न तप, न ध्यान, न धारणा। एक ही साधना है–उसकी मर्जी। जैसे ही तुम्हें खयाल आएगा उसकी मर्जी का, तुम पाओगे भीतर सब हलका हो जाता है। एक गहन शांति, एक वर्षा होने लगती है भीतर, जहां कोई तनाव नहीं, कोई चिंता नहीं। पश्चिम में इतना तनाव और चिंता है। पूरब से बहुत ज्यादा। हालांकि पूरब बहुत गरीब है, दुखी है, बीमार है, रुग्ण है; भोजन नहीं, कपड़े नहीं, छप्पर नहीं। पश्चिम में सब है, फिर भी चिंता, तनाव ! इतना तनाव है कि करीब-करीब चार आदमी में तीन आदमी विक्षिप्त हालत में हो गए हैं।
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क्या कारण है ? क्योंकि पश्चिम ने अपनी मर्जी चलाने की कोशिश की है। आदमी को पश्चिम में भरोसा है, हम सब कर लेंगे। भगवान के कोई सहारे की जरूरत नहीं। भगवान है ही नहीं। आदमी सब कर लेगा। तो उसने बहुत कुछ कर भी लिया है। लेकिन आदमी बिलकुल खो गया है, पागल हुआ जा रहा है। बाहर बहुत कुछ कर लिया, भीतर सब रुग्ण हो गया। अगर तुम्हारे जीवन में यह सूत्र उतर जाए तो कुछ करने को नहीं बचता। जैसा हो रहा है होने दो।
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तुम तैरो मत, बहो। नदी से लड़ो मत। नदी दुश्मन नहीं है, मित्र है। तुम बहो। लड़ने से दुश्मनी पैदा होती है। और जब तुम उलटी धार तैरने लगते हो तो नदी तुमसे संघर्ष करने लगती है। तुम सोचते हो नदी मुझ से दुश्मनी ले रही है। नदी को क्या दुश्मनी ? नदी को तुम्हारा पता भी नहीं है। तुम अपने ही हाथ उलटी धारा बह रहे हो। तुम्हारी मर्जी, यानी उलटी धारा। अहंकार, यानी उलटी धारा।
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उसकी मर्जी–तुम धारा के साथ एक हो गए। अब नदी जहां ले जाए वही मंजिल है। जहां लगा दे वही किनारा है। डुबा दे, तो वह भी मंजिल है। फिर कैसी चिंता ! फिर कैसा दुख ! तुमने दुख की जड़ काट दी। बड़ा कीमती यह सूत्र है ! नानक कहते हैं, उसके हुक्म और उसकी मर्जी के अनुसार। जैसा उसने नियत कर रखा है, लिख रखा है, उसके अनुसार चलने से ही यह हो सकता है। तो नानक ने अहंकार के सब द्वार बंद कर दिए। पहले तो, गुरुप्रसाद। कि तुम जो भी करो, जो भी उपलब्धि हो, वह गुरु की कृपा। और फिर जो भी हो, जीवन की धारा वह जहां ले जाए, उसका हुक्म। फिर कुछ और करने को बचता नहीं।
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और तब ज्यादा देर न लगेगी कि तुम्हें भी पता चल जाए–
इक ओंकार सतिनाम
करता पुरखु निरभउ निरवैर।
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुरु प्रसादि।
आदि सचु जुगादि सचु।
है भी सचु नानक होसी भी सचु।
सोचे सोचि न होवई जे सोची लख बार।
चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिवतार।
भुखिया भुख न उतरी जे बंना पुरीआं भार।
सहस सियाणपा लख होहि, त इक न चले नालि।
किव सचियारा होइए, किव कूड़ै तुटै पालि।
हुकमि रजाई चलणा नानक लिखिआ नालि।
आज इतना ही।
ओशो

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