परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी

मंगलवार, 13 अगस्त 2024

दिन जाइ रे अहलौ राम बिना

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू अवसर चल गया, बरियां गई बिहाइ ।*
*कर छिटके कहँ पाइये, जन्म अमोलक जाइ ॥*
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दिन जाइ रे अहलौ राम बिना ।
सो दिन लेखै न लाइ, जो दिन राम बिना ॥टेक॥
बालापण यौंही गयौ, तरनापै बहू चींतौ रे ।
पछैं बुढ़ापौ आइयौ, ना धन हुवौ न मींतौ रे ॥
रैंणि गमाई सोवताँ, दिन ग्रिह के ब्यौहारै रे ।
और जनम कब आवसी, अबकै बैठौ हारे रे ॥
मूढै राम न जानियौ, धन जोबन उदमादे रे ।
बषनां बारौ बहि गयौ, जनम गमायौ बादे रे ॥१०॥
अहलौ = व्यर्थ । लेखै = गिनती में । तरनापै = तरुण अवस्था । चींतौ = चिंता-फिक्र । मींतौ = मित्र । मूढै = मूर्ख । उदमादे = गर्व से गर्वित । बारौ = समय । बादै = व्यर्थ । बहि गयौ = चला गया ॥
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राम नाम स्मरण के बिना दिन पर दिन व्यर्थ जा रहे हैं । वे दिन गिनने योग्य नहीं हैं अथवा वे दिन सदुपयोग किये नहीं माने जाते जो बिना राम नाम स्मरण के व्यतीत हो जाते हैं ।
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बालावस्था खेलने-कूदने, खाने-पीने में योंही = निष्प्रयोजन ही व्यतीत हो जाती है । मध्यावस्था = जवानी में घर-गृहस्थी की अनेकों चिंताएं लग जाती हैं ‘गृह कारज नाना जंजाला । ते अति दुर्गम सैल बिसाला’ । किन्तु इन्हीं कार्यों को यदि अकर्त्ताभाव से करे तो इस गृहस्थाश्रम व जवानी के बराबर सुखद और कुछ है ही नहीं ‘ज्येष्ठाश्रमोगृही’ । (महाभारत) इसके पश्चात् वृद्धावस्था आती है जिसमें शरीर अशक्त हो जाता है और वह धन भी काम नहीं आता जो जवानी में वृद्धावस्था के लिये येन-केन प्रकारेण करके संगृहीत किया था ।
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रात्रि सोने में व्यतीत हो जाती है । दिन घर के काम-काजों को संपादित करने में व्यतीत हो जाता है । इनके अतिरिक्त और समय कहाँ से आयेगा जिसमें परमात्म-चिंतन किया जा सके । पता नहीं पुनः मनुष्य जन्म कब मिलेगा । इसबार तो मनुष्य जन्म को गवाँ बैठे । ‘लख चौरासी भुगतताँ, बीति जाइ जुग चारि । पीछै नरतन पायगा, ताते राम संभारि ॥’
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मूढ़ = मूर्ख (जो अपना भला-बुरा न समझे) ने राम नाम माहात्म्य को इस मनुष्य जन्म में जाना हो नहीं, यह तो धन और यौवन के मद में ही उन्मत्त बना रहा । राम नाम का स्मरण किया ही नहीं । बषनांजी कहते हैं, मनुष्य जन्म रूपी अवसर यों ही = व्यर्थ ही व्यतीत हो गया । जन्म व्यर्थ ही गवाँ दिया ॥१०॥
(क्रमशः)

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