सोमवार, 26 अगस्त 2024

*४४. रस कौ अंग १/४*

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*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४४. रस कौ अंग १/४*
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जगजीवन रस पीजिये, रोम रोम घटि शोध ।
काया कंचन कीजिये, नख सिख नाद निरोध ॥१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि स्मरण रूपी रसपान रोम रोम में उपस्थिति सुनिश्चित करके कीजिये । सम्पूर्ण देह में अनहद रोकें उसे बाह्य प्रखट न होने दें तो यह देह कंचन हो जायेगी प्रभु की नजर में इसका मूल्य होगा ।
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जगजीवन रस पीजिये, रोकि रोकि सब ठांम ।
घट बाही७ ए बोहड़ा८, निरमल हरि का नांम ॥२॥
(७. घट बाही-घट बढ़) {८. बोहड़ा=बोहरा (साहूकार)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु नाम के आनंदरस को शीघ्रता से नहीं रोक(समापन) कर लंबे समय तक आनंदपूर्वक पान कीजिये । जिससे वह पूरी देह में समा जाये । कहीं अधिक कहीं कम यह तो साहूकार स्वयं आंकेगा पर यह है बड़ा निर्मल इससे परिपूर्ण रहो ।
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जगजीवन रस पीजिये, उनमन धरिये ध्यांन ।
तन मन भीतर खोजिये, तो उपजै ब्रह्म ग्यांन ॥३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि संसार से उदासीन होकर प्रभु नाम का स्मरण कीजिये । और अपने अंदर ही परमात्मा की खोज करें तो वहाँ ब्रह्म ज्ञान अवश्य मिलेगा ।
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जगजीवन रस पीजिये, मन मन सूं गुन गालि१ ।
बांध सकै तो बांधिये, पांणी पहली पालि२ ॥४॥
(१. गालि=भिगो कर) {२. पालि=जल रोकने के लिए बांध(मैंड़)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि भक्ति रस का आनंद मन से उत्पन्न गुणों से ओतप्रोत हो वैसा ही स्मरण कीजिये । और जीवन में विषयों की बाढ आने से पहले ही संयम रुपी बांध बांध दीजिये जिससे विषयों का वेग सर्वत्र प्रसारित न हो ।
(क्रमशः)

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