परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी

मंगलवार, 27 अगस्त 2024

*बषनां बहुरि बुढ़ापौ आयौ*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*आपै मारै आपको, आप आप को खाइ ।*
*आपै अपना काल है, दादू कहि समझाइ ॥*
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जोबनियाँ कै गारै गर्ब्यौ, केवल राम न ध्यायौ ।
मनमान्यूँ जगदीस न जान्यूँ, बिकल बुढ़ापौ आयौ ॥टेक॥
बारा ब्रस बालापनि खोये, बीस तीस मदि मातौ ।
मुड़ि मुड़ि चालै छाँह निहारै, आलि करै पँथि जातौ ॥
बिषै सरोवरि माँहै झूल्यौ थाकि रह्यौ बिछी गाभै ।
झाडाँ हाथ घणा ही घालै, नाँव जिहाज न लाभै ॥
चोराँ सेती हिलिमिलि बरत्यौ, साहाँ स्यौं र ठगाई ।
धरमराइ जब लेखा मांग्यौ, तब कागदि अतौ न काई ॥
ना हरि भज्यौ न सुकृत कीन्हौं, अपनैं जोरै बारै ।
बषनां बहुरि बुढ़ापौ आयौ, भयौ पराये सारै ॥११॥
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जोबनियाँ = यौवन । गारै = कीचड़, मद में । गर्ब्यौ = उन्मत्त हो गया । केवल = निष्केवल = निर्गुण-निराकार रामजी । मनमान्यूँ = मन के मतानुसार जीवन संचालित किया । बिकल = व्यथित करने वाला । बारा ब्रष = द्वादश वर्ष । मदिमातै = विषयभोगों में आकंठ डूबे रहे । आलि = छेड़छाड़ । झूल्यौ = निमग्न । गाभै = स्वादिष्ट भोजन । झाडाँ = बध, हत्याएँ । ठगाई = धूर्तता । अतौ = संचय । अता-पता = ठौर-ठिकाना । बारै = वहिर्मुख । सारै = आश्रय में ॥
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यौवन रूपी दलदल(मद) से उन्मत्त हुए तुझ संसारी ने निष्केवल रामजी की उपासना नहीं की । पूरे जीवन वही किया जिसको मन ने करणीय माना । जगत् के स्वामी रामजी को जानना तो दूर जानने का प्रयत्न तक नहीं किया । अन्त में व्यथित करने वाला बुढ़ापा आ पहुँचा ।
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तूने प्रारम्भिक द्वादशवर्षीय जीवन खेलने-कूदने में व्यतीत कर दिया । अगले बीस-तीस वर्ष विषयों को सम्पादित करने और भोगने में व्यतीत कर दिये । चलते समय मुड़-मुड़कर अपनी परछाही को देखता है, बार बार अपनी सुन्दरता को देखता है और विचार करता है कि मैं कितना सुन्दर, सुडौल आकर्षक युवक हूँ जिसको देखते ही रमणियाँ आकर्षित हो जाती है । रास्ते में चलते समय राहगीर युवतियों से छेड़खानी करता है ।
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विषय भोग रूपी सरोवर में आकण्ठ डूबा हुआ है । अच्छे-अच्छे स्वादिष्ट भोजनादि को खाने में ही लगा रहता है । अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु अन्यों के स्वाभिमान को हाथों हाथ समाप्त करने के लिये तत्पर रहता है किन्तु भगवन्नाम स्मरण रूपी नाव में बैठना कभी पसन्द नहीं करता ।
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चौरों से मित्रता रखता है जबकि साहूकारों से धूर्तता करता है । मरने के उपरान्त चित्रगुप्त से जब यमराज ऐसे लोगों का पुण्यापुण्य का हिसाब पूछता है तब इनके खाते में पुण्यों की एक प्रविष्टि तक नहीं मिलती । मिले भी कैसे ?
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जीवनभर न तो हरि = परमात्मा का भजन ध्यान ही किया और न दान-पुण्य रूपी अच्छे कर्म ही किये । बस, सदा अपने बल पर ही आश्रित रहता हुआ परमात्म-पथ से विमुख रहता रहा । बषनांजी कहते हैं, यौवन के अनन्तर वृद्धावस्था आने पर पराश्रित हो जाता है ॥११॥
(क्रमशः)

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