परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी

सोमवार, 26 अगस्त 2024

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*दादू एता अविगत आप थैं, साधों का अधिकार ।*
*चौरासी लख जीव का, तन मन फेरि सँवार ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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एक बौद्ध भिक्षु रास्ते से गुजर रहा है। सुंदर है। एक वेश्या ने उसे रास्ते से गुजरते देखा। और उन दिनों वेश्या बड़ी बहुमूल्य बात थी। इस मुल्क में उन दिनों बिहार में, बुद्ध के दिनों में जो नगर में सबसे सुंदर युवती होती, वही वेश्या हो सकती थी। एक समाजवादी धारणा थी वह। वह धारणा यह थी कि इतनी सुंदर स्त्री एक व्यक्ति की नहीं होनी चाहिए। इसलिए इसको पत्नी नहीं बनने देंगे। इतनी सुंदर स्त्री सबकी ही हो सकती है। इसलिए वह नगर-वधू कही जाती थी। और नगर-वधू का सौभाग्य श्रेष्ठतम स्त्रियों को मिलता था।
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यह नगर-वधू थी, और उसने अपने महल से नीचे झांककर देखा, और यह शानदार भिक्षु अपनी मस्ती में चला जा रहा है। वह मोहित हो गई। वह भागी। उसने जाकर भिक्षु का चीवर पकड़ लिया। और कहा कि ‘रुको। सम्राट मेरे महल पर दस्तक देते हैं, लेकिन सभी को मैं मिल नहीं पाती; क्योंकि समय की सीमा है। यह पहला मौका है, मैं किसी के द्वार पर दस्तक दे रही हूं। तुम आज रात मेरे पास रुक जाओ।’
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भिक्षु संत ही रहा होगा। उसकी आंखों में आंसू आ गए। उस वेश्या ने पूछा कि ‘आंख में आंसू ?’ उसने कहा, ‘इसीलिए कि तुम जो मांगती हो, वह मांगने जैसा भी नहीं है। तुम्हारे अज्ञान को, तुम्हारे अंधेरे को देखकर पीड़ा होती है। आज तो तुम युवा हो, सुंदर हो। अगर मैं न भी रुका आज रात तुम्हारे घर, तो कुछ बहुत अड़चन न होगी। बहुत युवक प्यासे हैं तुम्हारे पास रुकने को। लेकिन जब कोई तुम्हारे द्वार पर न आए, तब मैं आऊंगा।’
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यह संत का व्यवहार है। मना नहीं किया उसने, कि मैं नहीं आता। उसने कहा, मैं आऊंगा, लेकिन अभी तो बहुत बाजार पड़ा है। अभी मेरी कोई जरूरत भी नहीं है। लेकिन जिस दिन कोई न होगा...ज्यादा देर न लगेगी, यह भीड़ छंट जाएगी। आज सुंदर हो, कल कुरूप हो जाओगी, गांव के बाहर फेंक देंगे। और जिस दिन कोई न होगा, उस दिन मैं आऊंगा। मुझे भी तुमसे प्रेम है, लेकिन प्रेम प्रतीक्षा कर सकता है।
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उस वेश्या की समझ में कुछ न आया। क्योंकि वासना तो बिलकुल अंधी है, वह कुछ नहीं समझ पाती। करुणा के पास आंखें हैं, वासना के पास कोई आंखें नहीं हैं। लोग कहते हैं, प्रेम अंधा है। वह जो प्रेम वासना से भरा है, निश्चित ही अंधा है। बीस वर्ष बाद, अंधेरी रात है अमावस की। और एक स्त्री पड़ी है गांव के बाहर और तड़प रही है। क्योंकि गांव ने उसे बाहर फेंक दिया। वह कोढ़ ग्रस्त हो गई। यह वही वेश्या है, जिसके द्वार पर सम्राट दस्तक देते थे। अब दस्तक देने का तो कोई सवाल नहीं है। अब उसके शरीर से बदबू आती है। 
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उस अंधेरी रात में सिर्फ एक भिक्षु उसके सिर के पास बैठा हुआ है। वह करीब-करीब बेहोश पड़ी है। बीच-बीच में उसे थोड़ा-सा होशआता है, तो भिक्षु कहता है, ‘सुन, मैं आ गया ! अब भीड़ जा चुकी है। अब कोई तेरा चाहने वाला न रहा। लेकिन मैं तुझे अब भी चाहता हूं। और मैं कुछ तुझे देना चाहता हूं, कोई सूत्र, जो जीवन को निश्चित ही तृप्ति से भर देता है। उस दिन तूने मांगा था, लेकिन उस दिन तू ले न पाती। और जो तू मांगती थी, वह देने योग्य नहीं है। प्रेम उसे नहीं दे सकता है।’
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बौद्ध कहते हैं इस कथा के संबंध में, कि वह भिक्षुणी, वह जो स्त्री थी, वह उस रात दीक्षित हुई। भिक्षुणी की तरह मरी। और परम तृप्त मरी। और बौद्ध कहते हैं कि वह बुद्धत्व को उपलब्ध हुई। इसने उसे ध्यान दिया। प्रेम ध्यान ही दे सकता है। क्योंकि उससे बड़ा देने योग्य कुछ भी नहीं।
ओशो, बिन बाती बिन तेल, प्रवचन--13

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