परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी

शुक्रवार, 2 अगस्त 2024

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*दादू राम हृदय रस भेलि कर,*
*को साधु शब्द सुनाइ ।*
*जानो कर दीपक दिया, भ्रम तिमिर सब जाइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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पंडित संप्रदाय बनाता है। संत धर्म को उतार आता है। एक बहुत आश्चर्य की घटना भारत के इतिहास में घटी है। महावीर में धर्म उतरा। लेकिन महावीर का जिन्होंने शब्द संग्रह किया वे सभी ब्राह्मण थे। महावीर तो क्षत्रिय थे, उनके ग्यारह ही गणधर ब्राह्मण थे, पंडित थे। 
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मेरे देखना है कि महावीर ने जो दिया था वह इन ग्यारह पंडितों ने बुझा दिया। महावीर ने उतारा था इस जगत में, उतर भी न पाया कि इन ग्यारह शास्त्रविदों ने उसे शास्त्रों में ढांक दिया, दबा दिया। बुद्ध के साथ भी यही हुआ।
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इस लिहाज से सहजोबाई, कबीर, दादू सौभाग्यशाली हैं। ये इतने सीधे-साधे लोग थे, और इतने दीन-दरिद्र घरों से आए थे कि बड़े पंडित इन्हें अनुयायियों की तरह नहीं मिल सके। महावीर, बुद्ध को मिल गए, क्योंकि वे राजघरानों के लोग थे, शाही परिवार से आए थे। 
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उनके पास खड़े होने में पंडितों के अहंकार को बड़ी तृप्ति मिलती थी। ये दुर्भाग्य सिद्ध हुआ। क्योंकि पंडितों ने भीड़ कर ली खड़ी चारों तरफ एक वर्तुलकार घेरा डाल दिया। साधारणजन से ज्यादा उत्सुकता उन्होंने दिखायी, क्योंकि बुद्ध के पास होना ही काफी अहंकार को पुष्ट करता था।
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सहजोबाई के पास कौन आकर खड़ा होगा ! एक साधारण ग्रामीण स्त्री है। पंडित तो कहेंगे, ये जानती ही क्या है ? इससे ज्यादा तो हम जानते हैं। मन में तो शायद उनके यही बात महावीर और बुद्ध के बाबत भी रही होगी कि इनसे ज्यादा हम जानते हैं, लेकिन कह न सके–ये राजपुत्र थे।
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इनकी महिमा का दूर-दूर तक प्रकाश फैला था। इनके पास खड़े होकर इनकी महिमा का थोड़ा सा हिस्सा वे भी बांट लेना चाहते थे। सहजोबाई की कौन पंडित फिकर करेगा ?
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कबीर काशी में ही रहे, किसी पंडित ने कभी दाद न दी। कौन दाद देगा ? न संस्कृत जानते हो, न प्राकृत जानते हो, न पाली जानते हो; न गीता का कुछ पता, न समय सार की कोई पहचान, न धम्मपद से कोई संबंध है, तुम्हें फिकर कौन करेगा ?
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तुम जो कह रहे हो वह भाषा जुलाहे की है, ज्ञानियों की नहीं। कबीर कहते हैं–झीनी- झीनी बीनी रे चदरिया। बुद्ध नहीं कह सकते, महावीर नहीं कह सकते–कभी बनी ही नहीं चदरिया। वह जुलाहा ही कह सकता है। उसके पास दूसरी कोई भाषा नहीं है।
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लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि बुद्ध और महावीर की भाषा भी फीकी पड़ जाती है, राजमहल की भाषा है–जीवित कम। बहुत सुरक्षित रोपे की तरह है। खुले आकाश का रोपा नहीं है, हाट हाउस में रोपा गया रोपा है। खुले जंगल में, सूरज और तूफान में, आंधी और अंधड़ में बड़ा नहीं हुआ है। सुंदर हो सकता है, पर अति कोमल है। सौंदर्य में बल नहीं है।
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जब कबीर बोलते हैं तो बात ही और है ! जीवन के सीधे यथार्थ से शब्द आए हैं। इसलिए तुम्हें सरल लगते हैं। सरल लगने के कारण तुम्हें लगता है, इनमें रखा ही क्या है ? क्योंकि तुम समझ लेते हो तुम समझते हो, समझने को कुछ है ही नहीं। और यही मेरी चेष्टा है तुमसे; सहजो को, कबीर को, दादू को तुम्हारे सामने खींच रहा हूं, सिर्फ इसीलिए कि तुम्हें यह दिखायी पड़ जाए कि जहां तुम्हें लगता है सब समझ लिया, वहां बहुत समझने को शेष है।
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शंकराचार्य ने गीता पर टीका की। उपनिषदों पर टीका की। ब्रह्मसूत्र पर टीका की। इन तीनों पर भारत में सदा टीका होती रही है। किसी ने कभी सहजोबाई, कबीर, दादू इन पर टीका की ही नहीं। टीका करने को कुछ लगता ही नहीं। बात इतनी सरल है कि अब इसे और क्या समझाओ !
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और मैं तुमसे कहता हूं, जहां सरल है वहीं समझने को है। रहस्य सरलता में दबा है। जटिलता में तो तुम सिर्फ कोरे शब्द पाओगे, जिनकी छीछालेदर जितनी करनी हो कर लो, आखिर में पाओगे खाली हाथ आए खाली हाथ गए।
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जहां चीजें बिलकुल सरल मालूम पड़ें, वहां रुकना। उनके सरल होना का ही बड़ा रहस्य है। सरल होना इस बात का सबूत है कि कुछ है कहने को। जटिलता इस बात की सबूत है कि कहने को कुछ नहीं है। कथ्य की दरिद्रता को छिपाने के लिए शब्दों का जाल है। 
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जब कथ्य समृद्ध होता है, जो कहना है जब हीरा होता है, तब फिर उसे किसी और चीज से सजाने की जरूरत नहीं होती। कोहनूर अकेला ही रख दिया जा सकता है। वह काफी होगा। उसमें जोड़ने को और क्या है ? उसे तुम कुछ जोड़ोगे तो उसका सौंदर्य कम ही होगा।
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ये सहजोबाई के शब्द कोहिनूर जैसे हैं। अप्रतिम इनका सौंदर्य है; पर सौंदर्य सरलता का है। इसलिए बुद्धि से अगर तुमने देखा तो समझ में न आएगा, क्योंकि बुद्धि को जटिलता में मजा आता है, पहेलियां सुलझाने में मजा आता है। अगर हृदय से देखा, तो तुम इस सरलता में ऐसे रहस्य पाओगे जो कभी हल ही नहीं होते। उतरो, डूबो, तुम्हीं खो जाओगे; लेकिन कभी ऐसी घड़ी न आएगी जिस क्षण तुम कह सको जान लिया।
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जो जान लिया जाए उसका परमात्मा से क्या संबंध ? जो जान-जानकर भी अनजाना, अपरिचित रह जाए; पहचानते-पहचानते भी पहचान न बने; पकड़ो जितना ही उतना ही छूटता जाए; जितना पीछा करो उतना ही रहस्यपूर्ण होता चला जाए; वह अज्ञात ही परमात्मा है...
आचार्य श्री रजनीश ओशो
~ बिन घन परत फुहार ~

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