परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी

मंगलवार, 13 अगस्त 2024

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*प्रेम भक्ति जब ऊपजै, निश्‍चल सहज समाधि ।*
*दादू पीवे राम रस, सतगुरु के प्रसाद ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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खड़े तुम वहीं हो। सूरज भी वहीं है, तुम भी वहीं हो। फर्क सिर्फ पड़ जाता है कि तुम्हारी पीठ सूरज की तरफ है, तो बहुत दूर; मुंह सूरज की तरफ है, तो बहुत पास। परमात्मा तुम्हारे सदा एक सा ही पास है। उसकी नजर में, नानक कहते हैं, न कोई ऊंच है, न कोई नीच। न कोई पात्र, न कोई अपात्र। अगर तुम अपात्र हो तो अपने ही कारण। अपने में थोड़ा फर्क करो, और तुम पात्र हो जाओगे। क्योंकि जो पात्र हैं, उनमें और तुम में सिर्फ एक ही फर्क है। वे परमात्मा की तरफ उन्मुख हैं, तुम परमात्मा की तरफ विमुख हो।
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नानक कहते हैं, ‘जिन्होंने उसके नाम का ध्यान किया और सचाई से श्रम किया, उनके मुख उज्ज्वल होते हैं। और उनके साथ अनेकों मुक्त होते हैं।’ नानक कहते हैं, जब भी कोई मुक्त होता है, अकेला ही मुक्त नहीं होता। क्योंकि मुक्ति इतनी परम घटना है, और मुक्ति एक ऐसा महान अवसर है–एक व्यक्ति की मुक्ति भी–कि जो भी उसके निकट आते हैं, वे भी उस सुगंध से भर जाते हैं। उनकी जीवन-यात्रा भी बदल जाती है। जो भी उसके पास आ जाते हैं, वे भी उस ओंकार की धुन से भर जाते हैं। उनको भी मुक्ति का रस लग जाता है। उनको भी स्वाद मिल जाता है थोड़ा सा। और वह स्वाद उनके पूरे जीवन को बदल देता है।
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‘जिन्होंने उसका ध्यान किया, सचाई से उसके लिए श्रम किया, उनके मुख उज्ज्वल होते हैं।’ उनके भीतर एक प्रकाश जलता है। जो अगर तुम प्रेम से देखो, तो तुम्हें दिखायी पड़ सकता है। तुम अगर पूजा के भाव से पहचानो, तो तत्क्षण पहचान आ सकता है। उनके भीतर एक दीया जलता है। और उस दीए की रोशनी उनके चारों तरफ पड़ती है।
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इसलिए तो हमने संतपुरुषों, अवतारों के चेहरे के आसपास आभा का मंडल बनाया है। वह आभा का मंडल सभी को दिखायी नहीं पड़ता। वह उन्हीं को दिखायी पड़ता है, जिनके भीतर भाव की पहली किरण उतर आयी है। उन्हीं को दिखायी पड़ता है जिनके पास श्रद्धा है। जिनके पास श्रद्धा की पहचान है।
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और जिनको यह दिखायी पड़ता है, वे उस जले हुए दीए से अपना बुझा हुआ दीया भी जला लेते हैं। जब भी कोई एक मुक्त होता है, तो हजारों उसकी छाया में मुक्त होते हैं। एक व्यक्ति की मुक्ति कभी भी अकेली नहीं घटती। घट ही नहीं सकती। क्योंकि जब इतना परम अवसर मिलता है, तो ऐसा व्यक्ति बहुतों के लिए द्वार बन जाता है।
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तुम अपनी श्रद्धा और भाव को जगाए रखना, ताकि तुम्हें गुरु पहचान आ सके। और गुरु को जिसने पहचान लिया, उसने इस जगत में परमात्मा के हाथ को पहचान लिया। गुरु को जिसने पहचान लिया, उसने इस जगत में जगत के जो बाहर है उसको पहचान लिया। उसे द्वार मिल गया।
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और द्वार मिल जाए तो सब मिल गया। खोया तो कभी भी कुछ नहीं है। द्वार से गुजर कर तुम्हें अपनी पहचान आ जाती है। जो प्रकाश सदा से तुम्हारा है, उसकी सुरति आ जाती है। जो संपदा सदा से तुम्हारे पास है, आविष्कार हो जाता है। जो तुम सदा से ही थे, जिसे तुमने कभी खोया न था, गुरु तुम्हें उसकी पहचान करा देता है।
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कबीर ने कहा है, गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांव?
किसके छुऊं चरण ? अब दोनों सामने खड़े हैं। कबीर बड़ी दुविधा में पड़ गए हैं। किसके छुऊं चरण? अगर परमात्मा के चरण पहले छुऊं, तो गुरु का असम्मान होता है। अगर गुरु के चरण पहले छुऊं, तो परमात्मा का असम्मान होता है। तो कबीर कहते हैं, किस के चरण छुऊं ?
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फिर वे गुरु के ही चरण छूते हैं। क्योंकि वे कहते हैं, बलिहारी गुरु आपकी जिन गोविंद दियो बताय। जब वे दुविधा में पड़े हैं, तब गुरु ने कहा कि तू गोविंद के ही चरण छू। क्योंकि मैं यहीं तक था। यह बड़ी मीठी बात है। जब कबीर दुविधा में पड़े हैं तो गुरु ने कहा, इशारा किया, कि तू गोविंद के चरण छू, मैं यहीं तक था। मेरी बात यहीं समाप्त हो गयी। अब गोविंद सामने खड़े हैं। अब तू उन्हीं के चरण छू।
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बलिहारी गुरु आपकी जिन गोविंद दियो बताय।
लेकिन कबीर ने चरण फिर गुरु के ही छुए। क्योंकि उसकी बलिहारी है, उन्होंने गोविंद बताया। श्रद्धा हो तुम्हारे पास, तो तुम पहचान लोगे। बस ! श्रद्धा चाहिए, भाव चाहिए। विचार से न कोई कभी पहुंचा है, न कोई कभी पहुंच सकता है। तुम वह असफल चेष्टा मत करना। वह असंभव है। वह कभी नहीं हुआ। और तुम भी अपवाद नहीं हो सकते।
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और गुरु सदा मौजूद है। क्योंकि ऐसा कभी नहीं होता कि संसार के इन अनंत लोगों में कुछ लोग उसे न पा लेते हों। कुछ लोग हमेशा ही उसे पा लेते हैं। इसलिए कभी भी धरती गुरु से खाली नहीं होती। दुर्भाग्य ऐसा कभी नहीं आता कि धरती गुरुओं से खाली हो। लेकिन ऐसा दुर्भाग्य कभी-कभी आ जाता है कि पहचानने वाले बिलकुल नहीं होते। बस इतना ही....
ओशो

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