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*दादू साध सबै कर देखना, असाध न दीसै कोइ ।*
*जिहिं के हिरदै हरि नहीं, तिहिं तन टोटा होइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ सारग्राही का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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उपदेश का अंग ८
शरीर को नाश करै सु संन्यासी जु,
जोगी सोई जुगति सु विचारै ।
दरवेश सोई जिहिं देह न व्यापै,
बौद्ध सोई जा वपु सु विसारै ॥
भक्त सोई सब भूले बिना हरि,
जैने सोई जोई जीव उधारे१ ।
ऐसे ही ज्ञानि मिले भगवंता हिं,
रज्जब राम न स्वांग२ सौं तारै ॥३॥
शरीर का राग नाश करता है वही संन्यासी है । युक्ति पूर्वक प्रभु मिलन के साधन का विचार करता है वही योगी है ।
जिसे देहाध्यास नहीं व्यापता वही दरवेश है । जो शरीर को भूल जाता है वही बौद्ध है ।
हरि के बिना सबको भूल जाता है वही भक्त है । जो जीवों की रक्षा१ करता है वही जैन है ।
ऐसे ही जो भगवत् स्वरूप में मिल जाता है वही ज्ञानी है । किसी प्रकार के भेष२ को धारण करने से राम जी संसार से नहीं तारते साधन से ही तारते हैं । अत: साधन संतत करना चाहिये ।
(क्रमशः)
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