मंगलवार, 6 अगस्त 2024

*श्री रज्जबवाणी, उपदेश का अंग ८*

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*कहे कहे का होत है, कहे न सीझै काम ।*
*कहे कहे का पाइये, जब लग हृदै न आवै राम ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साँच का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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उपदेश का अंग ८
आरन१ काढे सौं सार२ व्है शीतल,
सार की आगि सु औषधि मारिये ।
बंबूर के विछुरे बीज ह्वै चीकनो,
बीच अंकूर सु पावक जारिये ॥
सालरि बाढ्याा रही बढिबे सौं जु,
ऊगिबो जाय जे छ्यूंत५ उतारिये ।
हो६ रज्जब सु:ख कुटुम्ब के छाड़े,
कुबुद्धि के छाड़े सौं कारज सारिये७ ॥२॥
अरहन१ से अलग हटाने से लोहा२ शीतल हो जाता है किंतु लोहे के भीतर की गर्मी रूप अग्नि तो सु औषधियों से ही मारा जाता है ।
बंबूर से अलग होने पर बीज चिकना तो हो जाता है किंतु उसकी उगने की शक्ति रूप अंकुर तो अग्नि से भून कर ही जलाया जाता है ।
सालर वृक्ष की शाख काट३ कर अलग डालने पर बढ़ने से तो रुक४ जाती है किंतु उसका पुन: उगना तो छाल५ उतारैं तब ही नष्ट होता है ।
वैसे ही हे६ सज्जनों ! कुटुम्ब के छोड़ने से सुख तो होता है किंतु मुक्ति रूप कार्य तो कुबुद्धि को छोड़ने से ही सिद्ध७ होता है ।
(क्रमशः)

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