सोमवार, 17 फ़रवरी 2025

*वियोगानन्तर संयोग*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*प्रेम लहर की पालकी, आतम बैसे आइ ।*
*दादू खेलै पीव सौं, यहु सुख कह्या न जाइ ॥*
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*वियोगानन्तर संयोग*
॥साषी लापचारी की॥१ (इसका अर्थ ‘भेष बिन साध कौ अंग’ में देखें ।)
अब मेरे नैंन सीतल भये ।
निरमल बदन निहारत हरि कौ, पाप पुरातन दूरि गये ॥टेक॥
महलि सहेली मंगल गावै, परफूलित अति कवल बिगास ।
अब ऊणारति रही न कोई, मन का मनोरथ पुरवन आस ॥
आनँद आज भयौ मन मेरे, आनँद की निधि नैंनौं जोइ ।
घरि आनँद बाहरि परि आनँद, आनँद आनँद चहुँ दिसि होइ ॥
मेरै रली बधाई मेरै, मेरै प्रीतम संगि सनेह ।
दरसन परि बषनौं बलिहारी, जाणिक दूधाँ बूठौ मेह ॥३६॥
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लापचारी = इसका शाब्दिक सही अर्थ क्या है, हमारी जानकारी में नहीं है किन्तु गायक किसी पद को गाने के पूर्व पद की विषयवस्तु से साम्य रखने वाली कोई साखी, दोहा, श्लोक आदि बोला करते हैं । संभवतः पूर्वपीठिका, पुरोवाक्, प्रस्तावना ही लापचारी शब्द का प्रसंगतः अर्थ सही हो । पुरातन = संचितकर्मों का नाश हो गया । प्रारब्धकर्मों का नाश भोग से तथा संचितकर्मों का नाश भगवन्नामजप, भगवद्दर्शन से ठीक उसी प्रकार हो जाता है जैसे अग्नि की चिनगी पड़ने पर घास का नाश हो जाता है । ‘क्रीयमाण करिये नहीं, प्रारब्ध कर्म ले भोग । संचित ऊपर भजन करि, यौं छूटै भव रोग ।’ श्रीरामजन वीतराग वाणी ॥ कवल = कमल । ऊणारति = कमी । पुरवन = पूरी करने के लिये । बूठौ = वर्षा हुई ॥
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परमप्रियतम के मिल जाने पर अब मेरा रोना-धोना बंद हो गया है जिससे मेरे नेत्र शीतल हो गये हैं । प्रियतम के निर्मल मुखकमल को देखते ही मेरे समस्त संचितकर्मों का नाश हो गया है ।
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शरीर रूपी महल में निवास करने वाली सभी इन्द्रियाँ रूपी सखियाँ आनंदित हुई मंगलाचार करने लगी हैं और हृदय = अंतःकरण आनन्दमग्न हो गया है । अब कोई भी किसी भी प्रकार की कमी शेष नहीं रह गई है क्योंकि मन के मनोरथों को पूर्ण करने वाले परमप्रियतम का मुझे साक्षात्कार हो जो गया है ।
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आनंद की निधि = परमावधि रूप प्रियतम को नेत्रों द्वारा निहारकर आज मेरा मन आनंद में निमग्न हो गया है मेरे मन में परम आनंद हुआ है । शरीरस्थ हृदय में आनंद है । शरीर के बाहर = व्यवहार पक्ष में परमानंद का अनुभव हो रहा है । चारों ओर आनंद ही आनंद है । चारों अन्तःकरणों में आनंद ही आनंद हो गया है । वस्तुतः जब तक अंतःकरण रहता है तब तक ही अनानंद की स्थिति रहती है । जैसे ही यह परमात्मामय होता है, वैसे ही अखण्डानंद की स्थिति का प्राकट्य हो जाता है ।
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मुझे परमात्मा की प्राप्ति हो गयी है । मेरे बधाई = आनंद का संचार हो गया है । मेरे चित्त में प्रियतम के प्रति अनन्यप्रीति का संचार हो गया है । परमात्मा के दर्शन पर बषनां न्यौछावर होता है क्योंकि अब ऐसा लग रहा है मानों वर्षा जल की न होकर दूध की हो रही है ॥३६॥
(क्रमशः)

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