रविवार, 9 फ़रवरी 2025

*धूंधलीमल नाथजी*

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*दादू जब ही साधु सताइये, तब ही ऊँघ पलट ।*
*आकाश धँसै, धरती खिसै, तीनों लोक गरक ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*धूंधलीमल नाथजी*
छप्पय-
धुनि ध्यान सहित मल धूंधली, पुर पट्टण पर्वत रहे ।
आसपास इक शिष्य, सुतो अति आज्ञाकारी ।
भिक्षा माँगन काज, फिरत सो नगरी सारी ॥
करै मसकरी लोग, खेचरी भीख न पावै ।
माथे लकरी ढ़ोई, बेचि रोटी करि ल्यावै ॥
राघव चाँदी बूझ शिर, पट्टण सब दट्टण कहे ।
धनि ध्यान सहित मल धूंधली, पर पट्टण पर्वत रहे ॥३१५॥
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ध्यान सहित अनाहत नाद की ध्वनि सुनने वाले धूंधलीमलजी अपने एक शिष्य के साथ विचरते हुए पट्टण नगर में पहुंचे और वहाँ के पर्वत में एक सुन्दर आश्रम देख कर घूंधलीनाथजी ने अपने शिष्य को कहा- "मैं यहाँ १२ वर्ष की समाधि लगाना चाहता हूँ ।"
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शिष्य ने कहा- "जैसी आपकी इच्छा हो, वैसा ही कीजिये ।" फिर पट्टणपुर के पर्वत में ही ठहर गये और घूंधलीजी ने १२ वर्ष की समाधि लगा ली । वह उनका अति आज्ञाकारी शिष्य उनकी समाधि गुफा के आस-पास ही रहता था । भिक्षा के लिये संपूर्ण पट्टण नगरी में फिरता था ....
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किन्तु लोग उसे भिक्षा तो नहीं देते थे और हँसी मजाक करते थे तथा और भी विपरीत ही छेड़छाड़ करते थे । नगरी में उसे भिक्षा प्राप्त नहीं होती थी । ग्राम के बाहर एक कुम्हार का घर था । उस घर की एक वृद्धा माता उसे रोटी देती थी । किन्तु कुछ दिन के पश्चात् माई ने कहा- "नाथजी । हम गरीब लोग हैं और आपको यहाँ १२ वर्ष रहना है । एक दो रोटी तो मैं सदा दे सकती हूँ किन्तु आपका पूरा भोजन देने में असमर्थ हूँ । इस लिए आप मैं कहूँ वैसा करें तो ठीक रहेगा । वन से एक सूखी लकड़ियों की भारी लाकर नगर में बेच ने अपने खाने जितना अन्न ला दिया करो और सब काम मैं करूँगी ।" नाथजी वैसा ही करने लगे । अपने शिर पर लकड़ि‌याँ उठाकर बेच आते थे । अन्न लाकर माई को दे देते थे । माई रोटी बनाकर देती थी । वे रोटियाँ खाकर भोजन करते हुए १२ वर्ष निकाल दिये ।
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गुरुजी की समाधि खुली, एक दिन अपने शिष्यों को कहा- "आज भिक्षा लाने मैं जाऊँगा ।" शिष्य के कहा-" आप क्यों कष्ट करते हैं मैं ही ले आऊँगा ।" किन्तु उनने नहीं माना स्वयं ही गए । किसी ने भी भिक्षा नहीं दी । ग्राम के बाहर उस माता ने ही भिक्षा दी, जो नाथजी को रोटी बनाकर देती थी । उस माता से घूंधलीजी ने पूछा । इस ग्राम में तो कोई भी भिक्षा नहीं देता । मेरे शिष्य ने १२ वर्ष कैले निकाले होंगे ?
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माई ने कहा- "उनका सिर देखना, लकड़ियाँ ढोते ढोते शिर के बाल भी उड़ गये हैं ।" धूंधलीजी ने आकर देखा और शिर पर पड़े हुए दागों के लिए पूछा, ये दाग कैसे पड़े । शिष्य ने सब बात बता दी । तब धूंधलीजी ने शिष्य को कहा- "जाओ उस माई को कहो कि अति शीघ्र अपना सर्वस्व और कुटुम्ब को लेकर पट्टण की सीमा से बाहर हो जाय ।" शिष्य ने जाकर कह दिया। उसने भी अति शीघ्र जाने का यत्न किया । उसके जाने के पश्चात् धूंधलीजी ने कहा- "पट्टण पट्टण सब दट्टण ।" पट्टण पट्टण सब भूमि में मिल जाय । कहते हैं जितने भी पट्टण ग्राम थे वे सब ही भूमि में मिलने लगे थे । किन्तु गोरक्षनाथजी ने अन्य की तो रक्षा की और वह पट्टण तो लापता हो गया ॥३१५॥
(क्रमशः)

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