गुरुवार, 17 अप्रैल 2025

*४६. परमारथ कौ अंग १३/१६*

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*४६. परमारथ कौ अंग १३/१६*
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परमारथ जिस देह मैं, प्रेम पिवै अरु पाइ ।
कहि जगजीवन रांम रटि, रांमहि मांहि समाइ ॥१३॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जिस देह में परमार्थ द्वारा प्रेम बांटा व ग्रहण किया जाता है वे जीव स्मरण द्वारा राम में ही समा जाते हैं । उनपर प्रभु कृपा होती है ।
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जगजीवन बैठे सकल, करम किया५ की नालि६ ।
साध निरंतर नांम ले, हरि भजि रांम संभालि ॥१४॥
(५. कीया=कृत कर्म) (६. नालि=साथ)
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जो कर्म व सभी क्रियाओं करते हुये भी स्मरण नहीं भूलते वे ही साधुजन राम स्मरण निष्ठा पूर्वक सम्भाले हुये हैं ।
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जगजीवन सत बांटिये, सत ही मांहि संतोष ।
जहां की तहां पहुँचावतां, नहिं लिया१ दिया२ को दोष ॥१५॥
(१. लिया=ग्रहण किया) (२. दिया=प्रदत्त)
संत जगजीवन जी कहते हैं कि सत्य ही बरतिये सत्य में ही संतोष है जिसका है उस तक देने में कोइ दोष नहीं है नाम प्रभु का लेकर प्रभु तक ही अर्पण करना है ।
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रिधि सिधि जन के रांम से, प्रेम पिवै अरु पाइ ।
ए खाणां ए पीवणां, जगजीवन तहां ताहि ॥१६॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जो रिद्धि व सिद्धि सिद्धियां है वे भी प्रभु भक्तों की सेवा में हैं । प्रेम पीती व पिलाती हैं । उनका यह भी भोजन है । अर्थात प्रेम से ही सब सिद्ध या प्राप्त होती हैं ।
(क्रमशः)

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