परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी

सोमवार, 29 सितंबर 2025

*५. पतिव्रत कौ अंग ४५/४८*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*५. पतिव्रत कौ अंग ४५/४८*
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जहं जहं भेजै रामजी, तहं तहं सुन्दर जाइ । 
दाणां पांणी देह का, पहली धर्या बनाइ ॥४५॥
भगवान् जहाँ भी भेजते हैं आप का भक्त सुन्दर दास प्रसन्नता के साथ वहाँ चला जाता है । वहाँ पहुँचने से पहले ही, उसका योग क्षेम(दाना पानी) वहाँ रखा हुआ मिल जाता है ॥४५॥
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अपणां सारा कछु नहीं, डोरी हरि कै हाथ । 
सुन्दर डोलै बांदरा, बाजीगर कै साथ* ॥४६॥
(* तु०- श्रीदादूवाणी -
डोरी हरि कै हाथ है, गल मांहीं मेरै । 
बाजीगर का बांदरा, भावै तहाँ फेरै ॥ 
{२१/१७})
इस जहाँ तहाँ आने जाने में मैं अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रखता; क्योंकि जहाँ तहाँ भेजने का यह उत्तरदायित्व मेरे प्रभु के हाथ में हैं । जैसे बाजीगर का बन्दर वहाँ वहाँ जाकर ही अपना खेल दिखा पाता है जहाँ कि बाजीगर चाहता है । इस कार्य में बन्दर स्वतन्त्र नहीं होता ॥४६॥
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ज्यौ हीं आवै राम मन, सुन्दर त्यौं ही धारि । 
जो ही भावै पीव कौं, सोई भावै नारि ॥४७॥
महात्मा श्रीसुन्दरदासजी साधक को समझाते हैं कि तुम को उस प्रभु का जब जो नाम ध्यान में आवे उसी का जप करना आरम्भ कर दे । जैसे कि पतिव्रता स्त्री केवल वही कार्य करना चाहती है जो उस के स्वामी को भी प्रिय लगता हो ॥४७॥
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सुन्दर प्रभु मुख सौं कहै, सोई मीठी बात । 
डार कहै तौ डार ही, पात कहै तौ पात ॥४८॥
प्रभु जो प्रसन्नभाव से बोलते हों वही पतिव्रता को भी बोलना उचित है । यदि वह डाल(शाखा) बोल रहे हैं तो पत्नी को 'डाल' बोलकर ही प्रसन्न होना चाहिये । तथा यदि वे पात(पत्र) बोल रहे हों तो उसे भी 'पात' ही बोलना चाहिये । (वह अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व न स्थापित करे ।) ॥४८॥
(क्रमशः)

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