परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी

मंगलवार, 30 सितंबर 2025

*५. पतिव्रत कौ अंग ४९/५१*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*५. पतिव्रत कौ अंग ४९/५१*
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जौ प्रभु कौं प्यारी लगै, सोई प्यारौ मोहि । 
सुन्दर ऐसें समुझि करि, यौं पतिबरता होहि ॥४९॥
किसी भी साध्वी पत्नी का यही मन्तव्य होना चाहिये कि जो उसका पति बोले वही उसको प्रिय लगना चाहिये । ऐसी दृढ धारणा वाली साध्वी स्त्री ही 'पतिव्रता' कहलाती है ॥४९॥
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सुन्दर प्रभु की चाकरी, हाँसी खेल न जांनि ।
पहलै मन कौं हाथ करि, पीछै पतिब्रत ठांनि ॥५०॥  
स्वामी की एकनिष्ठा से सेवा करना साधारण बात(हंसी खेल) नहीं होती । अतः पहले अपने मन को सुदृढ़ कर के ही किसी स्त्री को पतिव्रत धर्म के पालन की प्रतिज्ञा करनी चाहिये । कहा भी है – “सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः “ – नीति-शतक ॥५०॥
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सुन्दर कछू न कीजिये, क्रिया कर्म भ्रम आन ।
करने कौं हरि भक्ति है, समझन कौं है ज्ञान* ॥५१॥(*इस दोहा के माध्यम से सुन्दरदासजी महाराज ने दादूपंथ के प्रमुख सिद्धांत ‘भक्तियुक्त ज्ञान’ का प्रतिपादन किया है ॥) 
महात्मा श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं – साधक के लिये सभी भ्रमात्मक कर्मों का त्याग कर केवल दो ही कर्तव्य शेष रह जाते हैं – १. हरिभक्ति एवं २. तत्त्वबोध ॥५१॥
इति पतिब्रत का अंग समाप्त ॥५॥
(क्रमशः) 

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