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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*५. पतिव्रत कौ अंग ३७/४०*
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रजा राम की सीस पर, आज्ञा मेटै नांहिं । 
ज्यौं राखै त्यौं ही रहै, सुन्दर पतिव्रत मांहिं ॥३७॥
साधक को सदा प्रभु की आज्ञा में ही रहना चाहिये । उस की आज्ञा का कभी उल्लङ्घन न हो - इस का निरन्तर ध्यान रखना चाहिये । वे जैसे रखना चाहें वैसे ही रहना चाहिये । उसे उनके प्रति सदा पतिव्रत धर्म(एकान्त निष्ठा) का पालन करना चाहिये ॥३७॥
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साहिब मेरा रामजी, सुन्दर खिजमतिगार । 
पाव पलोटै प्रीति सौं, सदा रहै हुसियार ॥३८॥
महात्मा श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - साधक को चाहिये कि वह निरञ्जन निराकार प्रभु को अपना स्वामी समझते हुए निरन्तर उस की सेवा में एकान्त निष्ठा से तत्पर रहे । यही उसका पतिव्रत धर्म है ॥३८॥
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करै हजूरी बन्दगी, और न कोई काम । 
हुकम कहै त्यौं ही चलै, सुन्दर सदा गुलाम ॥३९॥
साधक को केवल उस प्रभु की ही आज्ञा में रहना चाहिये । इसके अतिरिक्त उस का कोई कर्तव्य नहीं है । वे जैसी आज्ञा करें तदनुसार उसे जीवन में आचरण करना चाहिये, क्योंकि साधक तो सर्वथा अपने प्रभु के अधीन(गुलाम) होता है ॥३९॥
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पति कौ बचन लियें रहै, सो पतिबरता नारि । 
सुन्दर भावै पीव कौं, आवै नहीं अवगारि ॥४०॥
महात्मा श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - हम तो उसी को पतिव्रता स्त्री कहेंगे जो अपने पति के आज्ञावचनों का निरन्तर पालन करती रहे; क्योंकि किसी भी पति को अपनी किसी भी आज्ञा का उल्लङ्घन उसको अपना अपमान(अवज्ञा = अवगारि) प्रतीत होता है ॥४०॥
(क्रमशः)

 
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