रविवार, 28 सितंबर 2025

*५. पतिव्रत कौ अंग ४१/४४*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*५. पतिव्रत कौ अंग ४१/४४*
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जौ पिय कौ व्रत ले रहै, कन्त पियारी सोइ । 
अंजन मंजन दूरि करि, सुन्दर सनमुख होइ ॥४१॥
जो स्त्री पति की आज्ञा का निरन्तर पालन करती है वही स्त्री पति को प्रिय होती है । पति अपनी स्त्री के साजशृङ्गार में उतनी रुचि नहीं रखता जितनी रुचि उसकी इस की आज्ञा की पूर्ति में रहती है । वह चाहता है कि उस की स्त्री उसकी आज्ञा के पालन हेतु निरन्तर उसके सम्मुख रहे ॥४१॥
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अपना बल सब छाडि दे, सेवै तन मन लाइ । 
सुन्दर तब पिय रीझि करि, राखै कंठ लगाइ ॥४२॥
अपने सामर्थ्य का अभिमान त्याग कर तन एवं मन लगाकर पति की सेवा करनी चाहिये । तभी(इस बात से प्रसन्न होकर) उस का पति उस को अपने गले लगा कर रखेगा ॥४२॥
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प्रीतम मेरा एक तूं, सुन्दर और न कोइ । 
गुप्त भया किस कारनै, काहि न परगट होइ ॥४३॥
हे प्रियतम ! मुझे तो इस समस्त संससर में आप ही सबसे सुन्दर प्रतीत होते हैं । फिर भी आप किस कारण से छिपे हुए हैं ? आप सामने क्यों नहीं आते ! ॥४३॥
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हृदये मेरै तूं बसै, रसना तेरा नाम । 
रोम रोम मैं रमि रह्या, सुन्दर सब ही ठाम ॥४४॥
मेरे हृदय में आपका ही वास है, मेरी जिह्वा पर भी निरन्तर आप का ही नाम रहता है । अधिक क्या कहूं ! मेरे शरीर के रोम रोम में आप विराजमान हैं; क्योंकि आप सर्वव्यापक है ॥४४॥
(क्रमशः)

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