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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*६. उपदेश चितावनी कौ अंग २१/२४*
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सुन्दर अति अज्ञान नर, समुंझत नहीं लगार ।
जिनहिं लडावै लाड तूं, ते ठोकि हैं कपार ॥२१॥
ये अज्ञानी नर इन कौटुम्बिक जनों के स्वार्थमय प्रेम की वास्तविकता नहीं समझते कि जिनके प्रति आज हम इतना प्रेम प्रदर्शित कर रहे हैं वे ही एक दिन निर्दय होकर हमारा सिर फोड़ेंगे(शवदाह के समय कपालक्रिया करेंगे) ॥२१॥
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सुन्दर माया मोह तजि, भजिये आतम राम ।
ये संगी दिन चारि कै, सुत दारा धन धाम ॥२२॥
महात्मा श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - अतः इन अज्ञानियों को हमारी अब भी यही सलाह(परामर्श) है कि वे संसार का माया मोह त्याग कर एकमात्र निरञ्जन राम प्रभु का सतत चिन्तन करें; क्योंकि ये कुटुम्बी जन, माता पिता, पुत्र, पत्नी आदि के साथ रहने वाले या धन धाम आदि सम्पत्ति सब कुछ कतिपय दिनों के लिये ही हमारे साथी हैं ॥२२॥
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सुन्दर नदी प्रवाह मैं, मिल्यौ काठ संजोग ।
'आपु आपु कौं ह्वे गये, त्यौं कुटंब सब लोग ॥२३॥
कुछ उदाहरण : जैसे कोई बुद्धिमान् पुरुष नदी को पार करने के लिये नदी में बहते हुए काष्ठ को पकड़ कर नदी पार कर उस काष्ठ को छोड़ कर वह पुरुष अपने गन्तव्य स्थल को चल देता है; वही स्थिति परिवार में कुटुम्बी जनों की है ॥२३॥ (१)
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सुन्दर बैठे नाव मैं, कहूं कहूं तें आई ।
पार भये कतहूं गये, त्यौं कुटंब सब जाइ ॥२४॥
जैसे किसी नदी को पार करने के लिये यात्री जन नाव में आ कर बैठ जाते हैं, तथा लक्ष्यस्थान तक पहुँचने पर वे उस नाव को छोड़कर अपने अपने घर चले जाते हैं; वही स्थिति परिवार में कुटुम्बी जनों की है । वे भी प्रारब्धवश वहाँ आते हैं तथा प्रारब्धभोग के बाद वे उसे छोड़कर वहाँ से चल देते हैं ॥२४॥ (२)
(क्रमशः)
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