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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*६. उपदेश चितावनी कौ अंग ९/१२*
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सुन्दर कछु संख्या नहीं, बहुतक धरे शरीर ।
अबकै तूं भगवंत भजि, विलम करै जिनि बीर ॥९॥
अरे भाई ! अब तक तूंने कितनी योनियों में जा कर कितने शरीरों में जन्म लिया है - इसकी गणना नहीं की जा सकती । इस बार तूं ने यह मानव शरीर पा लिया है, इस के आश्रयण से तूं भगवद्भक्ति कर अपने पुराने पापों को धो सकता है । अतः अब इसमें विलम्ब न कर ॥९॥
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सुन्दर या नर देह है, सब देहनि कौ मूल ।
भावै यामैं समझि तूं, भावै यामैं भूल ॥१०॥
क्योंकि संसार की सभी योनियों में यह मानव देह ही सर्वप्रधान है । अब ऐसी अनमोल देह पाकर तुझ पर ही निर्भर है कि भले ही अब तूँ, बुद्धिमत्ता से काम लेता हुआ भगवद्भक्ति में लग जा, या पूर्ववत् प्रमाद करता हुआ पुनः नाना योनियों में भटकता रह ॥१०॥
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सुन्दर मनुषा देह धरि, भज्यौ नहीं भगवंत ।
तौ पशु ज्यौं पूरै उदर, शूकर स्वान अनंत ॥११॥
यदि मानव देह पा कर भी यदि तूं ने स्वयं को भगवद्भक्ति में न लगाया और केवल उदरपोषण में स्वयं को लगाये रखा तो तूं ने कौन बड़ा काम कर लिया ! अपना उदरपोषण तो किसी न किसी उपाय से शुकर, कूकर आदि अनेक पशु भी करते हैं ॥११॥
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सुन्दर या नर देह अब, खुल्यौ मुक्ति कौ द्वार ।
यों ही बृथा न खोइये, तोहि कह्यौ कै बार ॥१२॥
महात्मा श्रीसुन्दरदासजी कहते है - अरे मूर्ख मानव ! मैं तुझे कितनी बार समझा चुका हूं कि तेरा यह मानव शरीर तेरे लिये भवबन्धनमुक्ति का खुला द्वार है । इसे व्यर्थ नष्ट न होने दे । भगवद्भक्ति करता हुआ इसका सदुपयोग कर ॥१२॥
(क्रमशः)

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