शुक्रवार, 31 मार्च 2017

= १६२ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू मैं नाहीं तब एक है, मैं आई तब दोइ ।
मैं तैं पड़दा मिट गया, तब ज्यूं था त्यूं ही होइ ॥ 
दादू है को भय घणां, नाहीं को कुछ नाहीं ।
दादू नाहीं होइ रहु, अपणे साहिब माहिं ॥ 
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साभार ~ Nishi Dureja
एक भिक्षु था, नागसेन। एक सम्राट मिलिंद ने उसे निमंत्रण भेजा था। निमंत्रण लेकर सम्राट का दूत गया और कहा कि भिक्षु नागसेन! सम्राट ने निमंत्रण भेजा है। आपके स्वागत के लिए हम तैयार हैं। आप राजधानी आएं। तो उस भिक्षु नागसेन ने कहा कि आऊंगा जरूर, निमंत्रण स्वीकार। लेकिन सम्राट को कह देना कि भिक्षु नागसेन जैसा कोई व्यक्ति है नहीं। ऐसा कोई व्यक्ति है ही नहीं। 
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राजदूत तो चौंका, फिर आएगा कौन, फिर निमंत्रण किसको स्वीकार है? लेकिन कुछ कहना उसने उचित न समझा। जाकर निवेदन कर दिया सम्राट को। सम्राट भी हैरान हुआ। लेकिन प्रतीक्षा करें, आएगा भिक्षु तो पूछ लेंगे कि क्या था उसका अर्थ?
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फिर भिक्षु को लेने रथ चला गया। फिर स्वर्ण - रथ पर बैठ कर वह भिक्षु चला आया। वह कमजोर भिक्षु न रहा होगा कि कहता कि नहीं, सोने को हम न छुएंगे। कमजोर भिक्षु होता तो कहता कि नहीं सोने को हम न छुएंगे, सोना तो मिट्टी है। लेकिन बड़ा मजा यह है कि सोने को मिट्टी भी कहता और छूने में डरता भी है !
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वह बैठ गया रथ पर, चल पड़ा रथ। आ गई राजधानी, सम्राट नगर के द्वार पर लेने आया था। सम्राट ने कहा कि भिक्षु नागसेन! स्वागत करते हैं नगर में। वह हंसने लगा भिक्षु। उसने कहा स्वागत करें, स्वागत स्वीकार, लेकिन भिक्षु नागसेन जैसा कोई है नहीं। सम्राट ने कहा फिर वही बात! हम तो सोचते थे महल तक ले चलें फिर पूछेंगे। आपने महल के द्वार पर ही बात उठा दी है तो हम पूछ लें कि क्या कहते हैं आप? भिक्षु नागसेन नहीं है तो फिर आप कौन हैं?
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भिक्षु उतर आया रथ से और कहने लगा कि महाराज! यह रथ है? महाराज ने कहा रथ है। भिक्षु ने कहा घोड़े छोड़ दिए जाएं रथ से। घोड़े छोड़ दिए गए और वह भिक्षु कहने लगा ये घोड़े रथ हैं? महाराज ने कहा नहीं, घोड़े रथ नहीं हैं। घोड़ों को विदा कर दो। चाक निकलवा लिए रथ के और कहने लगा भिक्षु कि ये रथ हैं? महाराज ने कहा नहीं, ये तो चक्के हैं, रथ कहां! कहा चक्कों को अलग कर दो!
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फिर एक - एक अंग - अंग निकलने लगा उस रथ का और वह पूछने लगा यह है रथ, यह है रथ, यह है रथ ? और महाराज कहने लगे नहीं - नहीं, यह रथ नहीं है, यह रथ नहीं है! फिर तो सारा रथ ही निकल गया और वहां शून्य रह गया, वहां कुछ भी न बचा। और तब वह पूछने लगा फिर रथ कहां है ? रथ था, और मैंने एक - एक चीज पूछ ली और आप कहने लगे नहीं, यह तो चाक है, नहीं, यह तो डंडा है, नहीं, यह तो यह है, नहीं, ये तो घोड़े हैं; और अब सब चीजें चली गईं जो रथ नहीं थीं! रथ कहां है ? रथ बचना था पीछे ? वह मिलिंद भी मुश्किल में पड़ गया। वह भिक्षु कहने लगा रथ नहीं था। रथ था एक जोड़। रथ था एक संज्ञा, एक रूपाकृति।
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वह भिक्षु नागसेन कहने लगा: मैं भी नहीं हूं, हूं अनंत की शक्तियों का एक जोड़। एक रूपाकृति उठती है, लीन हो जाती है। एक लहर बनती है, बिखर जाती है। नहीं हूं मैं, वैसा ही हूं जैसा रथ था, वैसा ही नहीं हूं जैसा अब रथ नहीं है। खींच लें सूरज की किरणें, खींच लें पृथ्वी का रस, खींच लें हवाओं की ऊर्जा, खींच लें चेतना के सागर से आई हुई आत्मा - फिर कहां हूं मैं ? हूं एक जोड़, हूं एक रथ।
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व्यक्ति कहीं भी नहीं है। अनंत जीवन की ऊर्जा और शक्तियां कटती हैं और व्यक्ति निर्मित होता है। यह जो व्यक्ति अहंकार है, यह जो ईगो सेंटर है, यह जो खयाल है कि मैं हूं, इसकी खोज करनी बहुत जरूरी है।

... जय हो ...

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