शनिवार, 1 अप्रैल 2017

= मन का अंग =(१०/१६-८)

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卐 सत्यराम सा 卐 
*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*मन का अँग १०*
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हरि सुमिरण सौं हेत कर, तब मन निश्चल होइ । 
दादू बेध्या प्रेम रस, बीष१ न चाले सोइ ॥ १६ ॥ 
१६ - १९ में मनोनिग्रह का उपाय कह रहे हैं - हरि स्मरण से प्रेम करो तब ही मन स्थिर होगा । जब मन भगवत् प्रेम - रस से विद्ध हो जायगा तब भगवद् भजन को छोड़कर विषय की ओर या दूसरी ओर एक पग१ भी न उठा सकेगा=अन्य सँकल्प नहीं कर सकेगा । 
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जब अंतर उरझा एक सौं, तब थाके सकल उपाइ । 
दादू निश्चल थिर भया, तब चल कहीं न जाइ ॥ १७ ॥ 
जब मन आन्तर आत्म स्वरूप अद्वैत ब्रह्म के ध्यान में फंस जाता है तब बहिर्मुख करने के उपाय विषय - वासनादि उसे बहिर्मुख करने में सफल नहीं होते । जब उसकी ब्रह्माकार वृत्ति निश्चल होकर ब्रह्म में स्थिर होती है तब वह ब्रह्म से चलकर लोक - परलोकादि के विषयों में कहीं भी नहीं जाता । 
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दादू कौवा बोहित१ बैस कर, मँझ समँदां जाइ । 
उड़ उड़ थाका देख तब, निश्चल बैठा आइ ॥ १८ ॥ 
प्राचीन काल में समुद्र यात्रा करने वाले दिशा ज्ञान के लिए अपने साथ काक पक्षी रखते थे और समुद्र में दूर जाकर उसे छोड़ देते था । वह उड़ - उड़ कर थक जाता था तब जहाज के बाँस के स्तँभ पर अपने देश की ओर मुख करके बैठ जाता था । उसीके रूपक से कह रहे हैं - मन - काक जब आत्मज्ञान - जहाज१ पर बैठकर सँसार - समुद्र के वास्तविक - विचार मध्य देश में चला जाता है, तब उसे सँसार असत्य भासने लगता है । फिर उसमें सत्यता को देखने के लिए बारँबार विचार - उड़ान लगाकर थक जाता है, किन्तु उसमें सत्यता नहीं मिलती, इसलिए निश्चल होकर ज्ञान रूप जहाज पर बैठ जाता है । इसी प्रकार हमारा मन निश्चल होकर आत्म - स्वरूप ज्ञान में ही आ बैठा है ।
(क्रमशः)

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