बुधवार, 15 मार्च 2017

= विन्दु (२)९४ =

#daduji
॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू चरितामृत(भाग-२)*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*= विन्दु ९४ =*
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*= अन्य धाम की आशा निषेध =*
पश्चात् एक दिन - टीला, केशव, गोविन्ददास, गोपाल, नरहरि आदि दादूजी के शिष्यों ने विचार किया कि - नारायणा धाम के समान एक और भी धाम बनना चाहिये । धाम बनने से लोकोपकार होता रहता है । देखो, यहां धाम बनने के पश्चात् कितना परोपकार होता रहता है । दूसरा धाम बन जायगा तो वहां भी ऐसे ही लोकोपकार होने लगेगा । अतः द्वितीय धाम के लिये भी महाराज से प्रार्थना करनी चाहिये । फिर उक्त सब शिष्यों ने मिलकर प्रार्थना की - भगवन् ! ऐसा ही एक धाम और बनना चाहिये । 
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तब दादूजी महाराज ने कहा - यहां ही क्यों नहीं रहते हो ? द्वितीय धाम बन जायगा तब तृतीय धाम बनाने की इच्छा होगी । इस रजो गुणी प्रवृत्ति को छोड़कर ब्रह्म - भजन करो, जितनी आशा करोगे उतनी ही वह बढ़ेगी और ब्रह्म - भजन में बाधक होकर दुःख ही बढ़ायेगी । अतः द्वितीय धाम की आशा छोड़कर निज जीवन को सफल बनाने के लिये ब्रह्म - भजन में ही मन लगाओ । दादूजी महाराज का उक्त वचन सुनकर सब ने मौन द्वारा स्वीकार कर लिया । कुछ भी नहीं बोले और नारायणा धाम में ही रहकर ब्रह्म - भजन करने लगे । 
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उक्त प्रकार दादूजी महाराज नारायणा में विराजने लग गये । यह सूचना सब ओर पहुँच गई, इससे भावुक भक्त तथा विरक्त संतों को एक स्थान का निश्चय हो गया तब देश से विदेश सत्संग तथा दर्शनों के लिये साधु तथा गृहस्थ भक्त आने लगे । नारायणा नरेश तथा नारायणा की जनता आगत अतिथियों की सेवा में सहर्ष भाग लेने लगे । सौ - दोसौ का प्रतिदिन आना जाना बना ही रहता था । 
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*= पूर्वकाल के सिद्ध संतों का आना =* .
फिर एक दिन रात्रि के समय नारायणा के नारायण अश्रु विन्दु सरोवर के तट पर स्थित दादू धाम में बनी हुई भजन - शाल में बैठे हुये दादूजी ब्रह्म - भजन कर रहे थे कि उनको सहसा आकाश से भजनशाल के आंगण में परम अद्भुत प्रकाश उतरता हुआ दृष्टि पड़ा और देखते - देखते ही पूर्वकाल के कई सिद्ध संत - दत्त, गोरक्ष, प्रहालादादि आंगण में आगये । उनको देखकर दिव्य दृष्टि वाले संत प्रवर दादूजी उन्हें पहचान गये फिर परस्पर सप्रेम प्रणामादि शिष्टाचार हो जाने पर सब यथा योग्य स्थान पर विराज गये तब दादूजी महाराज ने कहा - 
“साधु मिलैं तब हरि मिलैं, सब सुख आनन्द - मूर । 
दादू संगति साधु की, राम रहा भरपूर ॥” 
अर्थात संत मिलन हरि के समान ही होता है । सभी ज्ञानी संत आनन्द - मूल अर्थात ब्रह्म स्वरूप ही होते हैं । संतों की संगति से ही इस विश्व में दूध में नवनीत के समान परिपूर्ण रूप से ब्रह्म है यह ज्ञान होता है । फिर जैसे मन्थन से नवनीत प्रकट रूप से भासता है, वैसे ही संतों के शब्दों के विचार से निरंजन राम अपने आत्मस्वरूप से प्रत्यक्ष भासते अन्यथा नहीं भासते । दादूजी का उक्त वचन सुनकर पूर्वकाल के संत भी निरंजन ब्रह्म राम के स्वरूप संबन्धी अपना - अपना अनुभव बारी - बारी से प्रकट रूप में सुनाने लगे । इस प्रकार सर्व रात्रि में ब्रह्म विचार - गोष्टी चलती रही ।
(क्रमशः)

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